अपनी पत्रकारिता की अवस्मरणीय जानकारियां अनवरत अपने एफबी वॉल पर लिखते हुए वरिष्ठ पत्रकार धीरज कुलश्रेष्ठ बताते हैं कि माया ज्वॉइन करते ही अगले महीने मैंने एक दुस्साहसी स्टोरी लिख दी…….”अदालत कटघरे में”।
इस स्टोरी में न्यायपालिका में और खास तौर पर हाईकोर्ट की जयपुर बैंच के कामकाज पर गंभीर सवाल उठाए गए थे। इस स्टोरी को माया ने प्रमुखता से छापा और वह अंक एक ही दिन में बाजार में बिक गया। हर तरफ…खास तौर से ज्यूडिशरी में उस स्टोरी की चर्चा थी। मैंने अपनी स्टोरी में ज्यूडिशरी के भ्रष्टाचार के सारे पहलुओं को तार-तार करने की कोशिश की थी। इससे पहले न्यायपालिका पर इतनी बेबाक रिपोर्ट कभी नहीं छपी थी। स्टोरी के साथ, उसमें वर्णित तथ्यों के सबूत भी थे….जयपुर बैंच के कुछ न्यायाधीश तिलमिला उठे…तो कुछ ने उनकी तिलमिलाहट पर नमक छिड़क कर मजे लेने का काम किया।
तिलमिलाए जजों ने राज्य सरकार से और हाईकोर्ट की फुलबैंच में मेरे खिलाफ अवमानना का मामला दर्ज करने का प्रस्ताव भी रखा पर वे इसमें कामयाब नहीं हुए….अंततः नियमित सत्र के आखिरी दिन….ग्रीष्मकालीन अवकाश से एक दिन पहले महेंद्रभूषण शर्मा ने स्वतः प्रसंज्ञान लेकर मुझ पर और माया के संपादक,प्रकाशक पर अवमानना का मुकदमा ठोंक दिया।
इस घटना ने मेरी जिंदगी ही बदल दी और शायद यही घटना है, जिसके कारण मैंने यह सीरीज लिखना शुरु किया। मैं कोशिश करूंगा कि अपनी बात और अनुभव आप तक विस्तार से तथा तरतीब से पहुंचा सकूं। असल में इस घटना के बैक ग्राउण्डर के तौर पर ही मैंने आपको अपनी अब तक की पत्रकारिता के सफर से अवगत कराने की कोशिश की थी। मैं चाहे थिेयेटर कर रहा था या पत्रकारिता….पर सोशल एक्टिविस्ट के रूप में सक्रिय था और अपनी भूमिका से संतुष्ट भी। पर अचानक एक दिन बार कोंसिल (बार एसोसिएशन नहीं) ने आंदोलन करने की घोषणा कर दी, उनके मूल मुद्दे तो अब मुझे याद नहीं। परन्तु प्रेस कांफ्रेंस के दौरान उन्होंने ज्यूडिशरी पर गंभीर आरोप लगाए….जजों के नाम लेकर लगाए। पर अगले दिन के अखबारों में आधी अधूरी, गोल मोल खबर छपी।
मुझे लग गया कि यहां गंभीर स्टोरी की संभावना है। मेरा सोशल एक्टिविस्ट जाग गया। आज जब सब जानते हैं विधायिका और कार्यपालिका भ्रष्ट हो चुकी हैं तो ऐसे में रिलीफ की उम्मीद सिर्फ न्यायपालिका से ही की जा सकती है….लेकिन जब न्यायपालिका भी भ्रष्ट हो जाएगी तो समाज और देश की आखिरी उम्मीद भी खत्म। हद तो यह है कि वकील प्रेस को बुलाकर …जजों के नाम लेकर..आरोप लगा रहे हैं, तब भी अवमानना कानून के डर से प्रेस …. उस सच को छापने से बच रही है। क्या कल हम आने वाली पीढ़ी से आंख मिलाकर सफाई दे पाएंगे कि जब वकीलों ने हमारी आंख में अंगुली डाल कर सच्चाई दिखाई थी…तो भी हमने क्यों नहीं देखी?
तो मित्रों मैं 1992 में जयपुर हाइकोर्ट में करप्शन,वकीलों की नाराजगी और मुझ पर अवमानना के मुद्दे की चर्चा कर रहा था।मेरा सोशल एक्टिविस्ट सक्रिय हो गया था…मैं प्रेस कांफ्रेंस में मुखर हर वकील से ,उसके घर जाकर मिला….उनके द्वारा जजों पर लगाए गए व्यक्तिगत आरोपों के सबूत इकठ्ठे किए। स्टोरी लिखी और भेज दी। हमारे ब्यूरो चीफ ओमसैनी ने भी स्टोरी की गंभीरता को भांपते हुए,उसकी कठोर स्क्रीनिंग की,और डॉक्युमेंटों को भी ध्यान से देखा।संपादक जी ने भी इलाहाबाद से फोन करके अपने सवालों की पुष्टि की और वहां माया के विधि सलाहकारों की राय भी ली।पर मैं अपने स्टैंड पर अड़ा रहा कि अगर यह स्टोरी नहीं छपती है तो हमारा पत्रकारिता करना व्यर्थ है,हम भावी पीढ़ी को मुंह दिखाने लायक ही नहीं रहेंगे….साथ ही समाज की गिरावट के जिम्मेदार भी माने जाएंगे।ओमजी ने मेरे स्टैंड में हमेशा विश्वास जताया। खैर काफी टेंशन और जद्दोजहद के बाद वह स्टोरी छप ही गई।छपने के बाद ,जो हडकंप होना था,वो हुआ।एक से ज्यादा अवमानना के मुकदमे हुए।
यहां यह जिक्र करना रूचिकर हो सकता है कि उस समय जो भी घटनाक्रम चल रहा था।मैं खुद आश्चर्यचकित था कि अभीतक अवमानना का मामला बना क्यों नहीं।हाईकोर्ट के ग्रीषमकालीन अवकाश के एक दिन पूर्व मैं खुद हाईकोर्ट इसीलिए गया था कि शायद आज मुकदमा हो ही जाए….इस बहाने इस मुद्दे पर एक और बहस छेड़ने का मौका मिलेगा। दो बजे एक वकील मित्र ने खबर दे दी कि महेंद्रभूषण शर्मा ने स्वतः प्रसंज्ञान ले लिया है….सच मानो दिल एक बार तो हल्का हो गया….कि अब आएगा लड़ाई का मजा।
पर इस लड़ाई में असली छोंक लगाया ….बड़े भाई जैसे पत्रकार सुभाष नाहर ने…..उन्होंने अपने अखबार खबरनवीस का अगला अंक ही मुझे समर्पित कर दिया….जिसकी कवरस्टोरी थी—“सच को सच कहना अवमानना है,तो आओ अवमानना करें” ।इस अंक में मेरी माया वाली स्टोरी के साथ-साथ जजों के खिलाफ कुछ पुरानी स्टोरियां छाप दीं।इस अंक के हाइकोर्ट में बंटते ही हंगामा हो गया…रजिस्ट्रार ने अखबार जब्त कर लिया …..खबरनवीस पर कई अवमानना के मुकदमे ठोक दिए गए…..पर यह बात मैं यहीं लिख देना चाहता हूं कि सुभाष नाहर ने अपने नाम के अनुकूल नाहर की तरह अपनी सारी जिम्मेदारी खुद स्वीकार की ………और यह बताना भी दिलचस्प होगा कि ताल ठोंककर जयपुर हाईकोर्ट में लड़ा गया यह मुकदमा कभी पार्टहर्ड भी नहीं हुआ….. यहां तक कि सुप्रीमकोर्ट के किसी आदेश के तहत दैनिक सुनवाई की लिस्ट में आने के बावजूद डेढ़ साल तक 150 नंबर से नीचे नहीं आया…..जबकि वकीलों सहित सब जानते हैं कि एक बैंच में एक दिन में ज्यादा से ज्यादा 60-65 मुकदमे सुने जाते हैं…….आप समझ ही गए होंगे कि इस तालठोंक मामले का क्या हश्र हुआ होगा।
धीरज कुलश्रेष्ठ के एफबी वॉल से