हिंदी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह को हाल ही में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया। इसमें शायद ही कोई मतभेद हो कि अपनी आधी शताब्दी पूरी करने की ओर बढ़ने के बावजूद आज भी भारतीय भाषाओं के लेखकों को मिलने वाला यह सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है। यह भी जगजाहिर है कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार पाने के बाद लगभग हर भारतीयभाषी लेखक की खुली-छिपी महत्त्वाकांक्षा यह रहती है कि उसे ज्ञानपीठ पुरस्कार मिले।
इस महत्त्वपूर्ण पुरस्कार की खबर हिंदी के तो तमाम अखबारों में उचित महत्त्व के साथ प्रकाशित हुई ही, दूरदर्शन के डीडी भारती चैनल ने भी शायद पहली बार इस समारोह का सीधा प्रसारण करना आवश्यक समझा। मगर दिलचस्प है कि ‘द हिंदू’ को छोड़ कर शायद ही किसी प्रमुख अंगरेजी अखबार ने इस समारोह की कवरेज अपने यहां देना जरूरी समझा, जबकि देश के एक बड़े अंगरेजी अखबार के मालिक ने ही इस पुरस्कार की स्थापना की थी। यह सही है कि इस परिवार की मौजूदा पीढ़ी की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है (फिल्म और बिजनेस पुरस्कार में वह अपनी दिलचस्पी बढ़ा चुकी है), फिर भी किसी न किसी रूप में इस सम्मान से इस परिवार के पुराने लोग जुड़े हुए हैं।
खैर, देश के प्रथम नागरिक भारतीय साहित्य का यह बड़ा सम्मान एक ऐसे वरिष्ठ कवि को दे रहे थे, जो खुद पिछले करीब तीन दशक से दिल्ली में रह रहा है, जो एक हिंदीभाषी प्रदेश है, जहां से करीब दर्जन भर हिंदी अखबार निकलते हैं और कई ने इस बीच अपना प्रसारण तेजी से बढ़ा कर अंगरेजी अखबारों को चुनौती भी दी है, वहां इस तरह की महत्त्वपूर्ण खबर की अनदेखी करना क्या बताता है?
एक तो शायद यह कि अंगरेजी पत्रकारिता को भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य की कोई परवाह नहीं है, चाहे उसमें कितनी ही बड़ी घटना क्यों न हो जाए। अगर ऐसा है, तो इसका कोई ठोस-वस्तुगत कारण होना चाहिए या फिर इसे उनकी मूढ़ता, अज्ञान या दंभ का प्रदर्शन मानना चाहिए। ऐसा नहीं कि जो अंगरेजी अखबार पढ़ते हैं, वे इतने अंगरेजीदां होते हैं कि उन्हें हिंदी और हिंदी साहित्य में इतनी भी दिलचस्पी नहीं कि उन्हें यह सूचित करना जरूरी हो कि इस बार भारतीय भाषाओं के साहित्य का सर्वोच्च सम्मान किसे मिला या उन्हें यह खबर दे देंगे तो अपच हो जाएगा! क्या इसे एक तरह से खबरों का ‘ब्लैक आउट’ नहीं माना जाना चाहिए? ठीक है अब राष्ट्रपति क्या कहते हैं, क्या नहीं कहते, इससे अंगरेजी अखबारों को मतलब नहीं (हां, तोगड़िया या शाही इमाम कोई भड़काऊ बात कहें तो जरूर जरूरत से ज्यादा मतलब है)। मगर राष्ट्रपति ने यह तकलीफ क्यों की है, क्या यह जानने की भी उत्सुकता उन्हें नहीं?
क्या अब अंगरेजी में लिखा साहित्य ही साहित्य है, हिंदी या भारतीय भाषाओं में लिखा गया साहित्य, साहित्य नहीं रहा? अगर एक हिंदी प्रदेश और देश की राजधानी में रहने वाले पाठकों के लिए भी यह खबर नहीं है तो फिर खबर क्या होती है और क्या नहीं, यह सीखने-समझने के लिए भी अब इनके पास जाना पड़ेगा। क्या इन पर बाजारवाद इतना ज्यादा हावी हो गया है कि इनके लिए यह कोई खबर नहीं है या बेचारे अंगरेजी अखबार वालों के पास हिंदी वालों से भी पृष्ठ बहुत कम होते हैं, इसलिए ऐसी खबरों के लिए उनके पास जगह नहीं है? या कहीं हिंदी से ही कोई समस्या है, इसलिए यह खबर नहीं है?
यह सुखद आश्चर्य और संतोष की बात है कि मूलत: हिंदी के राजनीतिक विरोध के लिए आज भी विख्यात-कुख्यात तमिलनाडु से मूल रूप से निकलने वाले ‘द हिंदू’ के दिल्ली संस्करण के पास तो इस खबर के लिए जगह है। वह वैसे भी समय-समय पर हिंदीभाषी क्षेत्रों की साहित्यिक गतिविधियों-लेखकों को महत्त्व देता रहता है। कभी-कभी वह हिंदी की किताबों के समीक्षा छापता है, कभी हिंदी लेखकों से खाने पर बातचीत करके उनके लेखन पर चर्चा के लिए भी जगह बनाता है। आजकल वहां हिंदी क्षेत्र की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के बारे में पाक्षिक स्तंभ प्रकाशित किया जा रहा है। मगर जो अंगरेजी अखबार दशकों से दिल्ली से प्रकाशित हो रहे हैं, जिनके मालिक मारवाड़ी समुदाय से आते हैं, उनकी इस खबर विशेष की ही बात नहीं है, बल्कि सामान्यतया हिंदी और उसके साहित्य, उसके लेखकों में किसी तरह की कोई दिलचस्पी नहीं होती। वे अखिल भारतीय मुशायरे की खबर छाप देंगे, हिंदीतर भारतीय भाषाओं की खबरें भी यदाकदा छाप देंगे, मगर उनके लिए हिंदी की कोई साहित्यिक खबर, खबर नहीं होती।
इसके कई कारण माने जा सकते हैं: शायद वे मानते हों कि हिंदी पिछड़ी हुई भाषा है और इसमें ढंग का कभी कुछ लिखा नहीं जाता, हालांकि इस जानकारी का, इस धारणा का उनका आधार क्या है, वे जानें या खुदा जानें। वैसे यह धारणा कितनी पोच है, इसके लिए उन्हें अंगरेजी पत्रकारिता के इतिहास में थोड़ा पीछे जाने पर पता चलेगा कि द टाइम्स आॅफ इंडिया के सबसे मशहूर और पढ़े-लिखे संपादक रहे शामलाल देश-विदेश की तमाम ताजा पुस्तकों के बारे में अभी तक का जो सबसे गंभीर साप्ताहिक स्तंभ लिखा करते थे, उसमें आज से करीब पचास साल पहले की भी हिंदी किताबों और उनके लेखकों को शामिल करना जरूरी समझते थे। या तो वे विद्वान पत्रकार नहीं थे या फिर आज के अंगरेजी पत्रकार उनसे ज्यादा विद्वान हो चुके हैं। दोनों में से कोई एक बात सच हो सकती है। क्या है, यह आप स्वयं तय कर लें।
एक समस्या शायद यह हो कि हिंदीभाषी क्षेत्र के जो पत्रकार अंगरेजी अखबारों के लिए काम करते और बड़े पदों पर हैं, वे सामान्यतया सांस्कृतिक रूप से निरक्षर हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि अन्यथा काफी हद तक जागरूक अंगरेजी पत्रकार ऐसे नहीं होंगे। फिर जानबूझ कर की जाने वाली इस उपेक्षा के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? शायद यह हो कि अंगरेजीभाषी वर्ग को हिंदी की तमाम सीमाओं, समस्याओं और गरीब से गरीब वर्ग के बच्चों के अंगरेजी स्कूल में जाने के बावजूद हिंदी से व्यक्त-अव्यक्त भय लगा रहता हो कि कहीं राजनीतिक और व्यावसायिक रूप से दबदबा बढ़ाती यह भाषा निकट भविष्य में अंगरेजी के लिए चुनौती न बन जाए।
निश्चित रूप से राजनीतिकों, नौकरशाहों, मीडियाकर्मियों और उनकी आगामी पीढ़ियों के व्यापक और दूरगामी हित अंगरेजी से जुड़े हुए हैं। उनका सारा आभामंडल इस भाषा के अभी तक चले आ रहे प्रभुत्व के कारण है, इसलिए वे अपने और अपनी संतानों के संकटों को बढ़ाने का काम क्यों करना चाहेंगे। वैसे क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि आज अंगरेजीदां किस्म के जितने भी प्रभावशाली नेता हैं, उनमें से अट्ठानबे प्रतिशत का कोई जमीनी आधार नहीं है और वे अगर राजनीति में बने हुए हैं तो सिर्फ जमीनी आधार के नेताओं के रहमोकरम पर। नौकरशाही भी दिनोंदिन यह देख रही है कि हिंदी या भारतीय भाषाओं में सहज महसूस करने वाले राजनीतिकों का वर्चस्व बढ़ रहा है, इसलिए उनका गढ़ भी अब उतना मजबूत नहीं रहा, जितना कि हाल तक होता था और आगे भी ऐसे ही नेता आते गए, तो हालत खराब होती जाएगी।
यही डर पत्रकारिता में भी हो तो आश्चर्य नहीं। बहुत से वरिष्ठ अंगरेजी पत्रकार इस खतरे को समझ कर अपने आलेख पिछले कई वर्षों से हिंदी अखबारों में भी छपवाने लगे हैं, ताकि इन पाठकों में भी उनकी पहचान बनी रहे और हिंदी या भारतीयभाषी राजनीतिक वर्ग उनके नाम और प्रभाव से मुक्त न हो पाए। कुछ भय शायद नरेंद्र मोदी के राजनीतिक उभार ने भी पैदा किया हो, जो अच्छी तरह अपनी मातृभाषा या हिंदी ही जानते हैं और उनके अधिकतर मंत्री भी ऐसे ही हैं। कौन जानता है कि आगे सत्ताधारी पार्टी या पार्टियां बदलने पर भी यह सिलसिला जारी नहीं रहेगा?
अभी तक हम हिंदीभाषियों में अंगरेजी को लेकर जो तरह-तरह की कुंठाओं की- जो वास्तविक हैं- बात करते रहे हैं, हमने शायद उस समय पलट कर यह नहीं देखा कि अंगरेजीदां वर्ग भी हमसे कुंठित है। लेकिन अंगरेजीवालो, यह मत समझना कि हम हिंदी वाले आपके द्वारा नोटिस लिए जाने को तरस रहे हैं, हम तो आपको आईना दिखा रहे हैं कि आप अंतत: क्या हैं।
लेखक विष्णु नागर जाने-माने पत्रकार और साहित्यकार हैं. उनका यह लिखा जनसत्ता अखबार में प्रकाशित हो चुका है.