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उत्तर प्रदेश

बनारस से ‘सौराष्ट्र भारत’ का प्रकाशन क्यों?

काशी, जिसे पत्रकारिता का गढ़ कहा जाता था और कहा जाता है, आज यहां छोटे अखबार जो सही मायने में पत्रकारिता के प्रति समर्पित हैं, शासन की उपेक्षा से अधिकांश मृतप्राय होते जा रहे हैं। जो गिनते के छोटे पत्र-पत्रिकाएं हैं, वे भी इस समय आर्थिक संकट से जूझ रही हैं। यही हाल छोटे व ग्रामीण पत्रकारों का है, जो शासन की उपेक्षा से आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। शासन उनका उत्पीड़न भी कर रहा है। ऐसे एक दो उदाहरण नहीं, अब तो हजारों उदाहरण सामने हैं।

काशी, जिसे पत्रकारिता का गढ़ कहा जाता था और कहा जाता है, आज यहां छोटे अखबार जो सही मायने में पत्रकारिता के प्रति समर्पित हैं, शासन की उपेक्षा से अधिकांश मृतप्राय होते जा रहे हैं। जो गिनते के छोटे पत्र-पत्रिकाएं हैं, वे भी इस समय आर्थिक संकट से जूझ रही हैं। यही हाल छोटे व ग्रामीण पत्रकारों का है, जो शासन की उपेक्षा से आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। शासन उनका उत्पीड़न भी कर रहा है। ऐसे एक दो उदाहरण नहीं, अब तो हजारों उदाहरण सामने हैं।

अखबार निकालना बहुत ही कठिन कार्य होता है और खास तौर से छोटा अखबार निकालना। पूंजीपतियों के अखबार चमक-दमक, हीरो-हीरोइन, लिपस्टिक-पावडर के बल पर चलते हैं। ये बड़े अखबार या टीवी चैनल पत्रकारिता नहीं करते, व्यवसाय करते हैं। इनका फायदा जो ये दिखाते हैं, घोषित करते हैं, वह भी करोड़ों में होता है और जो यह भी नहीं दिखाते हैं, वह भी करोंड़ों में होता है। इन बड़े अखबारों के छोटे पत्रकारों को मासिक मानदेय मात्र पाच सौ से लेकर हजार रूपये तक दिया जाता है। आजादी के साठ वर्ष बाद भी गरिबों का खून चूसना जारी है। 

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आज देश में एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया है, जो अमीर और अमीर, और अमीर होता जा रहा है। यही वर्ग सत्ता के करीब रहता है और यही वर्ग गरीबों का शोषण बकायदा नियम के तहत कर रहा है। गरीब जनता की बुरी हालत इस लिये है कि लोगों की आवाज को तथाकथित बड़ा मीडिया नहीं उठाता। इसी लिये आज देश को जगाना है। इतिहास गवाह है कि जनता को जगाने का कार्य अखबार, पर्चे, लेख, नाटक, एकांकी द्वारा ही किया गया। जब बड़ा मीडिया अपने उत्तरदायित्यों से विमुक्त हो गया है, ऐसे में छोटे अखबारों के ऊपर ही समाज को टूटने से बचाने से लेकर देश को भी बचाने की सारी जिम्मेदारी है। 

अखबार एक ऐसा उद्योग होता है जिसमें पहले पैसा लगाया जाता है। फायदा वर्षों तक नहीं आता है। पत्रकार व इसमें लगे सभी कर्मचारी वर्षों तक अपना जेब खर्च काटकर अखबार को चलाते हैं। हमारे पास पूंजी नहीं है। विचारों की पूंजी है, जज्बा है, जोश है। इसीलिए हम चार-पांच छोटे पत्रकार इस सौराष्ट्र भारत को बनारस से प्रकाशित कर रहे हैं।

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बनारस की पत्रकारिता इस समय कई खेमें में बंटी है। कुछ लोग पत्रकारिता को कलंकित कर दलाली में लगे हैं। पिछले दिनों बनारस में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिससे मन बहुत ही व्यथित हुआ। काफी दिनों तक हमलोग फेसबुक, ट्वीटर सहित अन्य संसाधनों से सच्ची पत्रकारिता का अलख जगाते रहे लेकिन मन में बार-बार यह सवाल उठता रहा कि क्यों न अपना एक मंच हो जिसमें हम सभी भाई बंधु पत्रकार सच्ची पत्रकारिता की बातें लिख सकें। हमें आशा है, पत्रकार वर्ग का सहयोग, पाठकों का प्रेम, बड़ों का आशीर्वाद, छोटों का प्यार शक्ति देगा जिससे हम जनता की आवाज को शासन के कानों तक पहुंचाने का काम करेंगे व सभी के सहयोग से काशी की पत्रकारिता में एक नये आयाम स्थापित करेंगे।

हमारा एक मूल मंत्र है कि सफलता का कोई निश्चित फार्मूला नहीं होता है। इसी प्रकार हमलोगों के पास भी काई फार्मूला नहीं है कि अखबार को किस तरह सफल करें लेकिन बचपन से सुनते आये हैं कि सच्चे लोगों का ईश्वर भी साथ देता है। काशी से सौराष्ट्र भारत के प्रकाशन के समय हमलोग मां गंगा को कैसे भुल सकते हैं। यहीं वह काशी है जहां तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखा। 

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काशी में ही चन्द्रशेखर आजाद ने आजादी की लड़ाई का बिगुल फूंका व राम प्रसाद बिस्मिल के साथ आजादी की लड़ाई लड़ते हुए पत्रकारिता को अपना हथियार बनाया था। यह बनारस ही है जहां तीन विश्वविद्यालय हैं, जहां तक हम लोगों को जानकारी है, पूरे विश्व में किसी भी शहर में तीन विश्वविद्यालय नहीं हैं। पंडित मदन मोहन मालवीय ने भीक्षाटन से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय कि स्थापना कर दी, यह फक्कड़ी शहर बनारस में ही सम्भव था। यह वही काशी है जहां कबीरदास थे तो रैदास भी थे।

यहां साहित्यिक गतिविधियां हमेशा से रही जयशंकर प्रसाद जी ने कामायनी की रचना भी यही पर की। संगीतकारों में उस्ताद बिस्मील्लाह खां से लेकर आज के बालीबुड गीत लेखक समीर भी इसी काशी के उपज हैं। फिल्मी दुनिया में गीत को जिस मुकाम पर काशी के अन्जान नें पहुचाया था यह उनके पुत्र समीर बखूबी उस परम्परा को जीवित रखे हैं। पंडित कमलापति त्रिपाठी भी राजनीति में नये आयाम गढ़े जो मंत्री रहते हुए भी कभी विदेश नहीं गये।

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यह वहीं काशी है जहां लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोग पैदा हुए जो गरीबी से जूझते हुए रोडलाईटों के प्रकाश में पढ़ाई किये और देश के प्रधानमंत्री रहे। शास्त्री जी सादगी के ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने विदेश से कर्ज लेने के बजाय देश की जनता से अपील कर सप्ताह में एक दिन ब्रत रखने का आवाह्न किया। शास्त्री जी का कुर्ता कभी प्रेस नहीं हुआ। यह सादगी आज राजनीत में दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती है। 

यह काशी अपने फक्कड़ी स्वभाव के चलते ही मशहूर है और काशी में ही यह सम्भव है जहां सगड़ी वाले चिल्ला चिल्लाकर कहते हैं आवा लंगड़ा ले ल, और यहां लोटा भंटा का मेला लगता है जो शायद ही कहीं विश्व में लगता हो।  काशी के लाल राजनारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को रायबरेली में जाकर हराया था और काशी ने ही अरविन्द केजरीवाल का स्वागत करते हुए नरेन्द्र मोदी को जिताया एवं पीएम बनाया। सौराष्ट्र भारत अखबार काशी की इस परम्परा को नमन करते हुए नये आयाम स्थापित करने का प्रयास करेगा। 

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लेखक प्रवीन यादव यश से संपर्क : [email protected]

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