-शिशिर सिन्हा-
बिहार में रैली हार गया। नुक्कड़ सभा जीत गया। इसी को जनादेश कहते हैं। तेजस्वी की सभाओं की भीड़ वोट में परिणत कम हुई। सारे अनुमान धरे रह गए। जमीन पर काम करने वाले गलत साबित हुए। पत्रकार, फनकार, कलाकार गलत साबित हुए। ओपिनियन पोल सही साबित हुआ। Exit Poll गलत साबित हुआ।
राजद के वोट बैंक intact रहे। भाजपा, जदयू के वोटर भी कमोबेश साथ रहे। कांग्रेस के वोटर क्यों बिदके ये उन्हें समझना होगा। इतना नही उतना सीट लेंगे, दबाव बनाने वाली कांग्रेस सत्तर लेकर उनीस लाई तो राहुल गांधी को चिंता करना चाहिए। वहाँ मदन मोहन झा जैसे अप्रसंगिक नेता, पार्टी अध्यक्ष बनाने लायक हैं क्या, सोचना चाहिए।
शानदार चुनाव में शानदार जीत पाने वाले राजग को बधाई
भाजपा की हर रणनीति कामयाब रही, बधाई
तमाम तरह से घिरने के बाद भी नितीश अपनी नैया खे ले गए, उन्हें भी बधाई
पिता लालू यादव की अनुपस्थिति में खुद को प्रूव करने वाले तेजस्वी यादव को बधाई।
गाड़ी के आगे मुख्यमंत्री पद के पूर्व उम्मीदवार का बोर्ड लगाने का शौक रखने वाले उपेंद्र कुशवाहा और पप्पू यादव को भी अच्छी कोशिश के लिए बधाई
भाजपा का हनुमान बन खुद की लंका लगाने वाले चिराग पासवान को बधाई
सहनी, मांझी, ओवैसी, पुष्पम प्रिया, कन्हैया सभी को बधाई
चुनाव से नितीश कुमार और बड़े नेता के तौर उभरे। नितीश ने हर तरह की घेराबंदी तोड़ी। फतह हासिल की। ये साबित हो गया, बार बार साबित हुआ कि बिहार में सत्ता के लिए नितीश जरूरी है। नितीश के साथ लड़ने वालों की strike rate बेहतर रही है। स्वयं नितीश की कम। भाजपा जब साथ लडी तब और जब अलग लडी तब, दोनों का अनुभव कर चुकी है। भाजपा को पता है नितीश के बिना मुश्किल है। इसलिए साथ छोड़ कर नहीं, साथ रहकर उन्हे बौना करने का operation किया। सफल भी रहे।
राजद जब जदयू के साथ था तब अप जब अलग लड़ा तब, दोनों का अनुभव है। सत्ता तभी मिली जब साथ थे। दोनों के साथ नितीश की sttike rate कम रही। सीटें कम आई मगर हर बार वो नायक के तौर पर उभरे।
इन सब से इतर लालू नितीश साथ लड़े सौ सौ सीटों पर लड़े तो लालू अस्सी और नितीश को सत्तर सीटें आई थी। तेजस्वी पहली बार अकेले युद्ध के मैदान में थे 75 जीते, ये भी कम नहीं। बेहतरीन रहा।
राजनीति में कम पढ़े लिखे या अपढ लोगों से ज्यादा खतरनाक कुपढ होते हैं। तेजस्वी या स्मृति ईरानी की डिग्री पर हल्ला करने वालों ये देखो की तुम्हारी डिग्रियाँ क्या काम आई? दोनों किसी भी स्थिति में किसी के भी मुकाबिल हैं। sharp politician हैं।
-सौमित्र रॉय-
राजद ने 2015 में नितीश के साथ मिलकर 101 में से 80 सीटें जीती थीं।
लेकिन नितीश को परे हटाकर राजद इस बार 145 में से 75 सीटें ही जीत पाई।
मोदी की छवि बिहार में बरकरार है। मेरा भी आंकलन इस मामले में ग़लत निकला।
प्रवासी मज़दूरों का मामला और कोविड प्रबंधन का मुद्दा, कहीं न नहीं मोदी के बिहार की अस्मिता और गौरव के मुद्दे के आगे नहीं टिका।
मतदान के पहले दौर में मोदी की रैलियां कम असरदार रहीं। लेकिन बाकी के दोनों दौर में उसने तगड़ा असर दिखाया।
NDA और तेजस्वी की रैलियों में हम भीड़ गिनते रह गए। पर भीड़ और भेड़ में फ़र्क़ भूल गए।
भीड़ ही अगर निर्णायक होती तो फिर हार-जीत का वही मीटर होता। EVM नहीं।
मध्यप्रदेश ने यह बखूबी दिखा दिया है।
-रुद्र प्रताप दुबे-
बिहार चुनाव परिणाम पर मेरी समीक्षा :-
- लोग नीतीश कुमार के चेहरे से बोर हो रहे थे और इस बात को जानते हुए बीजेपी ने चिराग पासवान वाला मूव बेहद शानदार तरीके से उठाया। नीतीश से नाराज लोग गुस्से में भी महागठबंधन की ओर ना मुड़ें, इसीलिए चिराग की पार्टी को अकेले उतारा गया। चिराग पूरे चुनावों में सिर्फ नीतीश पर ही हमलावर रहे और मोदी की तारीफ करते रहे और इसका परिणाम ये निकला कि चिराग ने नीतीश से नाराज करीब 6 फीसदी मतों को अपने पास कर लिया। अगर इसमें से आधा भी महागठबंधन को मिल जाता तो बाजी पलट जाती।
- चिराग का दूसरा फायदा ये हुआ कि चिराग ने नीतीश की पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी बनने से भी रोक दिया। जहाँ चिराग ने वोट काटे हैं वहाँ नीतीश ने 28 सीटों के नुकसान के साथ 43 का फायदा उठाया और जहाँ चिराग नहीं थे वहाँ नीतीश 6 सीटों के फायदे के साथ 77 पर कामयाब रहे। चिराग ने ना सिर्फ महागठबंधन की गणित को कमजोर किया बल्कि NDA में भी बीजेपी को कमांड पोजिशन पर ला दिया है।
- असदुद्दीन ओवैसी निर्विवाद रूप से इस वक्त पूरे भारत के सबसे बड़े मुस्लिम नेता हैं। वो अपने फेस के दम पर किसी भी राज्य में एक सीट निकालने में सक्षम होते जा रहे हैं और जल्द ही वो समय भी आने जा रहा है जब तमाम ‘कथित सेक्युलर’ दल भी मुस्लिम वोट को अपनी तरफ लेने के लिए ओवैसी से गठबंधन की संभावनाएं तलाशेंगे।
- हिंदी पट्टी के प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी बिना चेहरे और संगठन के सिर्फ अपनी पुश्तैनी हवेलियों को दिखा कर ही राजनीति कर रही है। महागठबंधन में 70 सीटें लेने वाली कांग्रेस को अपने 40 उम्मीदवारों तक को तय करने में मुश्किल का सामना करना पड़ा था। 52 सीटों को प्रभावित करने वाली जिन 8 जगहों पर राहुल गाँधी ने रैली की, उन 52 सीटों में 42 सीटों पर महागठबंधन को नुकसान मिला।
- पुष्पम प्रिया का चुनाव लड़ना बेहद जरूरी था। कभी-कभी किसी घटना का असर वर्तमान में नहीं, भविष्य में दिखता है। जो बिहार फिल्मों में गाली और बंदूक के साथ दिखता है। जिस बिहार की कल्पना के साथ ही बेकार सड़कें, असुरक्षित शामों का चित्र बनने लगता हो वहां पर जीन्स पहने एक महिला जब पार्टी बना कर चुनाव लड़ने की सोच लेती है उसी दिन वो ‘बिहार के उस भूत’ की कब्र खोद देती है। वो बिहार जो पूरे देश में महिलाओं को डराने के काम आता था उस बिहार पर चढ़कर चुनाव लड़ा है पुष्पम प्रिया ने और उसकी ये मेहनत आने वाले समय में दूसरी लड़कियों को हौसला देगी।
- चुनाव जीतने का एक मात्र नुस्खा ये है कि आप संगठन पर फोकस करें। आप कितने बड़े भी योद्धा हों लेकिन अकेले दम पर कोई युद्ध नहीं जीत सकते। जीत का एकमात्र आधार संगठन है। उसके बाद रणनीति, मुद्दे, धर्म, जाति सब आते हैं। बीजेपी के अलावा अन्य दल जितनी जल्दी इस बात को समझ लेंगे उतना उनके लिए चुनाव लड़ना आसान होगा। खराब कैंडिडेट सेलेक्शन भी काम कर जाता है अगर आपके पास अच्छा संगठन है। उत्तर प्रदेश के पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा ने इसी संगठन के बल पर ऐसे कई कैंडिडेट को चुनाव जितवा लिया था जो पार्षद तक नहीं बन सकते थे।
- तेजस्वी यादव बहुत अच्छा चुनाव लड़े। उनकी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनी और ऐसा होना उनके लिए बेहद जरूरी था क्योंकि जो दल जाति आधारित राजनीति करते हैं उनका प्रासंगिक बने रहना जरूरी हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि दल के मुख्य लड़ाई से बाहर जाने पर ही वो जातियाँ जिन्हें उस दल ने शक्ति दी थी, वो अपनी शक्तियों को बरकरार रखने के लिए दूसरों के तरफ देखने लगती है। यूपी में चंद्रशेखर रावण के उभार से आप इस बात को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।
- महिलाएं खुद एक ‘वोट बैंक’ की तरह उभरी हैं और इस फैक्टर को राजनैतिक दलों को समझना ही होगा। बिहार में महिलाओं की 5 फीसदी बढ़ी हुई वोटिंग इस बात पर जोर दे रही हैं कि चुनावी घोषणा पत्र में महिलाओं की सुविधाओं की अब हिस्सेदारी और बढ़े।
बाकी राजनीति संख्याओं का खेल है। यूपी में 7 में 6 सीटें जीतने वाली भाजपा की 7वीं सीट पर जमानत जब्त हो गयी है। अब अगर इसको इस नजर से देखे कि यूपी में सिर्फ एक सीट मल्हनी (जौनपुर) में ही चुनाव होता और यही रिजल्ट आता तो सबको ऐसा लगता कि भाजपा खात्मे की ओर है और हाथरस कांड उसे ले डूबा लेकिन बाकी 6 सीटों के परिणाम के साथ आने पर पूरी तस्वीर ही बदल गयी इसलिए फिर से दोहरा रहा हूँ कि ‘राजनीति इतनी आसान और राजनेता इतने सस्ते भी नहीं होते।’
-गिरीश मालवीय-
एक ही बात कहूँगा ओर स्पष्ट कहूँगा. यह कांग्रेस की हार है. सबने बेहतर किया, तेजस्वी ने दाढ़ी वालो को नाकों चने चबवा दिए. वाम पार्टियों ने बहुत बढ़िया परफॉर्मेंस दिया वे 29 सीटो पर लड़कर 18 सीट जीतने में कामयाब रही जबकि कांग्रेस 70 सीटों पर लड़कर महज 19 सीटे ही जीत पायी. यहाँ तक कि ओवैसी ने भी बेहतर किया जिसकी किसी को उम्मीद नही थी लेकिन सिर्फ एक ही पार्टी ऐसी रही जो 70 में से 51 सीटो पर हार गयी उनकी यह असफलता RJD को भी ले डूबी. महागठबंधन को ले डूबी.
कांग्रेस ने अपेक्षानुरूप बिल्कुल भी प्रदर्शन नही किया. हर जगह जहाँ भी वह हारी उसकी बिल्कुल तैयारी नही थी. मतदाताओं ने कांग्रेस के प्रत्याशी को वोट देने से बेहतर JDU या बीजेपी के प्रत्याशी को वोट देना माना.
माना जा रहा है वामदलों और राजद का वोट हस्तांतरित तो हुआ लेकिन वह पर्याप्त नही था. कांग्रेस के उम्मीदवार स्वंय में ही कमजोर थे. महागठबंधन में 70 सीटें लेने वाली कांग्रेस को 40 उम्मीदवार तय करने में भी मुश्किल आई थी.
RJD सबसे बड़ी पार्टी बनकर फिर से सामने आयी और इस बार उसका वोट शेयर बढ़कर 23.11% हुआ है जबकि BJP का वोट शेयर पिछली बार से घट कर 19.46% रह गया है. लेकिन उसने 74 सीटें प्राप्त की है जो पिछली बार से कही ज्यादा है. यही अंतर भारी पड़ा है क्योंकि JDU की सीटें भी घटी हैं.
इस चुनाव की सबसे अच्छी बात यह हुई कि वाम पार्टियां वापस मुख्य धारा में आती दिख रही है. उन्हें अप्रत्याशित सफलता मिली है. दीपांकर भट्टाचार्य, कन्हैया कुमार और उनके अनगिनत साथी बधाई के पात्र हैं. उन्हें बिहार की राजनीति से आगे बढ़कर राष्ट्रीय राजनीति में आना चाहिए और देश भर में एक नयी शुरुआत करनी चाहिए.
इस चुनाव का सबसे त्रासद अनुभव यह था कि हमने लॉक डाउन के दौरान हजारों लाखों बिहारी मजदूरों को अमानवीय परिस्थितियों में पलायन करते देखा और गाँव में पुहंच कर वे लोग उसी बीजेपी को अपना वोट दे आए जिसने लॉक डाउन जैसा निर्णय लिया.