किसके ताबूत में अंतिम कील साबित होगा बिहार का उपचुनाव?

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बिहार में 21 अगस्त को होने वाले दस विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में भाजपा को अपनी ताकत के लय में होने का अहसास कराना है तो दूसरी ओर लालू-नीतीश जैसे दो क्षेत्रीय राजनीतिक धुर विरोधियों को अपने मिलन की सार्थकता के साथ अपने-अपने अस्तित्व भी बचाने हैं। इस चुनाव में लालू यादव को जहां अपनी जमीन को बढ़ाकर नीतीश की जमीन निगलने की भूख होगी तो नीतीश के लिए अपने कार्यकर्ताओं को बचाए रखने की गंभीर चुनौती होगी। यह चुनाव अपनी जमीन बचाओ-कार्यकर्ता बचाओ अभियान के बीच टिका ऐसा चुनाव होगा, जिसमें बिहार की जनता को जंगल राज-2 की कसौटी पर बिहार का भविष्य तय होगा। आखिर जिस जंगल राज का खात्मा कर सुशासन स्थापित करने का यश नीतीश कुमार अपने कृतित्व में सबसे ऊपर रखते रहे हैं। आखिर किस मुंह से लालू यादव के साथ मंच शेयर करके वह बिहार के विकास-सुशासन का कौन सा मॉडल पेश करते हैं, यह चुनाव का मुख्य मुद्दा बनेगा। बिहार के मतदाताओं के लिए यह कसौटी होगी जिस पर सभी दल कसे जाएंगे।

भारत में सबसे जटिल और जातियों की गुत्थी में उलझी बिहार की राजनीति में मोदी फैक्टर या कहें गुजरात मॉडल ने लिटमस पेपर का काम किया है। इस लिटमस टेस्ट के बाद ही बिहार की राजनीति में नए समीकरण उभरें हैं, जो लालू-नीतीश को परेशान किए हुए हैं। दोनों नेताओं को एक ही डर है कि यदि बिहार में ऐसे ही ध्रुवीकरण बना रहा तो दोनों की राजनीतिक कब्र जल्द ही तैयार हो जाएगी। इसी फैक्टर ने दोनों को एक डाल पर बैठने को मजबूर किया है।

कहना न होगा कि दो दशक पूर्व की यह वही बिहार की राजनीतिक बिसात है, जिसके वजीर लालू यादव को खेत करने के लिए कभी संघ-भाजपा का प्यादा बनना नीतीश ने सहर्ष स्वीकार किया था। डेढ़ दशक तक भाजपा से मिलकर लडऩे के बाद उन्हें 2005 में  सफलता मिली थी। लेकिन वह अगले 6 साल में ही अपने साथी के महत्व को भूल गए और अपने को बिहार का सनातन सम्राट समझने लगे। लेकिन जनता ने उनके फैसले को कैसे जमीन सुंघाई यह लोकसभा चुनाव के नतीजे बताने के लिए काफी है। यह नीतीश की अहंकारी सोच ही थी कि सरकार के अच्छे कार्यों का सारा श्रेय स्वयं लेते रहे, भाजपा का नाम लेना भी उन्हें गंवारा नहीं था। यह अहंकारी भाव उनके कर्मों में स्पष्ट दिखने लगा था। सत्ता में सहयोगी होने के बावजूद उसे हाशिए पर रखने की जुगत का ही परिणाम था कि मोदी फैक्टर ने आग में घी का काम किया और नीतीश स्वयं उसमें स्वाहा हो गए।

लालू यादव ने भले ही चार सीटें जीतीं हों और कुल वोटिंग का 30 फीसदी मत पाए हों, लेकिन यादवों को छोड़कर अन्य पिछड़ी जातियों से वह बिल्कुल बाहर हो चुके हैं। उन्हें मुस्लिमों का साथ इस भय में मिला कि मोदी का पुराना चेहरा पेश कर उन्हें डराया गया। वहीं भाजपा को 39 प्रतिशत मत मिले जबकि नीतीश की जदयू को 17 प्रतिशत। बिना अन्य पिछड़ी जातियों के सहयोग के केवल यादव-मुस्लिम समीकरण के बल पर सत्ता पाना अब शायद नामुममकिन हो चला है। लालू यादव जिस अंकगणित के सहारे भाजपा को परास्त करने का दिवास्वप्न देख रहे हैं, वह हकीकत की जमीन पर कभी सफल नहीं हो सकती क्योंकि आज का बिहार 1990-2000 का बिहार नहीं रहा। यहां बहुत कुछ बदल चुका है। सवर्णों, पिछड़ों और मुस्लिमों के बल पर नीतीश की ताकत आगे बढ़ी है। आज उनके साथ कुछ सवर्ण और कुछ पिछड़े ही रह गए हैं।

लालू से गठबंधन के बाद इसमें से दोनों भागेंगे। दूसरी ओर यादव मतदाता नीतीश को अपनाएंगे, इसमें पचास फीसदी भी उम्मीद नहीं दिखती। बचे खुचे सवर्ण वोटों का खिसकना लगभग तय है। दूसरी ओर लालू के साथ यादव जुड़े हैं लेकिन कोइरी-कुर्मी उन्हें दिल से स्वीकार करेंगे इसमें भी संदेह है। यही संदेह और संभावना उपचुनाव की नई तस्वीर पेश करेंगे।
हालिया लोकसभा चुनाव मोदी बनाम बिहार में नीतीश-लालू, बंगाल में ममता, यूपी में माया-मुलायम, ओडिशा में नवीन पटनायक और तमिलनाडु में जयललिता के बीच लड़ा गया था। यह क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा की गई राजनीति का आंकलन है। क्योंकि ये सभी हर हाल में मोदी को केंद्र की सत्ता में आते देखना नहीं चाहते थे और इनकी सोच थी कि यदि मोदी सफल हो गए तो उनकी राजनीतिक दुकानदारी बंद हो सकती है।

इसमें ममता, नवीन और जयललिता स्थानीय यथार्थवादी राजनीति के चलते सफल रहे लेकिन मायावती, मुलायम, नीतीश और लालू की हैसियत ठिकाने लग गई। क्योंकि ये सभी क्षेत्रीय नेता गुजरात मॉडल बनाम अपना विकास मॉडल को उम्दा साबित करने में जुटे थे, लेकिन यह किसे पता था कि बिहार में गुजरात मॉडल सुपरहिट रहेगा? यहीं से लालू-नीतीश की नर्ई राजनीतिक बैलगाड़ी चली है। देखना यही होगा कि इस गाड़ी में जुते कार्यकर्ता एक दूसरे को मदद करते हैं या एक दूसरे की ताकत हड़पने का खेल खेलते हैं। पिछले साल जून में भाजपा के साथ 17 साल पुराने गठबंधन को तोड़ते हुए नीतीश ने सोचा था कि ओडिशा की तरह बिहार की जनता भी विकास का सारा आशीर्वाद उन्हें ही दे देगी।
सबसे बड़ी बात यह कि वह मोदी के गुजरात मॉडल से अपने बिहार विकास मॉडल को उम्दा साबित करना भी चाहते थे। बिहार की राजनीतिक समझ यथार्थवादी कतई नहीं रही है। लालू यादव के डेढ़ दशक के शासन काल में भी नहीं। प्रगतिशील राजनीतिक सोच वाले राज्य में यदि कोई विकास का एजेंडा चलाने वाला नेता यथार्थवादी सोच का शिकार हो जाए तो उसका नतीजा नीतीश जैसे ही होता है।

कुल मिलाकर बिहार के जातीय राजनीतिक सागर में नरेंद्र मोदी ने जिस मथनी से मंथन किया है उससे केवल मक्खन ही मक्खन निकले है, छाछ की मात्रा बहुत कम है। अब इसी मथनी को उल्टा घुमाने के लिए लालू-नीतीश एक हुए हैं। इनके एका में भाजपा की ताकत का अहसास छिपा हुआ है। बिहार में ताकतवर हुई भाजपा की बाढ़ में बहने से बचने के लिए यदि क्षेत्रीय सूरमा एक डाल पर बैठने को मजबूर हुए हैं तो इसे अपने अस्तित्व की रक्षा का ही सवाल कहा जाएगा। विपत्ति में कोबरा और किंग कोबरा भी एक ही डाल पर बैठे रहते हैं।

बिहार के लोगों को समझाने के लिए अब नीतीश कौन सा विकास का मॉडल पेश करेंगे यही सवाल उनको ज्यादा परेशान कर रहा है। सुशासन, विकास या लालू यादव के साथ जंगल राज-2 या फिर भाजपा को हराओ, बिहार बचाओ जैसे जुमले। जैसे कभी लालू हटाओ बिहार बचाओ का नारा दिया गया था। यहां दिक्कत यह है कि भाजपा का यश तो नीतीश सरकार के विकास के साथ जुड़ा हुआ है। भाजपा ने जंगल राज-2 नाम से फिल्म बनाने की तैयारी शुरू कर दी है। स्क्रिप्ट लिखे जा चुके हैं। अब चुनाव के दौरान जब शूटिंग होगी तो जनता किस कसौटी पर नीतीश को तौलेगी, वही आने वाले विधानसभा उपचुनाव के नतीजे होंगे।

लालू-नीतीश का एक साथ मिलकर लडऩा कितना मुफीद होगा यह दोनों दलों के कार्यकर्ताओं की नैतिक साझेदारी से भी समझा जा सकता है। लंबे समय से धुरविरोधी रहे एक दूसरे का साथ कैसे देंगे, जनता में इसकी स्वीकार्यता कितनी होगी? इसका डर दोनों नेताओं को सता रहा होगा। इसलिए यह उपचुनाव अपने-अपने कार्यकर्ताओं को अपने पाले में बचाए रखने की बड़ी चुनौती का प्रतिरूप भी होगी।

लड़ाई पिछड़े वोटों के ध्रुवीकरण बनाम अन्य की होगी। नीतीश को सबसे बड़ा डर उन्हें सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचाने वाले सवर्ण वोट बैंक के भागने का सता रहा है। पिछड़े और अति पिछड़े वोटों में जो वोट एक दूसरे को पसंद नहीं करते वे कहां जाएंगे? निश्चित रूप से भाजपा को इससे लाभ ही होगा। पहले बिहार में लालू का विकल्प नीतीश-भाजपा हुआ करते थे, लेकिन अब लोगों के समक्ष नीतीश से ज्यादा बेहतर विकास का विकल्प भाजपा है। जंगलराज की वापसी बनाम भाजपा को सत्ता के केंद्र में लड़ी जाने वाली अगली लड़ाई का ट्रेलर 21 अगस्त को बिहार में देखा जा सकेगा।

हालांकि बिहार की राजनीति में कुछ विरोधाभास भी है, वहां जो पार्टियां उपचुनाव जीतती है, अक्सर आम चुनाव में हार जाती हैं। नीतीश कुमार का राजग स्वयं पिछले लोकसभा चुनाव में खाली हुए 11 सीटों में से आधा से भी कम पर जीत दर्ज कर सकी थी, लेकिन साल भर में हुए विधानसभा चुनाव में अशातीत सफलता ने सबको सोचने पर मजबूर कर दिया था। फिर भी ताजा घटनाक्रम में केंद्र सरकार की सफलता-विफलता का आंकड़ा तो विश्लेषण के टेबल पर आ ही जाएंगे।

लालू यादव का यह दिवास्वप्न कि, कुल पिछड़े मतों का 47 फीसदी भाग उन दोनों नेताओं के पास है। ऐसे में कुछ और वोट जुड़ जाएं तो उनकी जीत निश्चित है। हकीकत की धरातल पर यह आंकड़ा कहां तक फिट बैठेगा इसकी गुंजाइश कम ही बनती है।

 

शशिकान्त सुशांत
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