कला जीवन की पुनर्रचना है। जीवन और समाज की सच्चाई कला के माध्यम से जब अभिव्यक्त होती हैं तो उसका गहरा प्रभाव हमारे मन-मस्तिष्क पर पड़ता है। ये सच्चाइयां हमें संवेदनशील व विचारवान बनाती हैं, हमें जाग्रत करती हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि कला व कलाकार का जीवन्त रिश्ता जीवन व समाज से हो। समाज के आलोड़न, उथल-पुथल, संघर्ष से जुडाव जहां कला को जीवन्त बनाता है, वहीं कलाकार को संजीदा, जिम्मेदार व प्रतिबद्ध बनाता है। लखनऊ के संस्कृतिकर्मी व रंग निर्देशक महेशचन्द्र देवा ऐसे ही कलाकार है जो अपने साथियों व संस्था ‘मदर सेवा संस्थान’ की ओर से ऐसा ही कुछ करने के लिए प्रयत्नशील हैं।
महेश चन्द्र देवा के कार्य का महत्व इसलिए ज्यादा बढ़ जाता है कि उनका यह कार्य शिक्षित-प्रशिक्षित कलाकारों के माध्यम से नहीं किया जाता है। इसके इतर वे उन बच्चों के अन्दर कलात्मक प्रतिभा का विकास करके करते हैं जिनका इस अपसंस्कृति के दौर में कला से कोई वास्ता नहीं है। वे गत अप्रैल, मई, जून की इस चिलचिलाती गर्मी व धूप में लखनऊ की बस्तियों, मुहल्लों के गली कूचों में रहने वाले बच्चों को एकत्र कर ‘चबूतरा थियेटर पाठशाला’ नाम से कार्यशाला आयोजित करते रहे हैं। चार-पांच साल से लेकर बारह-चौदह साल के बच्चे-बच्चियों के अन्दर साहित्य, कला, नाटक आदि के प्रति रूचि पैदा करना, फिर उसे परिमार्जित करना इस कार्यशाला का मुख्य उद्देश्य है। नृत्य व गायन इसका हिस्सा है। फै़ज़, साहिर, शलभ के साथ साथ जनवादी गीतों का अभ्यास इस कार्यशाला में कराया गया। कविता और कहानी कैसे लिखी जाय, कागज पर चित्र कैसे बनाया जाय, मिट्टी को कलाकृतियों में कैसे ढ़ाला जाय – यह सब बच्चों ने इस कार्यशाला में सीखा। बच्चों में विविध प्रतिभाएं होती हैं, उसी तरह उनके अन्दर विभिन्न कला अभिरूचियां भी होती हैं। इस कार्यशाला में उन्हें उभरने व उभारने का कार्य हुआ।
यह चबूतरा थियेटर पाठशाला किसी एक जगह पर केन्द्रित न होकर लखनऊ के कई मुहल्लों में लगाई गई। ऐसा करना अपनी सीमा में बड़ा कार्य है। महीनों तक चले इस सदप्रयास का मूर्तरूप हमें 21 से 23 जून 2014 को लखनऊ में चबूतरा थियेटर समारोह में देखने को मिला। कार्यक्रम रायउमानाथ बलि प्रेक्षागृह में आयोजित किया गया। इस समारोह में नाटक हुए, बच्चों ने नृत्य व जनवादी गीत प्रस्तुत किये, बच्चों द्वारा बनाये गये चित्रों व कलाकृतियों का प्रदर्शन हुआ। नाटक में सारे पात्र चाहे वे बच्चों के हों या युवा के हों या बूढ़े के, सारे पात्रों को बच्चों ने सजीव किया और दर्शकों की खूब तालियां बटोरी।
आज के दौर में जब कला, साहित्य से बच्चे विस्थापित हो रहे हैं, महेश चन्द्र देवा, उनकी टीम और ‘मदर सेवा संस्थान’ का यह कार्य सराहनीय ही नहीं जरूरी भी है। यह आज के समय में धारा के विरूद्ध तैरने जैसा लगता है।
कौशल किशोर
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