अनुराग पांडेय-
कुछ दिनों पहले किसी ने “एनिमल फार्म” पढ़कर रिव्यू किया था। तब मैं इसे पढ़ ही रहा था। अभी आज ही पढ़ कर खत्म की है। पढ़ने के बाद बिल्कुल स्तब्ध सा हूँ। मास्टरपीस नावेल है ये। इस उपन्यास से कुछ दृष्टांत प्रस्तुत हैं।…
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इंसानों की सरकार के खिलाफ विद्रोह होता है, फिर सूवरों के नेतृत्व में तथाकथित ‘जानवरों की सरकार’ बनती है। सूवर कहते हैं कि बौद्धिक कामों के लिए उन्हें सेब और दूध की बहुत जरूरत है, इसलिए फार्म का सारा दूध और सेब उन्हें दे दिया जाए, वरना सूवर अगर सक्षम नही रहेंगे तो इंसान वापस आ जाएगा। सभी जानवर एक सुर में कहते हैं कि भाई तुम्हे जो लेना है ले लो लेकिन इंसानों की सरकार वापस नही आनी चाहिए।
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सूवरों की सरकार बन चुकी है। सरकार पक्ष का नेता स्नोबॉल अपनी एक स्कीम प्रस्तुत करता है। उस समय नेता विपक्ष नेपोलियन इस स्कीम का विरोध करता है। एक मौके पर तो स्कीम के डायग्राम पर टांग उठाकर पेशाब भी कर देता है। फिर कालांतर में नेपोलियन की सरकार बनती है तो कुछ दिन बाद वो इसी स्कीम को वापस से लागू करता है।
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जब फार्म पर ‘जानवरों की सरकार’ बनी तो सूवरों की समीति ने एक संवैधानिक नियम पारित किया कि “किसी भी इंसान के साथ कोई सौदा नही करना है”, दूसरे शब्दों में फार्म से कभी कुछ बेचा नही जाएगा, तीसरे शब्दों में “मैं फार्म नही बिकने दूंगा।”
फिर नेपोलियन की सरकार बनने के कुछ हफ्तों बाद नई पालिसी बनाई गई कि फार्म की जरूरतों को देखते हुए पड़ोसी इंसानी फार्मों से सौदेबाजी की जाएगी।
आम जानवरों को ये कष्ट न उठाना पड़े इसलिए इस जटिल काम की पूरी जिम्मेदारी नेपोलियन अपने कंधों पर ले लेता है। एक बिचौलिए इंसान से संपर्क कर नेपोलियन व्यापार शुरू करता है।
पहले भूसे का एक गट्ठर, फिर गेंहूँ की थोड़ी फसल, थोड़े मक्के, और तो और कुछ दिन बाद मुर्गियों के अण्डे भी। मुर्गियों को संडे की मन की बात में बताया गया कि फार्म निर्माण (राष्ट्र निर्माण) में आपका ये बहुमूल्य योगदान स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा।
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सूवरों के नेतृत्व में चल रही जानवरों की जानवरतांत्रिक सरकार में सभी जानवर सरकारी कर्मचारी ही है। विधायिका के सूवरों को छोड़कर, वो तो सभी जानवरों के सेवक हैं। आमतौर पर सभी जानवर पूरी लगन से काम करते हैं, लेकिन बॉक्सर नाम का घोड़ा काम के प्रति बिल्कुल पागल है। जितना काम सारा फार्म मिलकर करता होगा उतना बॉक्सर अकेले करता है। सुबह तय समय से पैंतालीस मिनट पहले उठता है, और कभी कभी तो आधी रात को उठकर चांदनी में काम करने लगता है। उसकी इस लगन के पीछे उसके दो मूल मंत्र हैं –
- मैं और मेहनत से काम करूंगा।
- नेता नेपोलियन जी ने कहा है जो कुछ सोच के ही कहा होगा।
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जानवरों के सामूहिक संघर्ष से आजादी मिली थी। स्नोबॉल की इस संघर्ष में बड़ी भूमिका रही थी, एक वही था जिसने सच में लड़ाई के दौरान दुश्मन की गोली खाई थी। फिर जीत के बाद स्नोबॉल के नेतृत्व में सरकार बनी। कालांतर में नेपोलियन के षड़यंत्र के फलस्वरूप स्नोबॉल को फार्म छोड़कर भागना पड़ा। अब फार्म में नेपोलियन के नेतृत्व में सरकार बनी है।
कुछ दिन बाद फार्म में कुछ गड़बड़ियाँ सामने आने लगीं। तूफान में विंडमिल की निर्माणाधीन इमारत टूट गयी, तो सूवरों ने इल्जाम लगाना शुरू किया कि रात में स्नोबॉल ने आकर इमारत गिराई है। गोदाम से अनाज गायब होने लगा, मुर्गियों के अंडे चोरी होने लगे, इन सब का इल्जाम स्नोबॉल पर ही थोपा गया। अगर कोई खिड़की टूटी हो या कोई नाली जाम हो गयी हो तो वो भी स्नोबॉल ने ही किया। एक ऐसा समय आया कि फार्म में कोई भी गड़बड़ी होने पर उसका दोष स्नोबॉल पर मढ़ दिया जाने लगा। दूसरे शब्दों में, “सब स्नोबॉल जी की गलती है।”
नेता नेपोलियन ने स्नोबॉल को जिंदा या मुर्दा पकड़ने वाले को इनाम देने की घोषणा कर दी। इसके बाद फार्म में नेपोलियन के चाटुकारों द्वारा फार्म में नया नरेटिव सेट किया जाने लगा कि “स्नोबॉल शुरू से ही इंसानों का खूफिया एजेंट रहा है। उसका आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नही था। उल्टा उसने तो इस लड़ाई को बर्बाद करने की योजना बना रखी थी।” सूवरों ने इसके समर्थन में कुछ सुबूत भी पेश किए जो उनके अनुसार स्नोबॉल के खुफिया षड्यंत्र थें। बाकी अनपढ़ जानवरों ने इसे “नेपोलियन जी ने कहा है तो सही ही होगा” मानकर अपना लिया।
इसके समानांतर में एक और नरेटिव सेट किया जाने लगा कि नेपोलियन ने किस तरह आज़ादी की लड़ाई में इंसानों से लोहा लिया था। इसी क्रम में नेता नेपोलियन ने अपने आपको “वीर नेपोलियन” की उपाधि से सम्मानित किया, और भावविभोर भक्त “वीर नेपोलियन” की जयजयकार करते हुए, स्नोबॉल को गरियाने लगे।
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कुछ समय बात एक ऐसा सिस्टम बना दिया गया कि हर सफलताओं और ‘सफल आयोजनों’ का क्रेडिट नेपोलियन को “थैंक यू नेपोलियन जी” कहकर दिया जाने लगा। मुर्गियाँ कहती, “मैंने नेपोलियन जी के कुशल नेतृत्व में छह दिनों में पाँच अंडे दिए।” पानी पीती गायें कहती सुनाई देतीं, “नेपोलियन जी के राज में पानी अमृत समान लग रहा है।”
इसी बीच विंडमिल का उद्घाटन भी किया गया और उसका नाम रखा गया “नेपोलियन मिल”
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जानवरों को अपना ग़म याद न आए इसके उचित प्रबंध थे। उन्हें समय समय पर पड़ोसी फ़ार्मों के समाचार सुनाए जाते थे। उन्हें बताया जाता था कि पड़ोस के इंसानी फार्म में जानवर बंधुओं पर अत्याचार हो रहा है; बूढ़े घोड़े को मारकर उसकी खाल उतार ली गयी है, गायों को भूखे मार दिया जा रहा है, कुत्ते को भट्टी में झोंक दिया गया है, मुर्गों के पंखों पर ब्लेड बांधकर उन्हें लड़ाया जा रहा है। ये सब सुनकर जानवरों का खून खौलने लगता और वो खुद पड़ोसी पर हमला करने को तैयार हो जाते तो उन्हें शांत करा दिया जाता कि नेपोलियन जी ने सर्जिकल स्ट्राइक की व्यवस्था की है, बस सही समय की ताक में हैं और फिर पड़ोसी नेस्तोनाबूत…
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नेपोलियन के नेतृत्व में एनिमल फार्म ने बहुत तरक्की की। सूवरों के लिए बिजली पैदा करने की विंडमिल बन गयी। सूवरों के घरों में टेलीफोन के तार दौड़ गए। सूवरों में बच्चों के लिए स्कूल बन गया। फार्म में ही सूवरों के लिए शराब बनाई जाने लगी। पड़ोसियों से बढ़िया व्यापार किया जाने लगा। सूवरों ने दो पैरों पर चलना सीख लिया, कपड़े पहनने लगे, हाथ में कोड़ा लेकर चलने लगे। कुत्तों का पेट भरा होता, वो सूवरों के पीछे पीछे लगे रहते। बाकी जानवरों में डर बनाए रहते। बाकी जानवरों का बस इतना था कि वे कभी कभी चर्चा करते कि “इंसान मालिक वाले जमाने में पेट भरा रहता था या अब?”
(डिस्क्लेमर – कहानी तो काल्पनिक है, लेकिन किसी जीवित सरकार से संबंध दिखना संयोगमात्र नही, बल्कि स्वाभाविक है।)
अजय कुमार भोई-
जॉर्ज ऑरवेल द्वारा रचित उपन्यास एनिमल फार्म आज से 75 साल पहले 1945 में पब्लिश हुई थी, पर इसकी कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक एवं तरोताजा है। उस समय इसके प्रकाशन ने दुनिया को हिला दिया था तथा यह काफी विवादित था। यह कहानी एक एनिमल फार्म में जानवरों द्वारा इंसानों के विरुद्ध हुए विद्रोह तथा उसके बाद कि है जिसमें लेखक ने अपनी कल्पनाशीलता का बेजोड़ उदाहरण दिया है जिसे आप अपने समयकाल में घटित हुए देख सकते हैं । इस उपन्यास में जानवरों के रूपक का प्रयोग करते हुए बताया गया है कि लोकतंत्र किस तरह से राजतंत्र में परिवर्तित होता है तथा नेता जिन्हें हम कई बार अत्याचारी अन्यायी कहते हैं दरअसल वे हम ही हैं।
एक आवश्यक एवं पढ़ने योग्य पुस्तक जिसमे बहुत सी बातें सीखने को मिली जिसमें से मुझे प्रमुख यह लगा कि समाज में खुशहाली, समृद्धि, समानता के लिए सत्ता परिवर्तन से अधिक लोगों में जागरूकता,विवेकशीलता तथा साहस की आवश्यकता होती है।
पुस्तक अमेजन से इंग्लिश या हिंदी दोनों ही वर्जन में मंगा सकते हैं। या इस नंबर +91 78985 25131 पे व्हाट्सएप करके।
निखिल कुमार-
कभी-कभी जब मन सत्ता में बैठे नुमाइंदों से ऊब जाता है, आप उनके लगातार झूठ, आडंबर, अन्याय से आज़िज आ जाते हैं, तो मन में उनके लिए अपशब्द निकलते हैं. कई बार तो आप उन्हें जानवरों तक की संज्ञा दे डालते हैं. इतना भी होता है कि आप उन्हें सूअर तक कह डालते हैं. यह किसी एक मुल्क़ के सत्ताधारियों की बात नहीं है. सत्ता में कोई भी हो, उसका व्यवहार जानवरों की तरह ही हो जाता है. मन के इन्हीं भावों को ब्रिटिश लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने अपने उपन्यास ‘एनिमल फ़ार्म’ में साकार किया है.
दुनिया की लगभग अधिकांश भाषाओं में अनुदित इस उपन्यास की ख़ास बात यह है कि इसमें से यदि बोल्शेविक क्रांति को निकाल दिया जाए तब भी यह उपन्यास सत्ता में बैठे किसी भी दल, किसी भी देश के नेताओं के असली चेहरों को उद्घाटित करता है.
वास्तव में यह उपन्यास सत्ता के व्यवहार को दर्शाता है. वस्तुतः ऑरवेल इस उपन्यास में साम्यवादी क्रांति आंदोलन के इतिहास में आई भ्रष्टता को दिखाते हैं. यह उपन्यास बताता है कि यह क्रांति किस तरह स्वार्थपरता, लोभ, मोह और अधिकांश अच्छी बातों और वादों को किनारा करके एक त्रासद स्थिति में पहुंच गई है. फ़ंतासी शैली में लिखा गया यह उपन्यास 1910 से 1940 की स्थितियों को प्रतीकात्मक रूप में चित्रित करता है. लेकिन आपको लगेगा ही नही कि यह उपन्यास 75 साल पहले लिखा गया है. इसको पढ़कर लगता है कि ये तो हमारे देश की वर्तमान स्थिति को मद्देनजर रखते हुए इसी साल लिखा गया है.
अनुराग पांडेय ने भी इस किताब पर बेहतरीन समीक्षा लिखी है. उनकी समीक्षा को पढ़कर ही मैंने यह किताब पढ़ने के लिए उठाई थी. समीक्षाएँ पढ़कर ही आपको इस किताब के बारे में अच्छे से पता चल सकेगा नही तो इस संभावना से इनकार नही किया जा सकता कि आप भी शिल्पा शेट्टी की तरह इस किताब को सिर्फ बच्चों की किताब ही समझ लेंगें.