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सुख-दुख

दैनिक जागरण दिल्ली के 39 वर्षीय पत्रकार प्रदीप चौहान का निधन

Kapil Sikhera-

अचानक इस खबर ने झकझोर दिया। विश्वास ही नहीं हो रहा कि प्रदीप चौहान अब इस दुनिया में नहीं हैं। प्रदीप कई बरस मुजफ्फरनगर ब्यूरो में हमारी टीम का हिस्सा रहे। एकदम जिंदादिल इंसान…सौ फीसदी ईमानदार।

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प्रदीप के रहते कभी टीम ने तनाव महसूस नहीं किया। बहुत कहानी-किस्से हैं उनके। एक दिन किसी बात पर डांट दिया, तो इस्तीफा लिखकर अपनी टेबल पर छोड़ गए। अगले दिन उन्हें घर से बुलाया और समझा-बुझाकर नार्मल किया।

पिछले कुछ वर्षों से वह एनसीआर में काम कर रहे थे। बीच-बीच में उनका फोन आता था। हालचाल लेते थे… तीन माह पहले उनसे फोन पर बातचीत हुई। सामान्य था सबकुछ। लगा ही नहीं कि ये उनसे आखिरी बार बात हो रही है। प्रदीप तुम हमेशा जिंदा रहोगे, हमारी यादों में।

अलविदा दोस्त….

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डॉ रवींद्र राणा-

सर नमस्कार! प्रदीप चौहान बोल रहा हूं, आपका जूनियर। अक्सर इस तरह फोन कर हालचाल लेते रहने वाले प्रदीप अब नहीं रहे। दैनिक जागरण के सहारनपुर ब्यूरो चीफ कपिल जी की पोस्ट से जब ये पता चला तो यकीन ही नहीं हुआ। लगा कि क्या सच में अपना प्रदीप चला गया है। तत्काल कपिल जी को फोन किया तो पता चला कि खबर सच है।

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प्रदीप ने हमसे बाद में यूनिवर्सिटी से एमजे किया और दैनिक प्रभात से पत्रकारिता शुरू की। फील्ड में आते जाते अक्सर उनसे मुलाकात होती। बाद में मिलना जुलना बंद हो गया। करीब दस साल से कोई मुलाकात नहीं हुई। प्रदीप जब गाजियाबाद में एनबीटी में चले गए तो मुझे फोन कर सूचना दी। मेरे मोबाइल में उनका नंबर प्रदीप एनबीटी के नाम से ही सेव है।

नंदग्राम में दो कमरों का छोटा सा आशियाना बना लिया तो प्रदीप की कोशिश रही कि एनसीआर में ही किसी मुख्य अखबार में स्टाफर हो जाएं। लगातार मेहनत करते, जूझते रहे। दैनिक जागरण में उन्हें मौका मिला तो खुश हुए। सब ठीक चल रहा था कि एक ईमानदार और सरल शख्स को महज 39 वर्ष की आयु में मौत ले गई। बीते पांच छह महीने से प्रदीप का फोन भी नहीं आया था। समाज में हमारे बहुत से दायरे पेशे के इर्द गिर्द बनते बिगड़ते हैं।

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मैं सक्रिय पत्रकारिता छोड़ शिक्षण में आया तो इन दायरों में कुछ परिवर्तन लाजिमी था। इधर करीब पांच छह महीने से प्रदीप का फोन भी नहीं आया था। आज शाम ही ये दुखद खबर मिली। प्रदीप की बेटी और पत्नी इस सदमे को कैसे सहन कर पाएंगी। मैं खुद बहुत आहत हूं। प्रदीप जीवन में 39 वर्ष तक जंग ही लड़ते रहे। पहले पढ़ाई और बाद में आजीविका की। हालात ऐसे रहे कि कुछ भी ठीक से संभल नहीं पाया। दावे चाहे जो हों पर समाज की व्यवस्था बेहद क्रूर है। यहां एक आम इंसान जन्म से मौत तक आजीविका की ही जंग लड़ता रहता है। मानो आजीविका के लिए ही उसका जन्म हुआ हो।

तमाम प्रतिभाएं इसी लड़ाई में पस्त और अंततः अस्त हो जाती हैं। प्रदीप तुम हमेशा याद आओगे। अपने मोबाइल में सेव नंबर पर आज तुम्हारी डीपी देखी तो वहां तिरंगा लहरा रहा है। इस तिरंगे को लहराते देखने का ख्वाब पालने वालों और उसके लिए लड़ने वालों ने कभी सपने में भी न सोचा होगा कि एक ऐसा भी समाज बनेगा जहां जीवनदायिनी नदियां कैंसर बांटेंगी। अस्पताल दवा के बजाय दर्द ज्यादा देंगे। सरकारें रोजगार देने के बजाय नौजवानों को परीक्षाओं के चक्रव्यूह में ही फंसाए रखेंगी।

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