विनय ओसवाल
स्वतंत्र पत्रकार
वर्ष 2014 का मई महीना अगर हिन्दुस्तान की राजनीति के इतिहास में इसलिए सदैव याद किया जायेगा कि एक समय संसद में मात्र दो सदस्यों वाली पार्टी बीजेपी के एक मात्र स्टार प्रचारक मोदी ने अपने दमखम पर पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने की हैसियत तक पहुंचा दिया तो उसके ठीक दो वर्ष बाद 2016 का यही मई महीना पत्रकारिता के इतिहास में सबसे काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गया है । मई महीने की 12 तारीख को झारखंड के छत्रा जिले के एक स्थानीय न्यूज चैनेल , ‘ताजा टीवी’ के अखिलेश प्रताप हमलावरों के हाथों मारे गए । दूसरे ही दिन यानि 13 मई को बिहार के सीवान में हिन्दुस्तान हिंदी दैनिक के ब्यूरो प्रमुख राजदेव रंजन को सरे बाजार गोलियां मारी गयी और उन्हें भी मौके पर ही अपनी जान से हाथ धोना पड़ा ।मात्र चौबीस घंटे में दो पत्रकारों को मौत की नींद सुला दिया गया।
हमलावरों ने अखिलेश की जान क्यों ली ? पुलिस का कहना है कि हमलावरों के उद्देश्य का खुलासा करने में अभी और वक्त लगेगा , जांच चल रही है और छानबीन की जा रही है । वहीँ राजदेव रंजन मामले में हत्यारों का उद्देश्य स्पष्ट है और सतह पर है । श्रीकांत भारती की हत्या के मामले में , तथ्यपूर्ण और धारदार स्टोरियाँ लिखने के कारण वे जेल में बंद माफिया डॉन शाहबुद्दीन के निशाने पर थे । श्रीकांत भारती , बीजेपी सांसद ओमप्रकाश यादव के सहायक थे । 2014 में गोली मारकर उनकी हत्या करदी गयी थी।
माफिया शाहबुद्दीन और उनके साथियों को ऐसा विश्वास था कि रंजन के पास नीतीश सरकार में मंत्री अब्दुल गफ्फूर और शाहबुद्दीन की मुलाक़ात की वीडियो क्लिप है । इस शक और अपनी तथ्यपूर्ण और धारदार लेखनी के कारण रंजन को अपनी जान गवानी पड़ी। फुरकान एहमद सिद्दीकी ने तीन जुलाई 2016 के हिन्दुस्तान टाइम्स में अपने आलेख (REPORTING UNDER DURESS) में –” क्या हिन्दुस्तान पत्रकारों के लिए पूरे एशिया में सबसे संवेदनहीन देश है ” का मुद्दा उठाते हुए कहा है कि कानूनी उत्पीड़न , राज्य प्रायोजित दमन से लेकर हत्या तक के शिकार हो रहे हैं कलमजीवी । उनके सिर पर हरवक्त खतरों के बादल मंडराते रहते हैं । वे भयातुर माहौल में काम करने को मजबूर हैं।
Reporters Sans Frontiers (SRF) की 2015 की रिपोर्ट के हवाले से फुरकान कहते हैं कि मीडिया के लोगों के लिए हिंदुस्तान ऐसा देश है जहाँ उनकी जान पर खतरों के बादल हर वक्त मंडराते रहते हैं । विश्व के लेखे-जोखे के हिसाब से सीरिया और इराक़ के फ़ौरन बाद हिन्दुस्तान का नाम लिया जाता है । एशिया में पाकिस्तान और अफगानिस्तान इस मामले में भारत से पीछे हैं।
कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ जर्नालिस्ट (CPJ) के आंकड़ों के अनुसार 1992 से अब तक 67 कलमकारों को मौत के आगोश में सुलाया जा चुका है । इनमे राजदेव रंजन सहित 39 पत्रकारों को उनकी लेखनी के कारण मौत मिली, इस बात की पुष्टि हो चुकी है । CPJ एशिया प्रोग्राम के वरिष्ठ अनुसंधान सहयोगी सुमित गलहोत्रा कलमकारों पर हमलों की घटनाओं में बृद्धि के लिए दो कारण गिनाते हैं । उनके अनुसार कुछ तो कलमकारों पर हमलों की बारंबारता बढ़ी है और कुछ सोशल मीडिया के उद्भव के बाद , उस पर ऐसी घटनाओं की रिपोर्टिंग की सुलभता भी है, जो पहले अखबारों की सुर्खियां नहीं बन पाती थी।
प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन सी0 के0 प्रसाद ,गलहोत्रा से सहमत नहीं हैं । उनका मानना है कि कई हमलों के पीछे कलमकारों की व्यक्तिगत रंजिश या पारवारिक झगडे भी होते हैं । कलमकार होने के कारण उन मामलों को हमलों के रूप में गलती से शुमार कर लिया जाता है । जो भी हो, कलमकारों पर उनकी लेखनी को लेकर होने वाले हमलों को श्री प्रसाद बुनियादी तौर पर खारिज भी नहीं करते।
पत्रकारों पर प्राणघातक हमलों की घटनाएं तो बेसाख्ता बढ़ ही रही है हैं , इसके साथ ही पत्रकारों को राजद्रोह और मानहानि के फर्जी मुकदमों की धमकी और अन्य प्रकार से उन्हें धमकाने डराने के षड्यंत्र भरे माहौल में भी इजाफा हुआ है| कलमकार समाज और आमजन पर दबंगों और असामाजिक तत्वों के मामलों का उदघाटन कैसे करें ? ये विकराल समस्या मुँह बाए सारे कलमजीवियों के सामने आ खड़ी हुई है।
मेरी समझ में एक और क्षद्म वातावरण का निर्माण खुद हमारे ही साथी उत्साह के अतिरेक में , जोशीले नारे और वीररस से लबरेज उक्तियाँ गढ़- गढ़ कर निर्माण करते हैं । कई साथी गलती से इस क्षद्म वातावरण का भी शिकार होते रहते हैं । संघर्ष के काल में दूर-दूर सन्नाटा तो नजर आता है पर ढूंढे भी उन्हें कहीं शीतल छाँव नहीं मिलती।
देश में असहिष्णुता बढ़ने के साथ ही , कई संवेदनशील मामलों में घटनास्थल पर कवरेज का कार्य बहुत से अप्रत्याशित खतरों और हमलों का कारण बनता जा रहा है । इसी वर्ष 15 फरवरी को दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट परिसर में वकीलों ने उन पत्रकारों पर हमला बोल दिया जो जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर राष्ट्रद्रोह मामले में उनकी पेशी को कवर करने पहुंचे थे । ये तो एक बानगी भर है । दंगे फसाद के मामलों की कवरेज को गए पत्रकारों को आये दिन प्रशासनिक अधिकारियों के कोप का भाजन बनना पड़ता है । कभी- कभी तो उनकी बेरहमी से पिटाई और कैमरों को छीन कर तोड़ देने जैसी घटनाये भी पेश आतीं है । दरअसल प्रशासन नहीं चाहता कि उनकी कलई खोलने वाले दृश्य मीडिया की सुर्खियां बने और आमजन उनको देखे या पढ़े । चुनावों के समय की कवरेज भी बहुत जोखिम भरी होती है । चुनाव ड्यूटी पर तैनात अधिकारी और राजनैतिक दलों की मिलीभगत वाले क्षेत्रों की कवरेज खतरों से खाली नहीं होती । उस समय राजनैतिक कार्यकर्ताओं के हमलों में सरकारी अमला सुरक्षा करने के बजाये मूक दर्शक बन पत्रकारों को पिटते देखता रहता है । थानों में उनकी रिपोर्ट भी दर्ज नहीं होती।
नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट जो इसी वर्ष मार्च महीने में लोकसभा के पटल पर रखी गयी है , के अनुसार वर्ष 2014 के दौरान पत्रकारों पर 63 प्राण घातक हमले हुए जिनमे जान गवाने वाले पत्रकारों की संख्या पूरे देश में जान से हाथ धो बैठने वालों की संख्या की आधी बैठती है । ऐसी कई घटनाएँ उस अखिलेश सरकार की नाक के ठीक हुईं और हो रही हैं , जो पत्रकारों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने , उनकी सुरक्षा करने और तमाम सुविधाओं से नवाजे जाने की घोषणायें करते नहीं थकती।
उ0प्र0, म0प्र0, और महाराष्ट्र में खनन माफिया राजनेताओं और पुलिस प्रशासन के नेक्सस द्वारा उन पत्रकारों के खिलाफ मुक़दमे दर्ज कराये जाते है , हमले कराये जाते हैं , जो इनका भांडा फोड़ने का तनिक भी प्रयास करते हैं । उ0प्र0 के जगेंद्र सिंह और म0प्र0 के संदीप कोठारी की हत्याओं के मामलों को भी रिपोर्टर्स सैंस फ्रन्टियर्स (RSF) की रिपोर्ट के मुताबिक गैर कानूनी खनन से जोड़ के देखा जा रहा है । रिपोर्ट कहती है कि गैर कानूनी खनन हिंदुस्तान में बहुत संवेदनशील मामला बन चुका है।
हिन्दुस्तान में राज्य सत्ता इतनी असहिष्णु है कि अपने कारनामों पर पड़े परदे को उघाड़ने की तनिक भी जुर्रत अगर कोई पत्रकार करे तो उस पर राजद्रोह और आपराधिक मानहानि के झूठे मुक़दमे लाद दिए जाते हैं । तमिलनाडु में पत्रकार लगभग 200 मुकदमों का सामना कर रहे हैं । छत्तीसगढ़ में भी पत्रकार आये दिन सरकार के निशाने पर रहते हैं । कभी माओवादियों से उनकी संलिप्तता दिखा के तो कभी सीधे पुलिस उन्हें निशाने पर लेती रहती है।
बस्तर के पत्रकारों ने “ पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति “ का गठन कर के दिल्ली में उत्पीड़ित पत्रकारों के पक्ष में आवाज भी बुलंद की है । महाराष्ट्र में भी ऐसी ही मांग के उत्तर में मुख्यमंत्री फडणवीस ने कहा कि वह ऐसे कानून के पक्ष में हैं । परंतु अभी तक कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आये हैं।
प्रेस काउन्सिल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन सी0 के0 प्रसाद भी पत्रकारों के हक़ में विशिष्ठ सुरक्षा कानून बनाने के पक्ष में हैं । उनका कहना है कि पत्रकारों पर हमलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट्स में होनी चाहिए । श्री प्रसाद कहते है कि किसी भी सरकार के लिए इस तरह के कानून बनाने की स्वीकृति देना इतना आसान भी नहीं होगा । सरकार अगर पत्रकारों के लिए कानून स्वीकार करे तो वकीलों के लिए क्यों नहीं , डाक्टरों के लिए क्यों नहीं?
विश्व स्तर पर , पत्रकारों की प्रताड़ना के आंकड़े इकट्ठा करने वाली संस्था कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ जर्नालिस्ट (CPJ) के अनुसार 2008 से साल दर साल हिन्दुस्तान उसकी सूची में इस बात के लिए रौशनी में रहता रहा है कि यहाँ पत्रकारों पर आये दिन प्राणघातक हमले होते रहे हैं , वो मारे जाते हैं और हत्यारोपी छुट्टा घूमते रहते हैं। और भी कि हिन्दुस्तान में राज्य और केंद्र की सरकारों का रवैया प्रेस पर होने वाले हमलों के मामले में ढुलमुल और जिम्मेदारी निर्धारण प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करने वाला रहता है।
फुरकान को सलाम। इस प्रस्तुति में महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ उन्ही के लेख से लिए गए हैं।
लेखक विनय ओसवाल से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
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