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सुख-दुख

अपने दुखों को कम करने के लिए इन 5 प्रतिज्ञाओं की तरफ बढ़ना पड़ता है!

सत्येंद्र पीएस-

अपने दुखों को कम करने के लिए इन 5 प्रतिज्ञाओं की तरफ बढ़ना पड़ता है। इससे दुखों से मुक्ति की शुरुआत होती है। उसके बाद अपने चित्त को डिटॉक्स करना अगला चरण है, क्योंकि दुखों की वजहें व्यक्ति की खुद की सोच और उस सोच के मुताबिक होने वाला शारीरिक बदलाव है।

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अश्विनी कुमार श्रीवास्तव-

गौतम बुद्ध ने परिवार छोड़ा, राजपाट छोड़ा… उन्होंने हर भौतिक- सांसारिक- पारिवारिक- सामाजिक आसक्ति यानी लगाव को छोड़ दिया… महज इसलिए कि यह जान सकें कि आखिर सत्य क्या है…सत्य यानी इस सृष्टि की रचना से जुड़ा हर सत्य…
हालांकि सृष्टि की रचना से जुड़ा सत्य जानने की बजाय यह कहना ज्यादा ठीक रहेगा कि उन्होंने आत्म साक्षात्कार के लिए यह सब कुछ छोड़ा।

ज्ञानी कहते हैं कि सब कुछ छोड़ने की कोशिश के बावजूद बुद्ध सब कुछ छोड़ नहीं सके… क्योंकि सब छोड़ने के पीछे उनकी एक और ही कामना/ इच्छा/ लालच/ आसक्ति मजबूत हो गई थी कि वह सच जान लें।इस लालच ने उन्हें बरसों तक जीवन और मृत्यु के बीच बेहद कठिन तप/ योग/ साधना/ उपवास आदि में उलझाए रखा।

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शायद यही वजह थी कि ज्ञान प्राप्त होने यानी सिद्धार्थ से बुद्घ होने के बाद उन्होंने अपने अनुयायियों को सत्य जानने की इस लालसा से भी मुक्त करने का ज्ञान दिया। बुद्ध ने सृष्टि की रचना और उसके किसी रचनाकार / पालनहर्ता होने / न होने आदि के सभी सवालों पर मौन रहकर यह स्पष्ट कर दिया कि अगर घर- परिवार – समाज आदि से विरक्ति करके सन्यास लेना ही है तो फिर इस ज्ञान को पाने की कामना को भी तिलांजलि दे दो कि इस सृष्टि का ईश्वर है या नहीं…

उन्होंने एक कहानी के माध्यम से शिष्यों को यह ज्ञान दिया कि ईश्वर से जुड़े किसी भी सवाल का जवाब जानने की इच्छा की बजाय जीवन कैसे जीना है, उन तरीकों को जानकर उन पर अमल करते रहो। बुद्ध ने बजाय ईश्वर पर किसी सवाल का जवाब देने के , जीवन कैसे जीना है, उसी के तरीकों के बारे में ही अपने उपदेशों में उन्होंने दिन- रात बताया।

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बहरहाल, बुद्ध का निर्वाण हुए हजारों बरस बीत चुके हैं मगर इंसान की आज भी सबसे बड़ी कामना यही है कि उसे इस सृष्टि के हर रहस्य का पता चल जाए… उसे इस सच का भी पता चल जाए कि वास्तव में इस संसार को रचने/ चलाने और संहार करने के पीछे कोई शक्ति यानी ईश्वर है भी या नहीं… अगर है तो फिर उससे जुड़े और ढेर सारे सवाल… मसलन ईश्वर कौन है, कैसा है, कहां रहता है … आदि आदि

अब मुझे यह तो नहीं पता कि यदि अपनी हर सांसारिक आसक्ति का त्याग करने वाला कोई सन्यासी बुद्ध के बताए रास्ते पर चलकर जब तक ईश्वर और सृष्टि का सच जानने की यह आखिरी कामना नहीं छोड़ता, तब तक वह बुद्ध की तरह आत्मज्ञान अथवा शांति नहीं प्राप्त कर सकता …

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लेकिन इतना जरूर पता है कमोबेश हर इंसान के मन में कभी न कभी सच जानने की इस आसक्ति के कारण बाकी सभी सांसारिक आसक्तियों को छोड़ने की लालसा जरूर जागती है।

बचपन की उम्र से ही मैं खुद भी अक्सर यही सोचता आया हूं कि आखिर ईश्वर या इस सृष्टि के सच को कैसे जाना जा सकता है?
लेकिन बुद्ध के जीवन से मिले इस ज्ञान से मुझे भी कभी कभार यही लगता है कि क्या करना है आखिर इन बेहद जटिल सवालों के जवाब जानकर?

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बुद्ध कहते थे कि जंगल में किसी अज्ञात स्रोत से आए तीर ने एक मुसाफिर को मरणासन्न कर दिया हो तो उसके लिए पहले क्या जरूरी है? यह जानना कि उसे तीर किसने और क्यों मारा? या यह प्रयास करना कि उसका बहता हुआ रक्त कैसे रुकेगा और उसे उपचार कैसे मिलेगा? इसी तरह इंसान जीवन भर अगर ऐसे ही सवालों में उलझा रहेगा कि आखिर उसे जीवन किसने दिया, क्यों दिया तो उसका जीवन उसी मुसाफिर की तरह अच्छे ढंग से जिए जाने पर फोकस करने की बजाय व्यर्थ के सवालों में उलझने में ही चला जाएगा।

मगर बुद्ध के इस दर्शन को आंख मूंदकर मानने के बाद भी मन में यह सवाल तो फिर भी रह ही जाता है कि भले ही बुद्ध ने इस संसार का सच जान लिया हो लेकिन मैंने तो नहीं जाना है। लिहाजा मैं कैसे यह मान लूं कि बुद्ध ने जीवन जीने के जो तरीके बताए हैं, वे ही सबसे बेहतर होंगे? क्योंकि सत्य पता लगने के बाद ही तो बुद्ध के बताए कर्म / पुनर्जन्म आदि सिद्धांतों को मानकर उसी के अनुरूप बौद्ध जीवन शैली को अपनाया जा सकता है।
बहरहाल, बुद्ध ने यह भी कहा ही था कि अप्प दीपो भव यानी अपने लिए ज्ञान का प्रकाश अर्थात सत्य की तलाश खुद ही करो…

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