शम्भूनाथ शुक्ला-
एक बार उत्तर भारत के एक प्रतिष्ठित दैनिक के एक संस्करण का मुझे संपादक बनाया गया। मेरे सामने जो प्रतिद्वंदी अख़बार था, वह उस इलाक़े का क़रीब 55 साल पुराना तथा हर सुविधाओं से लैस अख़बार था।
एक महीने मैंने ख़ूब ध्यान से वह अख़बार पढ़ा और मुझे लगा कि यह अख़बार एक विशेष समुदाय की खबरों की अनदेखी करता है। जबकि 50 लाख की आबादी वाले उस शहर में उस विशेष समुदाय की संख्या दस लाख के क़रीब थी।
मैंने उस समुदाय को पकड़ा। अख़बार की क़ीमत आठ आने कम की और दो महीने के भीतर शहर में प्रतिद्वंदी अख़बार से दस हज़ार कॉपी आगे बढ़ गया। मेरे दैनिक के मालिक बहुत ख़ुश हुए और छह महीने के भीतर मेरा वेतन 25 प्रतिशत बढ़ा दिया।
किंतु अख़बार के जीएम को उन्होंने आदेश दिया कि प्रसार 20 हज़ार कॉपी कम कर दो। यह सब चुपचाप हुआ। अब अख़बार का प्रसार बढ़े ही नहीं। एकाध बार मैंने सरकुलेशन के मैनेजर को लताड़ा भी। पर कोई जवाब नहीं।
एक दिन जीएम साहब मेरे घर आए और बोले शुक्ला जी आप संपादक हो। निश्चय ही आपने इस अख़बार को शानदार और जानदार लुक दिया है लेकिन अख़बार का गणित अलग है।
आपने जिस समुदाय के बीच अख़बार को बढ़ाया है, उनकी औक़ात चवन्नी का विज्ञापन देने की नहीं है। ये रंगीन अख़बार, ढेर सारे पन्ने, भारी भरकम स्टाफ़ कोई दान खाते से नहीं चलता। अख़बार चलता है बनियों से। इसलिए उनकी इच्छाओं व सेठानियों के इवेंट को हम छापेंगे। यही पेज थ्री है और यही पॉलिसी है।
मैं अपनी बात पर अड़ा रहा और एक दिन अख़बार से मुक्त कर दिया गया। अब आज हालत यह है कि पंद्रह साल तक देश के नामचीन अख़बारों में संपादक रहने के बावजूद मुझे रोज़ कुआँ खोदना पड़ता है। इसलिए भाई वृकोदर! अख़बार आपकी सनक से नहीं व्यापारियों की गणित से चलता है।