कोलकाता। सांस्कृतिक और सामाजिक संस्था ‘वाराही’ की ओर से कला मंदिर ऑडिटोरियम, कोलकाता के कला कुंज में नृत्य, नाट्य और कविता का एक रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किया। समारोह में सन्मार्ग के वरिष्ठ पत्रकार डॉ.अभिज्ञात के कविता संग्रह ‘कुछ दुःख कुछ चुप्पियां’ का लोकार्पण साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने किया।
इस अवसर पर उन्होंने कहा कि दुःख और निराशा-हताशा। ये दोनों चीज़ें अलग-अलग हैं। इस संग्रह की कविताओं के केन्द्र में दुःख हैं और चुप्पियां भी हैं। दुःख से उपजी हताशा या निराशा इनमें नहीं है। दुःख और करुणा तो सारी कविताओं के केन्द्र में रहा है।
वाल्मीकि का पहला श्लोक है-मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। पहली कविता है.. वह दुःख की है। निराला की कविता में भी दुःख रहा है। निराला महाकवि हैं छायावाद के। हमारे समय में तो उनसे बड़ा कवि कोई नहीं हुआ। ‘दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।’ सरोज स्मृति, उनकी महान कविता है, दुख उसके केन्द्र में है.. तो दुःख और हताशा में फर्क है। ये कविताएं हताशा- निराशा के गर्त से बाहर निकालती हैं। दुःख को अभिज्ञात ताक़त बना लेते हैं। दुःख की ताक़त अभिज्ञात की कई कविताओं में मिली।
दूसरे ये कि अर्थ से अलग कर दिये गये शब्द हैं। यह हमारे समय की बौद्धिक सच्चाई है। चाहे वह कोई भी सत्ताधारी हो, हमें लगता है कि जिन शब्दों का वह इस्तेमाल करता है उसका वह अर्थ नहीं है, जो होना चाहिए। उसके आशय कुछ और होते हैं। जब वे कह रहे होते हैं कि मुसलमानों को डरने की ज़रूरत नहीं है, तो दरअसल वे उन्हें डरा रहे होते हैं। तो शब्दों के अर्थ बदल दिये गये हैं। और सब मिलाकर यह जो कविता विरोधी समय है, उसकी अभिज्ञात चीरफाड़ करते हैं अपनी कविता में।
वे कहते हैं कि ‘दुःख इस सृष्टि का सबसे पुराना बीज है’..या कि वे एक कविता में कहते हैं कि -‘हर घर से दुत्कारे जाने वाले हे दुःख यह एक कवि का घर है..स्वागतम् स्वागतम्’ तो यह कवि दुःख का स्वागत करता है। इस तरह की इसमें बहुत सी कविताएं हैं। और मुझे लगता है कि जब शब्द जब अर्थ खो देते हैं..चुप्पियां शब्दों से अधिक शक्तिशाली होती हैं, इसी आशय की कविताएं इस संग्रह में हैं। अभिज्ञात कहते हैं कि ‘जब शब्द अर्थ खो देते हैं तब बोलती हैं चुप्पियां’। इस संग्रह में पीठ को पढ़ने की कविताएं भी हैं।
मनुष्य की संवेदनाएं पीठ पर देखी जा सकती हैं..चेहरे पर देखने की बजाय। इनकी पीठ पर लिखीं कविताओं को पढ़कर मुझे एक फ़िल्म का दृश्य आता है ऋतिक घटक की फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’.. इस फ़िल्म में एक व्यक्ति की पीठ से ही खुशी और आनंद को व्यक्त कर दिया जाता है। इनकी कविता में एक हाशिया है, जिसका बार-बार ज़िक्र आया है। तो तमाम सूचियों में निरस्त कर दिये गये दृश्य व क्रिया- कलाप को प्रश्रय देती है ये कविताएं। दुःख से उम्मीद पैदा होने की एक छोटी सी कविता है, जो खुद से सवाल है-‘क्या मैं दुनिया बदलने तक रहूंगा..नहीं मैं दुनिया बदलने के लिए रहूंगा।’ आप चाहें तो इन्हें अभिज्ञात का वक्तव्य मान सकते हैं और चाहें तो इस कविता को दुःख का वक्तव्य भी मान सकते हैं।
इस कार्यक्रम का नाम दिया गया था- ‘चित्राम्बरा 2019’। समारोह में फिल्म जगत के मशहूर निर्माता-निर्देशक, लेखक और नाटककार सागर सरहदी का लिखा बहुचर्चित नाटक “किसी सीमा की एक मामूली सी घटना” को पश्चिम बंगाल के सुप्रसिद्ध अभिनेता और निर्देशक प्रताप जायसवाल के निर्देशन में मंचित किया गया।
इस समारोह के दूसरे सत्र में ‘नृत्य विशारद’ पदवी से विभूषित एवं विश्व के विभिन्न देशों में अपने नृत्य का प्रदर्शन कर चुकी “नृत्यांगना डांस एकेडमी” की संस्थापक प्रियंका साहा व उनकी टीम के कलाकारों द्वारा कथक नृत्य की प्रस्तुति की गयी। तृतीय चरण में कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें मंगलेश डबराल, सुभाष, डॉ.आशुतोष, डॉ.अभिज्ञात, यतीश कुमार, जितेंद्र धीर, राज्यवर्धन और निशांत ने काव्य-पाठ किया। वाराही की सचिव नीता अनामिका ने कार्यक्रम का संयोजन किया था। समारोह में प्रताप जायसवाल को रंगमंच में उनके योगदान के लिए चित्राम्बरा सम्मान से सम्मानित किया गया।