पुस्तक मेला और कुम्भ बिलकुल एक समान होता है । इसमें भी डुबकी लगती है और उसमे भी । मज़े की बात है कि परिणाम भी दोनों का एक सा ही होता है । दोनों में ही बंदा पाप मुक्त हो जाता है । फर्क केवल इतना है कि कुम्भ में पाप धोने का मौका बारह साल बाद मिलता है लेकिन पुस्तक मेले में पुन्य कमाने का अवसर हर साल मिल जाता है।
खैर छोड़िये पुस्तक मेले का आना किसी भी लेखक के लिए किसी सहालग से कम नहीं होता है। साल भर की जितनी भी कमर और कलम तोड़ मेहनत होती है उसे वह प्रकाशन और विमोचन रुपी झंडुबाम से बराबर कर लेता है।
अगर बात दिल्ली विश्व पुस्तक मेले की हो तो छोटे शहरों के कथित बड़े लेखक उसमे जाने के लिए इस कदर आतुर रहते है मानो पुस्तक मेले से नहीं हज से बुलावा आया हो। उनके लिए वहां हो आना किसी तीर्थ यात्रा से कम नहीं होता। वहां से वापस आकर वह लेखक अपने को इतना कृतार्थ मानने लगता है कि उसका बस चले तो अपने विज़िटिंग कार्ड में अपने नाम के बाद ‘वर्ल्ड बुक फेयर रिटर्न’ लिखवा ले।
नवोदित लेखक यह सोचता है कि वह इस बार के पुस्तक मेले से कौन सी किताबे खरीदे । तो वहीँ घाघत्व को प्राप्त हो चुके लेखक यह सोचते हैं कि उन्हें इस बार कितनी पुस्तके समीक्षा हेतु अर्पित होंगी । कल के लौंडे टाइप लेखक पुस्तक मेले में प्रकाशकों से मोल भाव करते मिलते है । तो घाट-घाट का पानी पिए हुए लेखक इस चिंता में घुले रहते हैं कि वह इस बार पिछली पुस्तकों के विमोचन का रिकार्ड तोड़ पाएंगे या नहीं।
नया लेखक पुराने लेखक से मिलने के लिए चक्कर लगाता है तो वही पुराना लेखक पुस्तक मेले में ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम में मंच पर सज कर परपंच करता मिल जाता है। नए लेखक के सशक्त कार्यक्रम पर भी बुजुर्ग साहित्यकार समयाभाव के कारण समय से पहले कल्टी मार लेते हैं। वहीँ नयी लेखिका के लेखन के ‘क्रियाकरम’ करने पर भी स्त्री सशक्तिकरण के परिचायक के रूप में जनाब अपने बाकी के कार्यक्रम स्थगित करते हुए अंत तक जमे हुए पाए जाते हैं।
पुस्तक मेले में कुछ अजब –गज़ब दृश्य भी देखने को मिल जाते हैं। कुछ एक दूसरे का हाथ पकड़े लव बर्ड टाइप के लोग भी वहां दिखाई पड़ जाते हैं। पता चलता है कि पुस्तक मेला टहलने के बाद दो कपेचिनो, दो बर्गर, दो शुगर कैंडी और दो नारियल पानी और एक दूसरे के साथ चार घंटे बिताने की मीठी यादें वह दोनों उस पुस्तक मेले से लेकर जाते हैं।
कुछ लोग तो लगता है पुस्तक मेले में सेल्फी खीचने के लिए ही जाते हैं। उनका पूरा ध्यान इस बात पर रहता है कि किस महान लेखक की किताब के साथ सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर डालने पर ज्यादा लाइक्स मिलने की सम्भावना होगी।
पुस्तक मेले में महज पुस्तकों का ही मेला नहीं होता है। जितना किताबों के स्टाल का किराया होता है उससे कम वहां लगने वाले छोले –भठूरे के स्टाल का किराया नहीं होता है। इस चक्कर में पता चलता है कि एक प्रकाशक का दूसरे प्रकाशक से कम्पटीशन नहीं बल्कि छोले –भठूरे और चाट –बताशे वालों से हो जाता है।
पुस्तक मेले में आने वाले लोग भी कभी –कभी दोनों विकल्पों में से एक को चुनते हैं। अगर खुदा न खास्ता छोला- भठूरा किसी परिवार को अच्छा लग जाता है तो न जाने कितने प्रेमचन्द और शिवानी बेचारे अगले पुस्तक मेले तक के लिए रुसवा हो जाते हैं।
विडम्बना तो यह होती है कि किताबों के स्टाल पर बम्पर डिस्काउंट के बैनर लगे होते हैं और खाने –पीने वाली दुकानों पर डेढ़ सौ रुपये में बिकने वाला बर्गर भी आउट ऑफ़ स्टॉक हो जाता है। हिंदी साहित्य पचास रुपये किलो बिकने पर भी ग्राहक मुंह फेर कर चले जाते है तो वहीँ चेतन भगत की अंग्रेजी नावेल ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ फुल प्राइस पर धड़ल्ले से बिक रही होती है।
अलंकार रस्तोगी
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