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सियासत

मायावती को साइड लाइन कर चन्द्रशेखर ‘रावण’ बनना चाहते हैं दलितों का नया मसीहा

अजय कुमार, लखनऊ

उत्तर प्रदेश की सियासत और उसमें भी दलित सियासत की जब भी चर्चा होती है तो बसपा सुप्रीमों मायावती के बिना यह चर्चा अछूरी रह जाती है। वैसे तो मायावती पूरे देश में दलित राजनीति का एक बड़ा चेहरा हैं, लेकिन बात जब यूपी की चलती है तो यहां उनका कद काफी बड़ा दिखाई पड़ता है। कभी यूपी के दलितों को कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक माना जाता था।

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दलित वोट बैंक के सहारे कांग्रेस ने दशकों यूपी की सत्ता पर राज किया और जब इन्हीं दलितों ने कांग्रेस का दामन छोड़कर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का दामन थामा तो प्रदेश में न तो कांग्रेस की सत्ता बची न ही पार्टी की साख बच पाई। दलित वोट बैंक के सहारे मायावती ने एक-दो बार नही चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। वर्ष 1977 में कांशीराम के सम्पर्क में आने के बाद मायावती ने पूर्ण कालिक राजनीतिज्ञ बनने का निर्णय ले लिया।

कांशीराम के संरक्षण के अन्तर्गत वे उस समय उनकी कोर टीम का हिस्सा रहीं, 1984 में बसपा की स्थापना हुई और करीब दस वर्ष बाद 03 जून 1995 को मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बन गईं।मायावती ने अपने करीब चार दशक के सियासी सफर में कई उतार-चढ़ाव देखे तो मुश्किल से मुश्किल चुनौतियों का सामना भी किया। मायावती और मुलायम की अदावत तो जगजाहिर थी,तो समय-समय पर मायावती पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगते रहे,लेकिन इससे मायावती को कभी नुकसान नहीं हुआ। उनकी हनक और धमक के किस्से आज भी सुनने को मिल जाते हैं। उत्तर प्रदेश में वैसे तो तमाम मुख्यमंत्री हुए उसमें से कुछ काफी सख्त भी थे,लेकिन मायावती एक मात्र ऐसी सीएम थीं,जिनके सामने खड़े होने में उत्तर प्रदेश की नौकरशाही के पांव कांपने लगते थे। पसीना छूट जाता था।

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मायावती को अपने चार दशक के सियासी जीवन में विरोधियों के साथ-साथ अपने संगी-साथियों यानी पार्टी के कई बड़े नेताओं की बगावत से भी दो-चार होना पड़ा,लेकिन मायावती को जिसने भी चुनौती दी उसे बसपा से तो बाहर का रास्ता दिखा ही दिया गया,दलित वोटरों ने भी ऐसे नेताओं का साथ नहीं दिया। यही वजह थी,सत्ता से बाहर आने के बाद यह नेता अपना वजूद नहीं बचा पाए,लेकिन लगता है कि बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सहजता से सामना करके उससे पार पा लेने में सफल रहने वाली मायावती पिछले तीन-चार वर्षो से भीम आर्मी के नेता चन्द्रशेखर आजाद उर्फ ‘रावण’ से मिलने वाली चुनौतियों से पार नहीं पा रही हैं। यह सब तब है जबकि चन्द्रशेखर बसपा सुप्रीमों मायावती को अपनी बुआ बताता है। दरअसल, मायावती की मुश्किल यह है कि उन्होंने अपने सियासी जीवन में दलितों को लुभाने के लिए जिन मुद्दों को कभी हवा नहीं दी,चन्द्रशेखर उन्हीं मुद्दों को हवा दे रहा है।

चन्द्रशेखर उन लोगों के साथ खड़ा नजर आता है जिससे मायावती हमेशा दूरी बनाकर चलती थीं। मायावती कांग्रेस से दूरी बनाकर चलती हैं, लेकिन भीम आर्मी प्रमुख प्रियंका से निकटता बनाए हुए हैं। मायावती कश्मीर से धारा 370 हटाने का विरोध नहीं करती हैं,जबकि चन्द्रशेखर इसका पूरजोर विरोध कर रहा है। इसी प्रकार नागरिकता संशोधन एक्ट(सीएए) के खिलाफ चन्द्रशेखर पूरे देश में घूम रहे हैं,लेकिन मायावती विरोध के नाम पर सोशल मीडिया से आगे नजर नहीं आती हैं। दिसंबर 2019 में नागरिकता कानून के खिलाफ देशभर में मचे सियासी घमासान के बीच बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया था कि चंद्रशेखर सिर्फ चुनाव में फायदा उठाने के लिए प्रदर्शन करते हैं और जेल चले जाते हैं।

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मायावती ने पार्टी के लोगों से अपील की थी कि वे चंद्रशेखर आजाद और उन जैसे स्वार्थी लोगों से सचेत रहें। बिना इजाजत नई दिल्ली में जामिया मस्जिद से जंतर मतर तक हुए विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने के कारण चंद्रशेखर आजाद को जब 14 दिन की न्यायिक हिरासत में तिहाड़ जेल भेज दिया गया ता बीएसपी प्रमुख ने एक के बाद एक कई ट्वीट के जरिए चंद्रशेखर पर हमला बोला। ट्वीट में मायावती ने लिखा,‘दलितों का आम मानना है कि भीम आर्मी के चन्द्रशेखर, विरोधी पार्टियों के हाथों खेलकर खासकर बीएसपी के मजबूत राज्यों में षडयन्त्र करते हैं। चुनाव के करीब वहां पार्टी के वोटों को प्रभावित करने वाले मुद्दे पर, प्रदर्शन आदि कर जबरन जेल जाते हैं।’

एक अन्य ट्वीट में उन्होंने लिखा था,‘वैसे तो आजाद यूपी के रहने वाले हैं लेकिन नागरिकता कानून पर वह दिल्ली के जामा मस्जिद वाले प्रदर्शन में शामिल होकर जबरन अपनी गिरफ्तारी करवा रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वह जल्द चुनाव है।’

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बसपा सुप्रीमों की चिंता अपनी जगह है, इससे चन्द्रशेखर आजाद उर्फ रावण की सेहत पर शायद कोई असर नहीं पड़ता होगा इसी लिए तो चर्चा है अब तो भीम आर्मी नेता चन्द्रशेखर रावण अपना राजनैतिक दल भी बनने जा रहा है। चन्द्रशेखर कई छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों को एक झंडे तले लाकर सपा-बसपा और भाजपा का खेल बिगाड़ने की कोशिश कर रहा है।

चन्द्रशेखर की मंशा यह है कि बसपा सुप्रीमों मायावती को किनारे रखकर बहुजन समाज के लिए एक नया नेतृत्व खड़ा किया जाए। इसके लिए चन्द्रशेखर ने लखनऊ के वीआईपी गेस्ट हाउस में अपनी नजरबंदी के दौरान कुछ नेताओं से मुलाकात भी की है। बताते चलें लखनऊ के घंटाघर पार्क में सीएए के विरोध में चले रहे धरने में भाग लेने के लिए चन्द्रशेखर लखनऊ आया था,लेकिन वह घंटाघर पहुंच पाता इससे पूर्व ही योगी सरकार ने चन्द्रशेखर को नजरबंद कर दिया। वीआईपी गेस्ट हाउस में चन्द्रशेखर ने सुहेलदेव समाज पार्टी के नेता ओम प्रकाश राजभर और बसपा के कुछ पूर्व नेताओं के साथ बैठक की।

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वैसे, यहां यह बताना भी जरूरी है कि चन्द्रशेखर से बसपा सुप्रीमों मायावती ही नहीं भाजपा भी चिढ़ी रहती है। योगी सरकार चन्द्रशेखर को रासुका के तहत निरूद्ध भी कर चुकी है। इसी प्रकार सीएए के विरोध में पूरे देश में घूम रहे चन्द्रशेखर को उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने सीएए विरोधी एक भी जनसभा करने या किसी रैली में हिस्सा नहीं लेने दिया है।

खैर, यह सच है कि चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण भले मायावती का सीधे तौर पर विरोध करते नहीं दिखते हों पर बसपा सुप्रीमो मायावती उनकी मौजूदगी से हर समय खतरा महसूस करती रहती हैं। मायावती ने सीधे-सीधे भीम आर्मी के अगुआ चंद्रशेखर को भारतीय जनता पार्टी का गुप्तचर घोषित कर रखा है। पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के समय जब भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर ने बनारस से चुनाव लड़ने की घोषणा थी,तब भी मायावती ने चन्द्रशेखर को निशाने पर लेते हुए कहा था कि वह दलितों का वोट बांटकर भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए ही वाराणसी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। हालांकि बाद में चन्द्रशेखर ने चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था। मायावती अक्सर यह आरोप भी लगाती रहती हैं कि भीम आर्मी को भाजपा ने ही बनवाया है।

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बहरहाल, आज की तारीख में अगर मायावती के लिए कुछ भी अच्छा हो रहा है तो वह यह है कि मायावती की तरह योगी सरकार भी नहीं चाह रही है कि चन्द्रशेखर उत्तर प्रदेश में अपने पांव पसारने में कामयाब हो पाए। ऐसा जब तक होता रहेगा,तब तक संभवता मायावती को दलित वोट बैंक बिखरने का कोई खास खतरा नहीं रहेगा। भाजपा जरूर दलितों पर डोरे डालती रहती है,लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह से दलितों ने बसपा का साथ दिया,उससे तो यही लगता है कि मायावती की सियासत पर दलित वोट बैंक खिसकने का खतरा नहीं मंडरा रहा है, लेकिन जिस तरह से बसपा सुप्रीमों मायावती को साइड लाइन करके स्वयं दलितों का मसीहा बनना चाह रहा है,उससे माया की दलित सियासत पर हर समय खतरा मंडराता रहेगा।

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