हाल के दिनों में टीवी पर एक खबर काफी चर्चाओं में थी। ये खबर थी मुंबई की कैंपाकोला सोसायटी के बारे में। खबर इतनी थी कि जब ये सोसायटी बनाई गई तो बिल्डर ने निर्धारित फ्लैट्स से ज्यादा फ्लैट्स बनाए, वो भी एक दो नहीं बल्कि 100 से ज्यादा।
अब सौ से अधिक ये अवैध फ्लैट्स वहां बने, बिके, लोग वहां सालों तक रहे और स्थानीय प्रशासन को इस बात की खबर नहीं हुई क्या ये थोड़ा अजीब नहीं लगता? खैर, चर्चा तब हुई जब इन फ्लैट्स को अवैध घोषित किया गया और इनको तोड़ने की बात चली। जो लोग सालों से यहां रह रहे थे वह कोर्ट चले गए लेकिन उनके हिस्से आई हार। इस कवायद के बाद यहां रह रहे लोगों ने फ्लैट्स खाली कर दिए हैं।
इसी तरह दिल्ली में ओखला पक्षी विहार के पास बने फ्लैट्स को हाल ही में अवैध घोषित किया गया। शायद इनको भी तोड़ने की बात चल रही है। इससे पहले नोएडा में भी कुछ इसी तरह के मामले सामने आए थे।
सवाल ये है कि आखिर ये हो क्या रहा है? ये अवैध फ्लैट्स क्या होते हैं? क्या लोगों को खरीदने से पहले क्या इनके बारे में पता नहीं होता? क्या सरकारी दफ्तरों की बिना मर्जी के ये फ्लैट बन जाते हैं? या फिर इस गोरखधंधे में सरकारी अधिकारी भी मिले हुए हैं? जब यहां बिजली, पानी, और गैस आदि के कनेक्शन दिये जाते हैं तो क्या अधिकारियों को पता नहीं होता कि ये फ्लैट अवैध हैं?
सवाल कई हैं लेकिन हमें ये भी सोचना चाहिए कि इन सबका जिम्मेदार कौन है? हाल ही में हम लोगों ने भी एक घर खरीदने का विचार बनाया और तलाश करनी शुरू की लेकिन बजट कहीं फिट ही नहीं बैठा। फिर हमें कुछ ऐसे घर दिखाए गए जो काफी छोटे थे लेकिन डीलर ने कहा कि इनको दो तरफ से करीब चार-चार फुट बढाया जा सकता है।
हमें कहा गया कि सोसायटी में सभी ने इसी तरह जगह पर कब्जा किया हुआ है। हमने देखा तो पता चला कि वो डीलर ठीक कह रहा था। उसने कहा कि अधिकारियों को थोड़ा पैसा खिलाना होगा और फिर सब ठीक हो जाएगा। लेकिन हमारी हिम्मत नहीं हुई और हमने किराए के घर में ही रहना ठीक समझा।
सभी जानते हैं कि पूरे दिल्ली-एनसीआर में प्रापर्टी के दाम आसमान छू रहे हैं लेकिन बावजूद इसके जब घर खरीदने बेचने के लिए लिखापढ़ी होती है तो वो काफी कम दाम पर होती है और बाकी का पैसा नकद लिया जाता है। इस पैसे को ब्लैकमनी कहना गलत नहीं होगा।
उदाहरण के तौर पर घर यदि एक करोड़ का है तो कागजों में इसे 50 लाख का ही दिखाया जाएगा और बाकी के 50 लाख कैश लिए जाएंगे। ऐसा स्टांप बचाने के लिए भी किया जाता है। अब ऐसा भी नहीं है कि इस बात की जानकारी प्रशासन या सरकार को नहीं है लेकिन किसी पर कोई कार्रवाई नहीं बल्कि ऐसा करने की सलाह भी सरकारी दफ्तरों से ही दी जाती है।
पिछले दिनों टीवी पर खबरे आईे कि नोएडा के कुछ प्रोजेक्ट्स पर तलवार लटकी हुई है, इनवेस्टर परेशान हैं, घर का सपना टूट गया, आदि आदि। सवाल ये है कि ये इन्वेस्टर कौन है? जिसके पास घर नहीं है वो घर खरीदे तो समझ में आता है, कोई छोटा घर छोड़ कर बड़ा खरीदे तो भी समझ में आता है लेकिन एक घर के होते हुए भी कोई दो-चार घर खरीदे तो आप उसे क्या कहेंगे?
शायद यही लोग इन्वेस्टर कहलाते हैं। पहले जमाने में कोई दाल, चावल, चीनी, गेहूं अपने गोदाम में जमा करता था तो वो जमाखोर कहलाता था लेकिन आज अगर किसी के पास पांच-सात फ्लैट्स हैं तो वो जमाखोर नहीं कहलाता। क्या ये जमाखोरी नहीं है?
इसका दूसरा पहलू समझिए, पहले जब दाल, चावल, चीनी, गेहूं जमा करने वाला एक तरह से बाजार में इस सामान की उपलब्धता को कम कर देता था और फिर अपने गोदाम में जमा इन चीजों को बढ़े दामों में बेचता था तो इसे काला बाजारी कहा जाता था।
अब सवाल ये है कि प्रापर्टी के दाम क्यों बढ़े? जवाब वही है कि उपलब्धता कम है। अब फिर से सवाल कि उपलब्धता कम क्यों है? जवाब साफ है कि उपलब्धता कम की गई है जमाखोरी करके ताकि कालाबाजारी की जा सके।
जमीनें खत्म हो गई, ऊंची ऊंची बिल्डिंगे बन गईं, फ्लैट कल्चर आ गया लेकिन फिर भी लोगों के पास घर नहीं, ऐसा क्यों। आबादी बढ़ी ये एक जवाब है लेकिन दूसरे जवाब की तरफ क्या आप नज़र घुमा कर देखते हैं?
अक्सर ऐसे मेल और फोन आते हैं कि आप प्रापर्टी में इन्वेस्ट कीजिए और पहले ही महीने से किराया पाइए। यदि आप 40 लाख इन्वेस्ट करते हैं तो आपको 40 हजार रुपया महीना दिया जाएगा और प्रापर्टी तो है ही आपकी। सोचिए इससे अच्छा क्या होगा। ये मेल और फोन काफी नामी गिरामी कंपनियों की ओर से आते हैं।
अब समझिये कि ऐसा भला कैसे संभव है? इससे तो कंपनियों को काफी नुकसान होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है। प्रत्येक रियल एस्टेट कंपनी एक के बाद एक प्रोजेक्ट शुरू कर रही है और छोटे शहरों तक भी पहुंच बना रही है। जिन इलाकों में आबादी नहीं है लोग वहां भी फ्लैट खरीद रहे हैं जबकि वह वहां रहने भी नहीं जाते हैं।
अब ऐसे में फिर से सवाल कि बॉस ये इन्वेस्टर कौन है? यकीनन ये हम और आप ही हैं। अगर सिस्टम खराब है तो इसकी जिम्मेदारी हमारी ही है। जब हमसे कहा जाता है कि थोड़ा रिश्वत दे दो तो आपको ये फायदा होगा तो हम तुरंत रिश्वत देने और नियम तोड़ने को तैयार हो जाते हैं लेकिन जब सालों बाद वही नियम तोड़ने की कीमत हमें चुकानी होती है तब हम सिर्फ रोते हैं और सिस्टम को गाली देते हैं।
गांव अब नगर बन रहे हैं और नगर महानगरों में तब्दील हो रहे हैं, इसके बावजूद जमीनों के रेट ज्यादा हैं, रहने को घर नहीं हैं, किराया ज्यादा है तो इसके पीछे है जमाखोरी, काला बाजारी और भ्रष्ट सिस्टम, जिसे हमने ही ऐसा बनाया है। यकीनन आज कोई कितनी भी ईमानदारी का दम भर ले लेकिन प्रापर्टी का मामला आते है वो ईमानदारी खत्म हो जाती है।
अनामिका गौतम
स्वतंत्र पत्रकार
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