अभिषेक उपाध्याय-
युद्ध की इस ज़मीन पर आए करीब एक महीना होने वाला है। युद्ध अब मेरी हथेलियों में उगने लगा है। हाथ की लकीरें रोज़ शिकायत करती हैं। इस नए मेहमान ने उनका स्पेस खा लिया है। वे मुझसे कविताएं पढ़ने की ज़िद करती हैं। कभी फ़राज़ को याद करती हैं। कभी फ़ैज़ को बुलाती हैं तो कभी निराला और दुष्यंत के लिए बेचैन हो जाती हैं। पर युद्ध तो कविता के खिलाफ है। कविता रचती है। युद्ध नष्ट करता है। फिर दोनो साथ कैसे हो सकते हैं? सो अब कविताएं पढ़नी छोड़ दी हैं। कुछ अप्रत्याशित सा हुआ है, इस बीच। न कोई आर्टिलरी शेल गिरी है। न मिसाइल अटैक हुआ है। एक गोली भी नही चली है, फिर भी मेरे भीतर कुछ टूट गया है। मैं अपने भीतर से बेघर हो गया हूँ। युद्ध ऐसा ही करता है।
मैं इस समय यूक्रेन की राजधानी कीव में हूँ। खारकीव और पोलतावा पीछे छूट गए हैं। मगर उनकी तस्वीरों ने मुझसे पूछे बगैर ही मेरी आँखों में घर कर लिया है। यूक्रेन के खारकीव शहर पर सबसे भयानक हमला हुआ है। तमाम खतरे उठाकर जब यहां पहुंचा तो रात के दस बज चुके थे। बाहर दो तरह के कर्फ्यू थे। एक जमीन पर दूसरा आसमान पर। जमीन पर खारकीव प्रशासन का और आसमान पर कुछ कुछ मिनटों के अंतराल पर गिरती रूसी मिसाइलों का। ज़बरदस्त बर्फ़बारी के बीच रात स्टेशन पर ही काटी। पूरा स्टेशन खचाखच भरा था। पर इनमें यात्री एक भी नही था। सबके सब पलायन करने वाले लोग थे जो अपना शहर छोड़कर भाग रहे थे। स्टेशन के उपरी हिस्से सें लेकर अंडरग्राउंड मेट्रो के शेड तक कहीं पांव तक रखने की जगह नही थी। हर कोई डरा सहमा हुआ था। बस नन्हें मासूम बच्चे ही थे जो इस सबसे बेपरवाह दौड़ रहे थे। खिलखिला रहे थे। जिदिया रहे थे। सच कहूँ तो रूसी मिसाइलों को चिढ़ा रहे थे।
इस बीच अचानक तेज़ धमाका हुआ। ठीक स्टेशन के बग़ल में। लोग भयानक अफ़रातफ़री में सीढ़ियों से नीचे की ओर भागे। युद्ध से घिरे हुए देशों में एक आम प्रोटोकाल है कि खतरा देखते ही बेसमेंट या बंकर में भागो। यही हाल मैने इजरायल में देखा। फिर आर्मीनिया-अजरबैजान की लड़ाई में देखा और अब यहां भी यही देख रहा हूँ। इसी हड़बड़ी में कई लोग एक दूसरे के उपर गिर गए। वे चीख रहे थे। भाग रहे थे। धमाके अट्टहास कर रहे थे। अगली सुबह खारकीव शहर में घुसा तो लगा ट्रेन किसी ग़लत पते पर ले आई है। महज 15 दिन पहले जिस खूबसूरत शहर को छोड़कर आगे बढ़ा था, उसकी अब तासीर ही बदल चुकी थी। जिन खूबसूरत, ऐतिहासिक और इतराती हुई इमारतों के आगे से रिपोर्ट की थी, वे अब आंख मिलाने को तैयार नही हैं। इस युद्ध ने उनके चेहरे पर इतने घाव कर दिए हैं कि वे अब दुनिया से मुंह चुराने लगी हैं। इन इमारतों की आंख में पानी था। इनकी आवाज़ लड़खड़ाई हुई थी। कौन कहता है कि इमारतें बेजान हुआ करती हैं?
खारकीव में सैकड़ों भारतीय विद्यार्थी फँसे हुए थे। किसी तरह उन तक पहुंचा। फिर उनके साथ बस से पोलतावा शहर तक आया। अब कीव वापस जाना था। फिर एक रात स्टेशन पर कटी। रात में ट्रेनें कईं आईं। पर चढ़ना नामुमकिन था। यहां भी वही कहानी थी। पूरा स्टेशन बच्चों,महिलाओं और बुजुर्गों से भरा पड़ा था। यूक्रेन की सरकार ने 18 साल से 60 साल तक के युवाओं के देश छोड़ने पर पाबंदी लगा दी है। बाकी सभी देश छोड़कर भाग रहे हैं।यहां हर पल उनकी जान को खतरा है। जैसे ही कोई ट्रेन आती, रात के माइनस टेंप्रेचर में प्लेटफॉर्म पर लोगों की भीड़ लग जाती। ये ट्रेनें खारकीव से होकर आ रहीं थीं, इसलिए पहले से ही भरी होती थीं। बावजूद डिब्बों के गलियारे और बाहरी हिस्से में जितनी भी जगह बचती,महिलाएँ और बच्चे भीतर भर लिए जाते। मगर कितने? हर ट्रेन में करीब 40-50 भर। उसके बाद ट्रेन के दरवाजे बंद हो जाते और बाहर सिसकियों की आ्ंधी उठती। वे महिलाएँ जो छूट गईं, जार जार रोना शुरू कर देती्ं। अग़ली ट्रेन में भी उन्हें जगह मिलेगी, उसकी कोई गारंटी नही थी और अगर यहां छूट गईं तो जिंदगी की ही कोई गारंटी नही। बड़ी मुश्किल से सुबह होते होते एक ट्रेन में जगह मिली। वो भी जगह क्या थी, सिर्फ दो पांव टिकाए रखने भर की ज़मीन थी। पर ये जमीन बेशक़ीमती थी। इस जमीन में पूरा जीवन था।
अब वापिस कीव आ गया हूँ। करीब एक महीना पहले यहीं से शुरू किया था। इसके बाद तो कीव से खारकीव, डोनेत्स से लुगांश, ओडेशा से लवीव और पोलतावा से ब्लैक सी तक इस देश में कितना कुछ छान मारा। मगर हासिल क्या हुआ? सिवाए युद्ध के! युद्ध अब दोस्त बन चुका है। इससे एक अजीब सा अपनापा हो चला है। दिन भर की थकावट के बाद रात मेरे कंधे पर सिर रखकर सो जाता है और मैं भरसक उसे थपकियाँ देता जाता हूँ कि उसकी नींद न टूट जाए। मगर अगली सुबह ही एक नया हादसा हो जता है। युद्ध ही मुझे जगाता है। वो जाने कैसे मुझसे पहले उठ जाता है!!