-पुष्य मित्र-
हम जिस विचारधारा के विरोध में हैं, उनसे सम्बंधित कुछ मित्र आजकल परेशान हैं। उनका दुख है कि भाजपा अपने समर्थकों की कद्र नहीं करती। जो विचारक या पत्रकार उनके पक्ष में लगातार काम करते हैं, उन पर संकट आने पर वह उन्हें मंझधार में छोड़ देती है।
ऐसे मित्र लगातार लिख रहे हैं कि वामपंथ और कांग्रेस अपने समर्थक का ठीक से ख्याल रखती है। उन्हें हर मौके पर सपोर्ट करती है। एक पत्रकार जिन्हें फिल्म समीक्षा के लिए देश का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल चुका है वे भी दुखी हैं। उन्होने एक सरकार समर्थक अखबार में लम्बा आलेख भी लिखा है।
तत्कालिक वजह यह है कि भाजपा समर्थकों को लगता है अर्नब गोस्वामी के मामले में केन्द्र सरकार को बड़ा स्टैंड लेकर महाराष्ट्र में मार्शल लॉ लागू कर देना चाहिये। महाराष्ट्र सरकार को उठाकर अरब सागर में फेंक देना चाहिये। अर्नब ने चूंकि भाजपा सरकार के लिए खूब बैटिंग की है, ऐसे में भाजपा केवल ट्वीट कर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। यह आक्रोश भाजपा, मोदी और हिन्दू ब्रिगेड में टॉप से बॉटम तक नजर आ रहा है।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। मुझे लगता है इसकी वजह यह है कि भाजपा, मोदी और हिन्दुत्ववादियों ने विचारधारा के बारे में एक गलतफहमी पाल ली है। वे सोचते हैं कि विचारधारा का अर्थ सरकार को उसके हर सही गलत काम में सपोर्ट करना और बदले में सरकार से हर तरह की जायज नाजायज मदद हासिल करना है। उनकी एक गलतफहमी यह भी है कि कांग्रेस अपने समर्थकों, खास कर वामपंथीयों को इस तरह की मदद करती रहती है। यही मूल वजह उनके दुख की है।
सच में ऐसा कुछ नहीं है। जहां तक वामपंथियों का सवाल है, वे कांग्रेस के राज में भी जेल भोगते थे, अभी भी जेल में हैं। अभी इस वक़्त कम से कम आधा दर्जन ऐसे लिबरल विचारक और कार्यकर्ता जेल में हैं, जिनका पूरा जीवन मानवता की सेवा में गुजरा है। वे अर्नब की तरह नफरत और हिंसा को खुलेआम टीवी पर बढ़ावा नहीं देते। वे चुपचाप आदिवासी इलाकों में गांधीवादी तरीके से लोगों की मदद करते हैं। मगर उनकी लम्बी गिरफ्तारी के बावजूद कोई शोर नहीं है। कांग्रेस की तरफ से एक बार भी उनके पक्ष में ढंग की आवाज नहीं उठी।
जिसे आजकल लिबरल विचार कहा जाता है उसका मकसद कहीं से भी सत्ता की मलाई खाना नहीं है। उसका मकसद सिर्फ देश में फैले नफरत और हिंसा के माहौल को खत्म करना है। वे मोदी के खिलाफ इसलिये हैं क्योंकि उनकी राजनीति के मूल में लोगों को धर्म के आधार पर बांटना, उनके बीच नफरत फैला कर सत्ता हासिल करना है और उस सत्ता का इस्तेमाल पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने में करना है। भले गरीबों का नामो-निशान मिट जाये। यह कहीं से मोदी को हटा कर राहुल को लाने की कोशिश नहीं है। अब चुकी विकल्प के तौर पर राहुल हैं तो लोग उन्हें सपोर्ट करने लगते हैं। मूल बात इस हिंसक और जनविरोधी विचार को खत्म करना है।
यहां सत्ता के पीछे विचार नहीं भाग रहा। यहां विचार आगे है, राजनीति उसके पीछे। यही वजह है कि आज राजनीतिक रूप में मजबूत मोदी के सामने सबसे बड़ा विपक्ष यही लिबरल विचार है, जो किसी भी राजनीतिक दल से मजबूत है। इसी ने राजनीतिक रूप से बेलगाम मोदी को नियन्त्रित किया हुआ है, उसकी मनमानी पर ब्रेक लगाया है।
उसे हर गलत कदम का जवाब देने पर मजबूर यही विचार कर रहा है। उसे खुलेआम कट्टरपंथी होने से यही रोकता है और उसके जनविरोधी फैसलों पर यही लगाम लगाता है। आज अगर मोदी सरकार अर्नब का बदला महाराष्ट्र सरकार से नहीं ले पा रही तो उसके पीछे भी इसी विचार का डर है। यह विचार किसी राहुल गान्धी या किसी तेजस्वी के पीछे नहीं खड़ा है। बल्कि राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जैसे नेता खुद को मजबूत करने के लिए इस विचार की छत्रछाया में आते हैं।
यह मूल फर्क है। एक तरफ अन्धभक्ति पर आधारित सोच है जो लोगों को बांटने और उनसे नफरत करने में जुटी है। तो दूसरी तरफ देश को जोड़ने और गरीबों को बेहतर जीवन जीने का अधिकार देने वाली सोच है, वहां भक्ति नहीं, व्यक्ति नहीं, विचार प्रमुख है।
जब लोभ-लालच के फेर में या नफरत के वशीभूत होकर आप किसी सत्ता का समर्थन करेंगे तो आपको पछ्ताना ही पड़ेगा। वैसे भी जो लोग गलत राह पर चलते हैं वे अपने साथियों का खुलकर समर्थन नहीं कर पाते। जिस विचार ने आडवाणी को जीते जी हाशिये पर डाल दिया, उससे अर्नब के समर्थन की उम्मीद ही गलत है। वहां यूज ऐण्ड थ्रो की परम्परा है। यह विचार नाथूराम से हत्या करवाती है, मगर इस विचार के शीर्ष पुरुष उसका नाम भी लेने में हिचकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे पाकिस्तान कसाब को अपना मानने में हिचकता है। दूसरे पक्ष में आपको यह गड़बड़ियां नहीं मिलेगी।
इसलिये अगर आपको सत्ता सुख या कोई सम्मान चाहिये तो जरूर मोदीवादी विचार का समर्थन कीजिये, वरना अगर आपको कुछ और उम्मीदें हैं तो निराशा ही मिलेगी।
-रीवा सिंह-
अर्णब गोस्वामी ने सुप्रीम कोर्ट व केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करने को कहा है। केंद्र सरकार स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी बनकर बैठी है – अपार, अप्रतिम व मौन।
पत्रकारिता में निष्पक्षता मिराज इफेक्ट जैसा है यह सर्वविदित है। लेकिन अर्णब को समझना होगा कि कौन अपनी ओर चलने वालों के साथ खड़ा रहता है और कौन नहीं।
अर्णब पर जो आरोप हैं उसपर कार्रवाई में दो वर्ष लगने ही नहीं थे, आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला है, नोट भी है, त्वरित संज्ञान अपेक्षित था। न्याय में देरी हुई, शिवसेना तब भी जमी थी, आज भी जमी है।
गिरफ्तारी के बाद उनके साथ जो व्यवहार हो रहा है वह गलत है, इसे बिना किन्तु-परन्तु के माना जाना चाहिए। घसीटना, मार-पीट करना, तलोजा जेल शिफ्ट करना और फिर वकील से भी न बात करने देना, यह मौलिक अधिकारों का हनन है। अभी वह अभियुक्त नहीं घोषित हुए हैं इसके बावजूद यह बर्ताव मनमानापन है।
हम में से कई लोग उनकी पत्रकारिता से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते और यह दोष भी एक पत्रकार पर नहीं, एक व्यक्ति पर लगा है जिसने वक़्त रहते पैसे नहीं दिये लेकिन सभी इस बात से अवगत हैं कि उनके साथ जो हो रहा है वह, देर से पैसे देने वाले व्यक्ति के साथ नहीं, पत्रकार के साथ हो रहा है। हमारे देश की उदार कानून-व्यवस्था में, संविधान में, आरोपी को स्वयं को निर्दोष साबित करने का पूरा अधिकार है, जिससे उन्हें वंचित करना, खुन्नस में तलोजा भेजना, वकीलों से सम्पर्क न करने देना, बहुत गलत है।
अगर आप जो बोया वही काट रहे हैं जैसी रट लगा रहे हैं तो उनसे कहीं अधिक आपका कानून-व्यवस्था से, संविधान से भरोसा उठ चुका है। हो सकता है उन्हें सज़ा हो, हो सकता है 307 लगे, उम्र क़ैद हो, कुछ भी हो सकता है, सभी संभावनाएं हैं लेकिन इससे उन्हें अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग करने से नहीं रोका जाना चाहिए। कानून अपना पक्ष साबित करने का पूरा मौका देता है, कानून के रखवाले उसकी आहुति नहीं दे सकते। देना तो नहीं चाहिए बाकी सब सरकार भरोसे है।