सुशोभित-
पिछले दिनों ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में एक बहुत ही ख़ूबसूरत लेख पढ़ा। फिर सोचने लगा कि हमारे अख़बारों में वैसे लेख क्यों नहीं छपते। लेख बूढ़े, उम्रदराज़ दरख़्तों के बारे में था। वैसे बूढ़े, उम्रदराज़ दरख़्त- जो बहुत क़द्दावर भी हों। साइंस की ज़ुबान में इन्हें एल्डरफ़्लोरा और मेगाफ़्लोरा कहेंगे। लेखक जेरेड फ़ार्मर बतला रहे थे कि दुनिया में हज़ारों साल पुराने दरख़्त मौजूद हैं, लेकिन वो धीरे-धीरे नष्ट हो रहे हैं। हमें उन्हें बचाना चाहिए। क्यों?
केवल इसलिए नहीं कि वो बहुत पुराने हैं और गुज़रे वक़्त की एक शानदार यादगार हैं। बल्कि इसलिए भी कि उनके भीतर वैसी जेनेटिक सूचनाएँ संकलित हैं, जो बेशक़ीमती हैं। वे पेड़ अतीत में ऐसे अवसर पर पनपे थे, जब उनके लिए परिवेश अनुकूल था- वैसी परिस्थितियाँ शायद सदियों तक फिर न दोहराई जा सकें। वे अतीत और भविष्य के बीच एक पुल की तरह हैं। और सबसे बड़ी बात यह कि वे अपने आसपास के इकोलॉजिकल सिस्टम को सपोर्ट करते हैं। पर्यावरणविद् मेग लोमैन ने अकारण ही वृक्षों के माध्यम से संचालित होने वाले पारिस्थितिकी-तंत्र को आठवें महाद्वीप की संज्ञा नहीं दी थी।
क्योंकि पेड़ बहुत मिलनसार होते हैं। यारबाश होते हैं। वे समूह में रहना पसंद करते हैं। जिन्हें हम जंगल कहते हैं, वे दरख़्तों की बस्तियाँ हैं। कवियों और शायरों को लगता है कि पेड़ अपने पत्तों की खड़खड़ाहट से आपस में गुफ़्तगू करते हैं। हक़ीक़त यह है कि पेड़ पत्तों नहीं जड़ों के ज़रिये बात करते हैं और यह सच है। पीतर वोल्लेबेन ने इसी को वुड-वाइड-वेब कहा था। जितना पुराना पेड़ होगा, उतना ही उसका कम्युनिकेशन सिस्टम पुख़्ता होगा और वो अपने आसपास के नौजवान दरख़्तों की बढ़त में मददगार होगा। जेरेड फ़ार्मर इन्हें मदर-ट्री कहते हैं। ये अपने आसपास के सब्ज़े को पालते-पोसते हैं। आपने साल के किसी वृक्ष को अकेला नहीं देखा होगा, वो समूह में ही पनपते हैं। शालवन कहलाते हैं। तनहाई में वो मर जाते हैं।
लेकिन अपने लेख में जेरेड फ़ार्मर ने चिंता जतलाई कि बूढ़े दरख़्त एक-एक कर मर रहे हैं और किसी को फ़िक्र नहीं है। हाल के दिनों में दुनिया में ऐसे पूरे-पूरे जंगल जलकर ख़ाक हो गए, जिनमें तीन हज़ार साल पुराने तक पेड़ थे। इनमें आग-प्रतिरोधक सेकोइआस भी शामिल थे, जो दुनिया के सबसे भीमकाय पेड़ माने जाते हैं। अकाल के दौर में फलने-फूलने वाले ग्रेट बेसिन के ब्रिस्टलकोन पाइन पेड़ भी नष्ट हो गए हैं। ये पेड़ पांच हज़ार साल तक जीवित रह सकते हैं। दक्षिण अमेरिका में सूखे के चलते बाओबा पेड़ नष्ट हो गए। माउंट लेबनॉन के सेडार वृक्ष, जो दीर्घायु होने के पुरातन प्रतीक हैं, बढ़ते तापमान और रूखेपन के आगे जवाब दे रहे हैं। न्यूज़ीलैंड के कौरी हों या इटली के सदियों पुराने ओलिव- ये तमाम बीमारियों के शिकार होकर दम तोड़ रहे हैं। यों तो पृथ्वी का ट्री-कवर हाल के सालों में बढ़ा है। लेकिन वो तमाम पेड़ नौजवान हैं। बूढ़े दरख़्त दिन-ब-दिन घटते जा रहे हैं।
ये लेख इतना ख़ूबसूरत था कि मैं देर तक इसके बारे में सोचता रहा। फिर लेखक जेरेड फ़ार्मर के बारे में तहक़ीक़ात की। क्या ही आश्चर्य कि उनकी नई किताब इसी ताल्लुक़ में आई है। किताब का नाम है- ‘एल्डरफ़्लोरा : अ मॉडर्न हिस्ट्री ऑफ़ एन्शेंट ट्रीज़’। सुदूर पेन्सिलवेनिया में कोई अमरीकी बूढ़े, उम्रदराज़ दरख़्तों की फ़िक्र में घुल रहा है, उनके बारे में मालूमात हासिल करके किताब लिख रहा है, ये जानकर मुझे तसल्ली मिली और जेरेड के लिए दिल में इज़्ज़त का हरा बूटा उग आया। ये धरती जितनी इंसानों की है, उससे कम दरख़्तों, नदियों, पहाड़ों, परिंदों और जानवरों की नहीं है- यही तालीम और तहज़ीब सबसे बुनियादी है। ये नहीं है तो आप एजुकेटेड और सिविलाइज़्ड नहीं कहला सकेंगे।
विद्या नन्द मिश्र
November 7, 2022 at 1:11 pm
सच में अद्भुत, जिन्होंने इसे महसूस किए