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उत्तर प्रदेश

बीजेपी अब मुसलमानों के लिये भी अछूत नहीं रह गई है!

अजय कुमार, लखनऊ

उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्यता से इस्तीफा दे चुके पूर्व सपा नेता यशवंत सिंह, बुक्कल नवाब और बसपा के ठाकुर जयवीर सिंह ने अंतत कुछ घंटों की देरी से भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ही ली। सदस्यता ग्र्रहण करते समय तीनों ही नेताओं ने अपनी पूर्व की पार्टियों पर तमाम आरोप लगाते हुए उसे कटघरे में खड़ा किया तो भाजपा को सबसे बेहतर बताया। सपा नेता यशवंत सिंह और बसपा नेता जयवीर सिंह के बीजेपी की सदस्यता ग्रहण करने से तो किसी को कोई खास हैरानी नहीं हुई, लेकिन कल तक सपा का मुस्लिम चेहरा समझे जाने वाले बुक्कल नबाव का बीजेपी ज्वाइन करना चौंकाने वाला घटनाक्रम रहा। इससे बीजेपी को कितना फायदा होगा यह तो भविष्य की गोद में छिपा होगा, मगर इतना जरूर है कि बुक्कल के बीजेपी में आने से जनता के बीच एक मैसेज तो गया ही कि बीजेपी अब मुसलमानों के लिये भी अछूत नहीं रह गई है।

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अजय कुमार, लखनऊ

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उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्यता से इस्तीफा दे चुके पूर्व सपा नेता यशवंत सिंह, बुक्कल नवाब और बसपा के ठाकुर जयवीर सिंह ने अंतत कुछ घंटों की देरी से भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ही ली। सदस्यता ग्र्रहण करते समय तीनों ही नेताओं ने अपनी पूर्व की पार्टियों पर तमाम आरोप लगाते हुए उसे कटघरे में खड़ा किया तो भाजपा को सबसे बेहतर बताया। सपा नेता यशवंत सिंह और बसपा नेता जयवीर सिंह के बीजेपी की सदस्यता ग्रहण करने से तो किसी को कोई खास हैरानी नहीं हुई, लेकिन कल तक सपा का मुस्लिम चेहरा समझे जाने वाले बुक्कल नबाव का बीजेपी ज्वाइन करना चौंकाने वाला घटनाक्रम रहा। इससे बीजेपी को कितना फायदा होगा यह तो भविष्य की गोद में छिपा होगा, मगर इतना जरूर है कि बुक्कल के बीजेपी में आने से जनता के बीच एक मैसेज तो गया ही कि बीजेपी अब मुसलमानों के लिये भी अछूत नहीं रह गई है।

मुसलमानों के बीच से भी ऐसे लोंग सामने आने लगे हैं जिनकी नजर में बीजेपी साम्प्रदायिक पार्टी नहीं रह गई है। उससे मुसलमानों को कोई खतरा नहीं है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में कुछ और मुस्लिम चेहरे भी बीजेपी की ओर रूख करें। इस क्रम में बसपा से हाल में निकाले गये एक बड़े़ मुस्लिम नेता का भी नाम लिया जा रहा है।

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अपनी-अपनी पार्टी से बगावत करके भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने वालें नेताओं की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष व उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य व उप-मुख्यमंत्री डा. दिनेश शर्मा की मौजूदगी में तीनों नेताओं ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की। भाजपा के रीति-नीति व सिद्धान्तों में आस्था जताई। इस मौके पर उत्तर प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य ने कहा, भाजपा हर उस व्यक्ति का स्वागत करेगी जो अच्छा काम करते हैं। निश्चित ही इससे बीजेपी का विधान परिषद में तो संख्या बल बढ़ेगा ही। इसके अलावा बीजेपी के कई उन दिग्गजों की भी राह आसान हो जायेगी, जिन्हें आलाकमान द्वारा बैक डोर से माननीय बनाने के प्रयास किये जा रहे थे।   

बहरहाल, नेताओं के पाला बदलने का पूरा घटनाक्रम काफी रोमाचंक और गोपनीय तरीके से अंजाम तक पहुंचा। गत दिनों भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तीन दिवसीय (29 से 31 जुलाई तक) उत्तर प्रदेश दौरे पर लखनऊ पहुंच भी नहीं पाये थे और यूपी की सियाासत में बिना किसी सुगबुगाहट के भूचाल आ गया था। 29 जुलाई को शाह के लखनऊ पहुंचने से पूर्व ही सपा के दो और बसपा के एक एमएलसी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया तो सपा-बसपा में टूट ने उन राजनैतिक पंडितों की नींद उड़ा दी जो अपने आप को सियासत की दुनिया का बड़ा खिलाड़ी समझते थे। सपा-बसपा आलाकमान को तो खबर नहीं लगी ही, मीडिया भी इस टूट से सन्न रह गया।

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अमित शाह के दौर से पूर्व समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के करीबी कहे जाने वाले और लखनऊ में अवैध निर्माण तथा गलत तरीके से करोड़ो रूपये की सरकारी जमीन पर मालिकाना हक जता कर सपा सरकार से मुआवजा लेने के आरोपी बुक्कल नवाब और निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया के करीबी सपा एमएलसी यशवंत सिंह सहित बसपा एमएलसी जयवीर सिंह के इस्तीफ्रे की बात सामने आई थी। उक्त नेताओं के विधान परिषद से इस्तीफों से परिषद में तीन सीटें खाली हों गई हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा, मंत्री स्वतंत्र देव, मोहसिन रजा और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या  को 19 सितंबर से पहले विधान मंडल की सदस्यता लेनी है। उनके लिये यह इस्तीफे अच्छी संभावना पैदा करते हैं।

उधर, सपा-बसपा में टूट दोनों दलों के लिये करारा झटका और कांग्रेस के लिये गुजरात के बाद यूपी में भी खतरे की घंटी है। इस्तीफा देने वाले सभी नेताओं ने मोदी और योगी की तारीफ के कसीदे पढ़कर यह जगजाहिर कर दिया था कि वह सब जल्द ही भगवा रंग में रंग जायेंगें और ऐसा ही हुआ। समाजवादी पार्टी में यह टूट उस समय आई है,जब अखिलेश चारों तरफ से घिरे हुए थे। बाप-चचा से उनकी अनबन जगजाहिर है तो पार्टी के कई पुराने नेताओं को भी अखिलेश की सियासत समझ में नहीं आ रही है। अखिलेश द्वारा पिता मुलायम को हासिये पर डालने के बाद सपा से पूर्व में भी कई नेतओं अम्बिका चौधरी जैसे नेताओं का भी मोहभंग हो चुका है। अंबिका चौधरी के सपा छोड़ने पर मुलायम सिंह भी बेहद दुखी हुए थे और पार्टी में उनके योगदान की सार्वजनिक मंच से सराहना भी की थी। दो नेताओं के बीजेपी में जानें की खबर से शिवपाल यादव भी अखिलेश के खिलाफ उग्र हो गये है। यह और बात है कि ऐन समय पर शिवपाल की तेजी के चलते एमएलसी मधुकर जेटली को इस्तीफा देने से रोक लिया गया। 

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दरअसल, पुराने समाजवादियों को मलाल इस बात का है कि सत्ता गंवाने के बाद अखिलेश अभी तक न तो कोई आंदोलन खड़ा कर पायें हैं और न भविष्य की सियासत अपने दम पर आगे ले जाने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं, जबकि ऐसी ही विषम परिस्थितियों से मुलायम सिंह यादव कई बार पार्टी को उबार कर बाहर ले जाने में सक्षम रहे थे। 1991 में राम लहर में सपा का बुरी तरह से सफाया हो गया था, उसके पास मात्र 04 सांसद और 19 विचाायक बचे थे, लेकिन मुलायम की नेतृत्व क्षमता पर कभी किसी ने इस तरह से उंगली नहीं उठाई थी, जैसी आज अखिलेश पर उठाई जा रही है। मुलायम सिंह और चचा शिवपाल से बेअदबी के बाद चीन के पक्ष में अखिलेश के हाल के बयान को पार्टी के कई दिग्गज उनकी अपरिपक्त्ता से जोड़ कर देख रहे हैं। सपा नेताओं के अचानक पार्टी छोड़ने को लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद नरेश अग्रवाल भले ही कह दहे हों कि कुछ लोग होते हैं मौकापरस्त, फायदे के लिए बदल लेते हैं पाला। इससे पार्टी पर असर नहीं पड़ने वाला है,लेकिन यह पूरी हकीकत नहीं है। सपा के पास कुछ खास बचा नहीं है और उसमें से भी कुछ इधर-उधर हो जायेगा तो फर्क तो पड़ेगा ही। सपा के मुख्य प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी इसका दोष केवल बीजेपी के ही मत्थे मढ़ रहे थे। उनका कहना था कि बीजेपी अच्छी सियासत नहीं कर रही है।

बात बहुजन समाज पार्टी में टूट की कि जाये तो पार्टी में टूट का पुराना इतिहास रहा है। आज की तारीख में बसपा में कोई ऐसा नेता नहीं बचा है जिसका इतिहास कांशीराम के साथ बसपा मूवमेंट से जुड़ा रहा हो। विधान सभा चुनाव के समय तो बसपा में इस्तीफों की बाढ़ ही आ गई थी। स्वामी प्रसाद मौर्य, बृजेश पाठक से लेकर पार्टी छोड़ने वालों की लम्बी लिस्ट थी। इससे पहले भी एक बार बीएसपी में जबर्दस्त फाड़ हुआ था,जब बीजेपी-बसपा गठबंधन की सरकार चल रही थी। उस समय पहले मायावती छहः माह के लिये मुख्यमंत्री बनीं थी, लेकिन जब छहः महीने बाद बीजेपी को सत्ता सौंपने की बारी आई तो मायावती ने हाथ खड़े कर लिये। इसके बाद  बड़ी संख्या में विधायकों ने बसपा छोड़ कर कल्याण सिंह सरकार को समर्थन दिया था,जिसके बल पर वह सरकार बनाने मे सफल रहे थे।

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कांग्रेस ने पूरे घटनाक्रम को अलोकतांत्रिक बताते हुए कहा कि बीजेपी के दिग्गज नेता और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा और केशव प्रसाद मौर्या चुनाव लड़कर विधायक बनने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं, इसी लिये बैक डोर से विधायक बनने के लिये यह सब कारनामा हो रहा है। उधर, बीजेपी ने इन इस्तीफों का बीजेपी से संबंध होने से इंकार किया. पार्टी नेता और यूपी सरकार में मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने कहा कि इन इस्तीफों के बारे में अखिलेश यादव ही जवाब दे सकते हैं ये उनकी पार्टी का अंदरूनी मामला है।

दरअसल, सपा और बीएसपी में लगी यह सेंधमारी एक दिन का खेल नहीं थां। महीनों से इसके लिये प्रयास चल रहे थे। यह और बाद है कि संगठन से अधिक अन्य बातों पर गंभीर रहने वाले सपा-बसपा आलाकमान की नजर इधर गई ही नहीं। इसके पहले भी राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए के उम्मीदवार के पक्ष में दोनों ही पार्टियों के कई विधायकों ने पार्टी लाइन के इतर मतदान किया था। गौर करने वाली बात यह भी है कि यूपी विधान सभा चुनाव के पहले जिस तरह से स्वामी प्रसाद मौर्य ने पार्टी छोड़ी उसके बाद से ही मायावती के राजनैतिक भविष्य पर सवाल उठने लगे थे। वहीं सपा की कमान अखिलेश यादव के हाथ में आने के बाद से ही लगातार इसमें चूक दिख रही है।

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टूट के संबंध में बीजेपी भले ही बार-बार कह रही हो कि सपा के दो और बीएसपी के एक एमएलसी के इस्तीफे के पीछे उसका कोई हाथ नहीं है, लेकिन इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।  सूत्रों की मानें तो तीनों एमएलसी से लम्बे समय से बीजेपी के लोग संपर्क बनाये हुए थे। यह विधायक बार-बार सार्वजनिक और गुपचुप तौर पर बीजेपी नेताओं से मिलते रहते थे। बावजूद इसके न तो इसकी भनक सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को लगी और न ही बीएसपी सुप्रियों मायावती को। अगर दोनों को वक्त पर भनक लग जाती तो इन एमएलसी पर पार्टी सख्त ऐक्शन ले सकती थी। मायावती इसके पहले पार्टी से बगावत में लगे विधायकों-नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा चुकी हैं।

लब्बोलुआब यह है कि सियासी बाजार मे बीजेयी का भाव सबसे अच्छा नजर आ रहा है। 2019 के लोकसभा चुनाव तक यही ट्रेंड बरकरार रहने की उम्मीद है। अगर बसपा-सपा और कांग्रेस एक ही छतरी के नीचे आ जाये तो तब जरूर हालात कुछ बदल सकते हैं। फिलहाल बिखरा विपक्ष किसी भी तरह से मोदी और बीजेपी का सामना करने की हैसियत में नहीं है।

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लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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