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सियासत

ये राजनीतिक संत किसकी कर रहा है चाकरी!

-के पी सिंह

अन्ना हजारे के गुफा से बाहर निकलकर केजरीवाल पर दहाड़ने का क्या है रहस्य…गांधी जी के स्वंयभू अवतार श्रीमान अन्ना हजारे केन्द्र में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद से गहरी निद्रा में लीन हो गये थे जो अब टूटी है और इसके निहितार्थ कोई बहुत छुपे हुए नहीं हैं। उन पर पहले से ही आरोप लगने शुरू हो गये थे कि मनमोहन सिंह के जमाने में उन्होंने आरएसएस के एजेंट की भूमिका अदा की थी जिसके कारण चुनाव में मनमोहन सिंह की सरकार का पतन होने के बाद उन्होंने अपनी मुखरता को विराम लगा दिया ताकि भाजपा सरकार में आने के बाद अपने चक्रवर्ती विस्तार के लिए निश्चिंत होकर कार्य कर सके। तमाम लोगों ने उनके इस तरह खामोश हो जाने पर समय-समय पर उन्हें कटघरे में खड़ा किया ताकि उनकी नैतिकता को झकझोरा जा सके। लेकिन उन्होंने बेहयायी की ऐसी चादर तान ली कि उन्हें कुछ भी बोलना इसलिए गंवारा नहीं हुआ क्योंकि परिवर्तन कामी की नियति सत्ता के दोषों के खिलाफ सतत आवाज उठाना होती है और अन्ना हजारे तो फर्जी संत थे इसलिए उनकी कलई खुले या कुछ भी हो पर उन्होंने अपनी भूमिका पूरी निभाने के बाद वीतराग मुद्रा ओढ़े रहने में ही खैरियत समझी।

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बहरहाल इन दिनों भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सबसे ज्यादा परेशान आम आदमी पार्टी से हैं। उन्होंने आम आदमी पार्टी पर निशाना साधने के लिए उरई की सभा में राजनीति में पनप रही तथाकथित रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ बेतुका राग अलापा क्योंकि उरई और बुन्देलखण्ड तो क्या अभी तो उत्तर प्रदेश में भी आम आदमी पार्टी किसी गिनती में नहीं आ पायी है तो यहां उसकी चर्चा करके उसे बढ़ावा देने की मूढ़ता क्यों की जानी चाहिए थी। दरअसल मोदी आम आदमी पार्टी की बढ़ती स्वीकार्यता से इस कदर अधीर हो गये हैं कि वे अपने आपे में नहीं रह गये इसलिए उरई की सभा में वे अपने आप को उस पर बरसने से रोक नहीं पाये और यहां यह करके उन्होंने जिस असुरक्षा बोध का परिचय दिया उससे उनकी कातरता टपके बिना नहीं रही।

दिल्ली में कभी भाजपा पूर्ण राज्य के दर्जे के लिए आवाज उठाती थी पर केजरीवाल की सरकार बन जाने के बाद उसने न केवल अपनी इस दुहाई को भुला दिया बल्कि यह कोशिश की कि केजरीवाल सरकार को पूरी तरह पंगु बना दिया जाये ताकि अपनी नाकामी के कारण वह लोगों का विश्वास खो दे। लेकिन उनका मकसद कामयाब नहीं हो पाया। केजरीवाल न केवल दिल्ली में मजबूती से पैर जमाये हैं बल्कि उन्होंने एक और राज्य पंजाब में अपना विस्तार करके वहां की सत्ता हासिल कर ली है। वैसे पंजाब में भाजपा का कुछ खास दांव पर नहीं था इसलिए भाजपा को उसकी पंजाब विजय से कोई ज्यादा तकलीफ नहीं होती पर पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार उसे बदनाम किये जाने के हर रोज होने वाले कुचक्रों के बावजूद अपने फैसलों से न केवल राज्य के लोगों को बल्कि सारे देश के जनमत को लुभाने में सफल हो रही है। बहुत जल्द ही गुजरात में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं जो कि नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का ग्रह राज्य है। गुजरात के स्थानीय निकाय के चुनाव में आम आदमी पार्टी अपनी जोरदार संभावनाओं को प्रदर्शित कर चुकी है।

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इसके बाद दिल्ली और पंजाब में उसकी पार्टी की सरकारों द्वारा उठाये जा रहे कदमों से गुजरात में उसके लिए एक अदृश्य ज्वार जैसी स्थिति निर्मित होने लगी है। वैसे भी गुजरात में भाजपा लम्बे समय से भाजपा सत्ता में है और लोकतंत्र की यह विशेषता है कि लोग आप अच्छा काम करें या बुरा लगातार सत्ता में निरंतरता से जनता ऊबने लगती है और नये विकल्प की ओर ताकने लगती है। उस पर तुर्रा यह है कि नरेन्द्र मोदी ने अपनी सनक में गुजरात में अनुभवी मुख्यमंत्री और मंत्रियों को बाहर करके नौसिखियों के हाथ में व्यवस्था सौंप दी है ताकि उनका जलबा जलाल लोगों को आतंकित रख पाये क्योंकि इसी ट्रिक से वे देश में अपराजेय नेता के पायदान तक पहुंचे हैं। हालांकि वे यह भूल जाते हैं कि एक ही ट्रिक को बार-बार आजमाने से उसकी धार खतम हो जाती है। यह बात अकेले मोदी के मामले में ही नहीं है। किसी जमाने में इसी ट्रिक से मायावती शिखर तक पहुंची और उन्होंने चार बार देश के सबसे बड़े सूबे की सत्ता संभालने का श्रेय प्राप्त किया। आज भले ही उनकी बिरादरी में लगभग पूर्ववत ही उनका जलबा जलाल कायम है लेकिन अन्य लोग उनके मनमाने दबदबे को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं रह गये हैं जिससे उनकी पार्टी अस्ताचल गामी नजर आने लगी है।

गुजरात में ऐसा ही कुछ होने का डर मोदी को भी सता रहा है। वैसे भी पिछले विधानसभा चुनाव में अगर अमित शाह ने सत्ता का दुरूपयोग करके बाजीगरियां न की होती तो शायद कांग्रेस भाजपा को सत्ता से बेदखल कर चुकी होती। यह दूसरी बात है कि कांग्रेस की उसके अपने कर्मो से देश भर में औकात खत्म हो चुकी है। एक तरह से मोदी का देश को कांग्रेस मुक्त करने का सपना साकार दिखायी दे रहा है। लेकिन मोदी ने यह गलत सोचा कि लोकतंत्र में कभी ऐसा हो सकता है कि कोई प्रतिपक्ष न रह जाये। बशर्ते लोकतंत्र काफी हद तक सही मायने में लागू हो रहा हो। पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ द्वारा अपने कार्यकाल में लोकतंत्र की जैसी दुर्दशा की गई थी वह न की जाये वरना मुशर्रफ ने बनावटी जनमत संग्रह में 95 प्रतिशत तक मत हासिल कर लिये थे लेकिन जैसे ही सत्ता से बाहर हुए उनकी पार्टी का नाम लेवा नहीं बचा। सन 84 के चुनाव में राजीव गांधी ने भूतो न भविष्यतो बहुमत प्राप्त किया था। ग्लैमर की दुनिया के लोगों को खड़ा करके सारे विपक्षी शिखरों को संसद से बाहर करा दिया था। राजनीतिक पंडित अनुमान लगाने लगे थे कि राजीव गांधी की सत्ता अब कई दशकों तक निष्कंटक रहेगी। अगले चुनाव तक तो उनके सामने कोई मुसीबत आने की कल्पना तक नहीं की गई थी पर हुआ क्या उनके सत्ता संभालने के दो तीन वर्ष बाद ही उन्हीं की ही पार्टी में से विश्वनाथ प्रताप सिंह विद्रोह का परचम उठाकर बाहर आ गये और उन्होंने ऐसा झंडा बुलंद किया कि राजीव गांधी को अपने कार्यकाल का बाकी समय पूरा करने में भी पसीन छूट गया। मोदी और शाह कितने भी हथकंडेबाज क्यों न हों लेकिन उन्हें इतिहास की जानकारी रखना चाहिए ताकि वे राजीव गांधी की तरह किसी दिन खरगोश और कछुवे की दौड़ की बहुचर्चित कथा जैसी ट्रैजडी का शिकार न हो जायें।

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पहले साधु संत वैराग्य को अपनाकर किसी अज्ञात स्थान पर अध्यात्मिक साधना में लीन हो जाते थे और सांसारिकता से अपना वास्ता खत्म कर देते थे। लेकिन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इस दौर में देश की इस संस्कृति की उल्टी बयार बह रही है। साधु और संत सांसारिक सुख और प्रभुत्व के लिए लार टपकाने में ग्रहस्थों को पीछे छोड़ चुके हैं। कायदे से तो अध्यात्म और वैराग्य को कलंकित करने वाले ऐसे साधु संन्यासी महिमा ंमंडन की बजाय पिटाई के हकदार हैं ताकि अध्यात्म की दुनिया की गरिमा और पवित्रता के हनन का षणयंत्र खतम किया जा सके। पर लगता है कि आस्था जीवियो के इस देश में लोगों की बुद्धि फिर गई है। अन्ना हजारे भी संत का ही स्वाग ओढ़े हुए हंै भले ही उन्हें कुछ लोग राजनीतिक संत कहते हों पर अगर संत कोई गुणवाचक संज्ञा है तो अन्ना का उससे दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। संत तो राजनीतिक होकर भी महात्मा गांधी थे। हम लोगों की पीढ़ी ने विदेह को पढ़ा था कि यह भी संत की एक कैटेगरी है लेकिन जब एपीजे अब्दुल कलाम साहब सार्वजनिक जीवन में पूरी शिद्दत से नमूदार हुए तो अनुभव किया कि विदेह संत कल्पना मात्र नहीं वास्तविकता हैं। जनक राजा होते हुए भी संतों की सर्वोच्च कोटि विदेह से क्यों नवाजे गये होंगे इसका अंदाजा हमारी पीढ़ी को अब्दुल कलाम साहब को देखकर लगा।

साधु संतों को राजनीति में आना है तो वे कम से कम महाराजा जनक और अब्दुल कलाम साहब के कृतित्व से प्रेरणा लें ताकि समाज और देश का भला हो सके। भ्रष्टाचार के अंतरराष्ट्रीय इंडेक्स में भारत को शीर्ष स्थान पर रखा जाता है। वैसे तो जब कोई व्यक्ति या देश शीर्ष पर समादृत होता है तो यह उसके लिए गौरव की बात होती है। पर बेईमानों की सूची में अग्रणी स्थान प्राप्त करने से ज्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। जिस दौर में साधु संन्यासी विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री बन रहे हों उस दौर में भारतीय समाज की छवि बेईमानों के समाज की बनकर उभर रही है क्या इसे लेकर किसी को दर्द नहीं होता। उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संत से सत्ताधारी बनकर कीर्तिमान स्थापित किया है क्योंकि महाराजा भरत की तरह हमारी संस्कृति और परंपरा में राजा से संन्यासी बनने के दृष्टांत तो बहुत हैं लेकिन यह दृष्टांत अकेला योगी का है जिनको संत होकर सत्ता के आलिंगन की सूझ मिली। चलिये यह हो गया कोई बात नहीं। लेकिन वे चाहते तो लालबहादुर शास्त्री बनकर लोगों को नैतिक मूल्यों के अनुशीलन के लिए प्रेरित कर सकते थे पर उनका विश्वास तो विधायक निधि को 2 करोड़ से बढ़ाकर 5 करोड़ रूपये करने में है ताकि विधायक ज्यादा कमीशन बटोर सकें और उनक खिलाफ पिछले कार्यकाल की तरह विधायकों के धरने पर बैठने की नौबत आगे कभी न आये। उन्होंने नगरीय निकायों के लिए एक आदेश जारी किया है कि उनके यहां जो भी काम होंगे उसमें विधायक की संस्तुति अनिवार्य होगी ताकि विधायक नगर निकायों के बजट में भी कमीशन हासिल कर सकें और उनके कार्यो में बेनामी ठेकेदारी का भी अधिक अवसर प्राप्त कर सकें। संत से उम्मीद तो थी कि वे मुख्यमंत्री बनकर लोगों को लालच और तृष्णा से दूर रहने के लिए प्रेरित करेंगे पर यह काम तो जनप्रतिनिधियों में भ्रष्टाचार के अधिकाधिक प्रसार को प्रोत्साहित करने वाले हैं जबकि समाज में लोग जनप्रतिनिधियों से प्रेरित होते हैं। अगर उनका चरित्र भ्रष्ट होगा तो लोग भ्रष्टाचार को जीवन शैली बनाने की ओर ही प्रवृत्त होंगे नैतिकता के लिए नहीं। मध्य प्रदेश की एक स्वयंभू साध्वी हैं जो सांसद बनने के बाद नैतिक समाज तैयार करने के लिए क्या योगदान कर रही हैं यह किसी को नहीं पता। वे कुछ करती हैं तो उन लोगों की निंदा करने का जिन्होंने देश और समाज के लिए शहादत दी। उनके कृत्य से मोदी माफी मांगने के लिए मजबूर होते हैं फिर भी भाजपा की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता।

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अन्ना हजारे फिलहाल राजनीतिक सत्ता की ओर तो डायवर्ट नहीं हुए हैं क्योंकि वे उम्र दराज भी हो चुके हैं जिससे उनके लिए यह संभव भी नहीं है लेकिन वे राजनीतिक उद्देश्यों के लिए पार्टी विशेष के प्यादे हैं। इसमें अब कोई शक नहीं रह गया। उन्होंने भाजपा का इशारा समझकर ही दिल्ली सरकार की आबकारी नीति को लेकर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ एक पत्र जारी किया है। गुजरात के विधानसभा चुनाव के पहले अरविंद केजरीवाल को नुकसान पहुंचाने में उन्होंने भाजपा की जो मदद करनी चाही है उसके लिए भाजपा निश्चित रूप से उनकी कृतार्थ होगी लेकिन इस काम से उनकी विश्वसनीयता का राम नाम सत्य और ज्यादा हो गया है। हर सरकार राजस्व जुटाने और बढ़ाने के लिए कई ऐसे व्यवहारिक कदम उठाने को मजबूर होती है जो नैतिक रूप से अनुचित लगते हों। उत्तर प्रदेश में योगी के मुख्यमंत्री रहते हुए क्या शराबबंदी करने जैसी कोई नैतिक कट्टरता दिखायी गई है बल्कि उनकी सरकार आने के बाद राज्य में शराब की खपत और बढ़ी है। फिर अकेले केजरीवाल के लिए अन्ना हजारे के पेट में दर्द क्यों हो रहा है।

केजरीवाल ने राज्य के लोक कल्याणकारी उद्देश्य से भटकाव को रोकने के लिए एक दिशा दिखायी है। उन्हें इसके लिए रिवेन्यू की जरूरत होना जायज है तभी तो वे 300 यूनिट तक बिजली जैसी आवश्यक सुविधा अपनी जनता को दे पायेंगे और अस्पताल व स्कूलों की दशा सुधार पायेंगे। कायदे से भाजपा को इस मामले में केजरीवाल से प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए और उनसे भी बढ़कर लोक कल्याणकारी नीतियों को बढ़ावा देना चाहिए। सत्ता में आने के पहले मोदी देश में फैले कालेधन को जब्त करके विकास के लिए पर्याप्त संसाधन जुटाने की बात कहते थे बल्कि वे तो यह तक कहते थे कि देश में इतना अधिक काला धन है कि जब इसके खिलाफ अभियान चलाया जायेगा तो लोगों पर नया टैक्स लगाने की जरूरत तो क्या रह जायेगी बल्कि 15-15 लाख रूपये उनके खातों में पहुंच सकता है। मोदी की बात गलत नहीं थी लेकिन आज उनका ईमान डोल चुका है इसलिए आयकर विभाग हो या ईडी केवल भाजपा के राजनैतिक विरोधियों को तंग करते रहने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझती है। उसे कालेधन की जब्ती से कोई सरोकार नहीं रह गया है। भाजपा के भोंपू के रूप में काम करने वाले बाबा रामदेव 2014 के पहले चिल्लाते थे कि अगर मोदी की सरकार आ गई तो 40 रूपये लीटर में पेट्रोल बिकेगा लेकिन अन्ना हजारे की फर्जी संतई की परंपरा में डुबकी लगा रहे रामदेव आज अपनी ही यह बात दोहराने में गुनाह समझते हैं। पेट्रोल की महंगाई हो या अन्य जरूरी चीजों की महंगाई मोदी सरकार का फंडा यह है कि बड़े आदमियों को धन शोधन की छूट दो, आयकर की चोरी करने दो, जीएसटी की चोरी मत रोको और संसाधन ऐसे तरीकों से जुटाओं जिससे कराधान के मैदान में अरक्षित खड़े निरीह आम आदमी की जेब काट सको। अगर कराधान के सिद्धांतों में सही परिवर्तन किया जाये तो आम आदमी की चीजों और सेवाओं पर लगातार टैक्स बढ़ाते रहने की जरूरत ही न पड़े।

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बहरहाल मोदी का अपने प्रतिद्वंदियों के साथ स्वस्थ्य राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में कोई विश्वास नहीं है इसलिए उनके तमाम अच्छे कार्योे के पुण्य भी उनकी कुटिलताओं के परनाले में गर्क हो जाते हैं। ईश्वर मोदी को सदबुद्धि दे। उनका जनाधार अभी भी प्रचंड है। आम आदमी पार्टी से दमनात्मक व्यवहार करने की बजाय उन्हें अपनी नीतियों में सुधार करके राज्य के कल्याणकारी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अग्रसर होना पड़ेगा ताकि सत्ता में और दुनिया में न रह जाने के बाद भी उनका यशस्वी स्मरण हो सके।

लेखक केपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. संपर्क- Mob.No.09415187850

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