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सियासत

अपने मतदाता वर्ग के गुस्से से डरी हुई है मोदी सरकार

भाजपा की जीत के बाद उसके वादों और इरादों को लेकर बहुतेरे सवाल उठे, ऐसा किसी भी नई सरकार के बनने के बाद होता है। जहां तक सवाल है सरकार के कामकाज का तो एक महीने में उसका आंकलन करना थोड़ी जल्दबाजी होगी पर उसके नीति-नियंताओं द्वारा ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का ‘मंत्रोचार’ और कार्यसंस्कृति नीतिगत बदलाव के स्पष्ट संकेत दे रही है।

<p>भाजपा की जीत के बाद उसके वादों और इरादों को लेकर बहुतेरे सवाल उठे, ऐसा किसी भी नई सरकार के बनने के बाद होता है। जहां तक सवाल है सरकार के कामकाज का तो एक महीने में उसका आंकलन करना थोड़ी जल्दबाजी होगी पर उसके नीति-नियंताओं द्वारा ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का ‘मंत्रोचार’ और कार्यसंस्कृति नीतिगत बदलाव के स्पष्ट संकेत दे रही है।</p>

भाजपा की जीत के बाद उसके वादों और इरादों को लेकर बहुतेरे सवाल उठे, ऐसा किसी भी नई सरकार के बनने के बाद होता है। जहां तक सवाल है सरकार के कामकाज का तो एक महीने में उसका आंकलन करना थोड़ी जल्दबाजी होगी पर उसके नीति-नियंताओं द्वारा ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का ‘मंत्रोचार’ और कार्यसंस्कृति नीतिगत बदलाव के स्पष्ट संकेत दे रही है।

पीएम के दस मंत्र हों या फिर देशहित में कड़े फैसले लेने की जरुरत जिसे वह व्यापक देशहित में जरुरी मानते हैं, के व्यापक निहितार्थ हैं। क्योंकि इस जीत के बाद कहा गया कि 1947 में देश ने राजनीतिक आजादी हासिल की थी और मई 2014 में उसने अपनी ‘गरिमा’ हासिल की है। तो वहीं सूरज कुंड में भाजपा सांसदों की दो दिवसीय कार्यशाला में प्रशिक्षण देते हुए संघ के सरकार्यवाह सुरेश सोनी ‘राष्ट्रवाद’ की भावना से इतना ‘ओत-प्रोत’ हो गए कि उन्होंने मोदी सरकार बनने की तुलना स्वतंत्रता दिवस से कर डाली। गौरतलब है कि सोनी इन दिनों मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले के आरोपों के चलते चर्चा में हैं।
 
दरअसल, मंत्रियों और सांसदों की लगातार पाठशाला तो लगाई जा रही है पर सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सभी मंत्रियों को सौ दिन का एजेण्डा पेश करने को कहा था, एक महीने से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी जो पेश नहीं हो सका। मोदी खुद को एक ‘धीर-गंभीर’ व्यक्ति के रुप में पेश करने की असफल कोशिश कर रहे हैं। मोदी को जिस मतदाता वर्ग ने चुना है वह इतना धीर-गंभीर नहीं है और न ही वह इस ‘गम्भीरता’ को ज्यादा समय तक पचा पाएगी। यही डर मोदी सरकार को सता रहा है। सारी ‘राष्ट्रवादी’ मुद्राएं इसी डर का परिणाम हैं।
 
शायद, यही वह दबाव था जिसने नरेन्द्र मोदी को उनकी सरकार के एक महीने पूरे होने पर ‘अंग्रेजी’ में ब्लाग लिखने को मजबूर किया। जिसमें उन्होंने लिखा है कि हर नई सरकार के लिए मीडिया के दोस्त हनीमून पीरियड का इस्तेमाल करते हैं। बीती सरकारों को यह छूट थी कि वो इस हनीमून पीरियड को सौ दिन या उससे भी ज्यादा आगे तक बढ़ा सकें। यह अप्रत्याशित नहीं है कि मुझे ऐसी कोई छूट नहीं है। सौ दिन भूल जाइए सौ घंटे के अंदर ही आरोपों का दौर शुरू हो गया। जिस तरह मोदी ने मीडिया द्वारा उनको छूट न देने की बात कही है उससे साफ जाहिर है कि यह दबाव किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं बल्कि इस दौर के उन्हीं मीडिया-सोशल मीडिया जैसे संचार माध्यमों से है, जिसने एक महीने पहले ही घोषित किया था, ‘मोदी आ रहा है।’ ऐसे में मीडिया की यह बेरुखी उन्हें भा नहीं रही है। मोदी समझ रहे हैं कि इसे सिर्फ यह कह कर कि ‘मैं आया नहीं, मुझे गंगा ने बुलाया है’, ‘मैं चाय बेचने वाला हूं’ या ‘नीच जाति का हूं’ नहीं ‘मैनेज’ किया जा सकता।

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नरेन्द्र मोदी चुनाव के दौरान जब सब्र की सीमाओं को तोड़ते हुए कहते थे कि ‘मितरां’ देश अब इंतजार नहीं कर सकता तो ऐसे में उनके द्वारा वक्त की मांग करना बेमानी होगा। क्योंकि रेल, तेल-गैस जैसे मंहगाई बढ़ाने के मुद्दों पर ठीक इसी तरह पूर्ववर्ती सरकार के भी तर्क रहते थे, जिस पर संसद को भाजपा ठप्प कर देती थी। अपने मंत्रालयों में मोटीवेशन के लिए शिव खेड़ा जैसे ‘प्रेरक वक्ता’ और उन्हीं के जैसे कुछ और जो कहते हैं कि जो व्यवहार तुम्हें खुद के लिए अच्छा न लगे उसे दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए, से भजपा को सीख लेने की जरुरत है।
 
मोदी सरकार द्वारा लगातार आम जनता को दी जा रही कड़वी घूंट को जनता संघ परिवार के किसी ‘वैद्य जी’ द्वारा दी जा रही औषधि मान कर चुप नहीं हो जाएगी। इसीलिए भाजपा सांसदों को प्रजेंट प्राइम मिनिस्टर के बाद ‘वेटिंग प्राइम मिनिस्टर’ लालकृष्ण आडवानी ने गुर सिखाते हुए कहा कि हमें जनता को यह बताना होगा कि ऐसे निर्णय क्यों जरुरी हैं और वे कैसे देश तथा आम जनता को दीर्घकालिक लाभ पहुंचाएंगे।

बहरहाल, कोई भी नई सरकार सबसे पहले आम जनता को फौरी राहत देती है, जिसके बतौर मौजूदा सरकार ने रेल किराया बढ़ा दिया। यह वही मोदी हैं, जिन्होंने पिछली सरकार द्वारा बजट से पहले रेल किराया बढ़ाने पर संसद की सर्वोच्चता जैसे सवालों को उठाया था, जिसे वह अपनी सरकार में भूल गए। शायद अब उनके लिए संसद की सर्वोच्चता जैसा अहम मुद्दा, मुद्दा नहीं रह गया। इसीलिए वह बड़े मार्मिक भाव से कहते हैं कि जब कोई राष्ट्र की सेवा करने के एकमात्र उद्देश्य से काम कर रहा हो तो इस सबसे फर्क नहीं पड़ता। यही वजह है कि मैं काम करता रहता हूं और उसी से मुझे संतुष्टि मिलती है। पर नरेन्द्र मोदी को यह समझना चाहिए कि यह उनका कोई निजी मुद्दा नहीं है, जिसमें उन्हें जिस कार्य में संतुष्टि मिलेगी वह वो करेंगे।

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विदेशी काला धन हो या फिर ‘अच्छे दिन’ यह चुटकुला बन गया है। अगर मोदी सरकार सचमुच काला धन सामने लाना चाहती है तो उसके लिए उसे ‘स्विस’ से गुहार करने से पहले देश के भीतर के काले धन को जब्त करना चाहिए। पर जो भाजपा मध्य प्रदेश में व्यापम जैसे घोटालों के आरोपों से घिरी हो उससे ऐसा उम्मीद करना खुद को धोखा देना होगा।

जो भी हो पर राजनीतिक हल्कों में यह चर्चा-ए-आम है कि सूरज कुंड में भाजपा सांसदों की पाठशाला में व्यापम घोटाले को लेकर चर्चा में रहे सुरेश सोनी ने सांसदों को क्या गुर दिए। बंगारु लक्ष्मण प्रकरण से सीख लेते हुए जिस तरह सरकार बनने के बाद सांसदों को स्टिंग ऑपरेशन से बचने की नसीहत दी जा रही है और पिछले दिनों केन्द्रिय मंत्री संजय बालियान ने अपने कार्यालय में पेन-कैमरा लाना वर्जित किया है, उससे साफ जाहिर है कि भाजपा को अपने सांसदों की नैतिकता पर पूरा संदेह है। जिस तरीके से भाजपा सांसदों को सार्वजनिक वक्तव्य देने से रोका गया है, इस बात का आकलन करना कठिन न होगा कि जो सांसद अपने लोकतांत्रिक अधिकार को नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं वह जनता के अधिकारों को कितनी आवाज दे पाएंगे।

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राजीव यादव
द्वारा- मोहम्मद शुऐब (एडवोकेट)
110/46 हरिनाथ बनर्जी स्ट्रीट, नया गांव पूर्व
लाटूश रोड, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
मो0- 09452800752

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