सत्येंद्र पी एस-
रवि प्रकाश जी को लम्बे समय से जानता हूं जब वह प्रभात खबर में थे। अचानक सुना कि उन्हें कैंसर डिटेक्ट हुआ है। मैं कहता तो क्या कहता? वह जो लिखते हैं, पढ़ता रहता हूँ। भड़ास पर यशवंत सिंह ने उनका इंटरव्यू डाला है। कैंसर डिटेक्ट हुआ तो वह बीबीसी में थे। बीबीसी ने उनकी एक साउंड सैलरी तय कर दी।
जब कोई गरीब आदमी ऐसे बड़े संकट में फंसता है तो वह आर्थिक बदनसीबी के दुष्चक्र में भी फंस जाता है। मुझसे बेहतर इसे कौन फील कर सकता है भला। थोड़ा सम्भलते ही एक नया झटका खाता हूं।
यह पढ़कर/सुनकर बड़ी खुशी हुई कि बीबीसी ने ऐसा किया। वहां के हेड्स ने इसकी सिफारिश की हो, ऐसा हो सकता है। भारत में या कोई भारतीय संस्थान ऐसा करता हो, इसकी नज़ीर कभी सुनने को नहीं आई। यहां तो वश चले तो पीड़ित व्यक्ति की अनुपस्थिति की सैलरी भी काट लेंगे। फिक्स पैसे तय कर देना तो बड़ी बात है।
मुझे सबसे बड़ी खुशी तब हुई थी जब सुनने में आया कि रवि प्रकाश जी का बेटा आईआईटी में सलेक्ट हो गया है। लगा कि कम से कम बच्चे की तरफ से थोड़ी निश्चिंतता आई। हम पीड़ितों की तरह तरह चिंताएं होती हैं, जिनमें मरने के बाद की चिंता भी शामिल होती है। रवि बहुत उत्साही हैं। इस विपरीत परिस्थिति में खुश रहते हैं। यह देखकर हजारों लोगों को प्रेरणा मिलती होगी।
शशि सिंह- स्टार न्यूज़ के जमाने में मेरे एक मित्र के साथ ऐसा संयोग हुआ था। एक दुर्घटना की वजह से उन्हें महीनों घर बैठना पड़ा था लेकिन संस्थान ने उसकी सैलरी जारी रखी। ठीक होने पर उन्होंने दुबारा लम्बे समय तक वहॉं अपनी सेवा दी। संस्थान बेहतर हो तो भारत में भी ऐसा होता है। वोडाफ़ोन में मेरी बॉस की बीमारी ऐसी थी उनके मेडिकल पर खर्च बहुत तगड़ा आता था। कम्पनी की मेडिकल पॉलिसी ऐसी थी कि कम्पनी उनके सारे खर्च उठाती थी। अपने सबसे बुरे दौर में उनकी सैलरी से लगभग दोगुना, कई बार तो तीन गुणा तक के बिल हो जाते थे। कम्पनी कभी पीछे नहीं हटी। दरअसल यह अच्छी कम्पनियों का आर्थिक प्रबंधन का कमाल है। हज़ारों की संख्या में कर्मचारियों का ग्रुप इंश्योरेंस कराया जाता है जिनमें से बमुश्किल कुछेक का ही सही मायने में इस्तेमाल हो पाता है। ऐसा करने से कम्पनियों का गुडविल बनता है। यह एक तरह से सबके लिए WinWin situation होता है।