प्रिय बंधु
नमस्कार
जनसत्ता को लेकर एक टिप्पणी भेज रहा हूं। सुना है कि आपका ब्लाग काफी पढ़ा जाता है। मेरी चिंता को स्थान देंगे तो बहुत आभारी रहूंगा। मैं एक शिक्षक हूं और आज का जनसत्ता देखकर दुखी हूं। सोच रहा हूं कि संपादक को भी लिखूं। टिप्पणी थोड़ी आक्रोश में लिखी है, आप देख लीजिए।
देवेंद्र नागमणि
आरके पुरम
दिल्ली
जनसत्ता में कूढ़मगज संपादक और फटफटिया लेखक का विष्ठा वमन
1 मई (मजदूर दिवस) का ”जनसत्ता” अखबार मेरे सामने पड़ा है। इसका ”रविवारी जनसत्ता” का पहला पन्ना- देहलीला से देहगान तक -( पोर्न स्टार सनी को लियोनी पर आधारित) की स्टोरी देख कर मैं हैरान हूं। यही लेख हो सकता है कहीं और छपा होता तो मुझे हैरानी नहीं होती। लेख में सनी को आज की वुमेन आइकन की तरह पेश किया गया है। यानी इरोम शर्मिला, मेरा कॉम, सोनी सोरी, मेधा पाटकर आदि की जगह गई बट्टेखाते में। जनसत्ता ने नई औरत की नई परिभाषा दे दी है। मेरे हिसाब से यह इस अखबार का विष्ठा-वमन है। जनसत्ता का ऐसा पतन, इतना पतन। मेरी कल्पना से परे है। इसे सुधीश पचौरी महाशय ने लिखा है। वे वैसे भी फटफटिया लेखक हैं और उसे हिंदी में गंभीरता से कोई नहीं लेता। उसे राइटिंग-डायरिया है। बाएं हाथ से मार्क्स पर लिख देता है और दाएं हाथ से गुरु गोलवलकर पर। बीच वाली डंडी से सनी पर लेखनी चलाई है।
कहते हैं कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह गांव की तरफ भागता है, लेकिन जब एक अखबार की मौत आती है तो वह पोर्न-आइकन की तरफ भागता है। जनसत्ता अगर कल नहीं, परसों, या कुछ बरसों-बाद बंद हुआ या बंद न भी हुआ और किसी लकवाग्रस्त रोगी की तरह घिसटता रहा तो, मई दिवस की यह कवर (कब्र)-कथा का उसमें बड़ा योगदान होगा। मेरे विचार से जनसत्ता की अपनी जो पहचान थी, उसे उसी रास्ते पर चलना चाहिए था। लेकिन, यह मौजूदा संपादक का मानसिक दिवालियापन ही कहा जाएगा कि उसे कुछ ”मसालेदार” चीजों में बढ़ता सर्कुलेशन नजर आ रहा है। मैं नहीं जानता कि संपादक कौन है, लेकिन मेरे खयाल से यह व्यक्ति प्रभाष-परंपरा का बिल्कुल नहीं है। मुझे तो लगता है कि यह प्रभाष जोशी का गू-मूत्र उठाने लायक भी नहीं है। यह वही अखबार है, जिसने रवींद्रनाथ टैगोर, फैज अहमद, मजाज, नागार्जुन से लेकर न जाने कितने महान लोगों पर स्टोरियां की हैं। कभी मंगलेश डबराल इसके संपादक होते थे। जनसत्ता को बचाना है तो उसे अपने को इस मौजूदा संपादक से मुक्त करना होगा।
”जनसत्ता ” न सिर्फ मेरा, बल्कि हिंदी पट्टी के एक बहुत बड़े बौद्धिक वर्ग की मानसिक-बौद्धिक भूख लंबे अरसे से शांत करता रहा है। प्रभाष जोशी के लंबे कार्यकाल में इसका समाचार और विचार पक्ष दोनों काफी सशक्त थे । इसका सर्कुलेशन भी ठीकठाक था। जोशीजी के जाने के बाद ओम थानवी ने इसकी सत्ता संभाली तो इसका समाचार पक्ष क्षीण हो गया। सर्कुलेशन भी कुछ खास नहीं रहा। लेकिन, इसके बावजूद थानवी की कुव्वत यह रही कि उन्होंने इसके संपादकीय पृष्ठ और रविवारी के स्तर को न सिर्फ कायम रखा, बल्कि उसे बौद्धिक ऊंचाई और गरिमा प्रदान की। अखबार को सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक सरोकार से जोड़े रखा। बाजारी मानसिकता से अलग हटकर उन्होंने इसे अपनी प्रतिभा के दम पर चर्चा में बनाए रखा। अखबार का सर्कुलेशन कम होने के बावजूद जनसत्ता की आवाज की अनसुनी नहीं की जा सकती थी। सत्ता से टकराने का मामला रहा हो या सांप्रदायिक ताकतों से लोहा लेने का, थानवी के बौद्धिक कौशल और हिम्मत को दाद देनी चाहिए।
मैं देख रहा हूं कि कई महीनों से वैसे भी अखबार में कुछ दम नहीं रह गया है। इसका संपादकीय पेज चलताऊ लेखों की मगजमारी से बजबचा रहा है। लगता है कायदे के लेखक या विदा कर दिए गए हैं या उन्होंने खुद ही इससे अपना हाथ खींच लिया है। नएपन के नाम पर एक सनीचरी पन्ना निकलता है, जो कायर्कारी संपादक मुकेश भारद्वाज लिखते हैं, हास्यास्पदता और निरर्थकता का फूहड़ नमूना है।
मेरे कुछ परिचित साथी और मित्र महीनों पहले जनसत्ता बंद करा चुके थे, एक मैं ही इसे पढ़े जा रहा था। आज से मेरे लिए भी इसका दरवाजा बंद ।
जनसत्ता जो सालों से मेरी सुबह का पहला मुलाकाती रहा था।
अलिवदा जनसत्ता!
देवेंद्र नागमणि
आरके पुरम
दिल्ली
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रणबीर सिंह
May 4, 2016 at 3:48 am
प्रिय देवेन्द्र जी, आपकी चिंता वाजिब ही नहीं बल्कि सत्य कथन है. प्रभाष जोशी और थानवी जी के रहते यह संभव नहीं था. कभी जमाना था कि वे मेरी एक लम्बी चिट्ठी और कुछ चित्रों को रविवारी का पूरे पहले पन्ने का लेख बना सकते थे. मूल लेख को पढूंगा, अभी आपकी टिप्पणी ही देखी है. लेकिन मैं यह देख कर चकित हूँ कि जनसत्ता भी आखिर पतन की ओर अग्रसर हो ही गया.
gopalji rai
May 4, 2016 at 6:29 am
अखबार को अखबार की नज़र से देखे उसे रामायण मत समझिए ,वो धंधा करने के लिए है साहित्य सेवा के लिए नहीं है अब