कृष्ण कल्पित-
बिछड़े सभी बारी बारी ! आज डॉ अशोक त्रिपाठी के न रहने की ख़बर आई । अब तो भीतर कुछ हिलता भी नहीं । हृदय पत्थर में बदल गया है । अशोक त्रिपाठी दूरदर्शन में मेरे सहकर्मी थे । वे मुझसे उम्र में बड़े थे लेकिन हम भारतीय प्रसारण सेवा के एक ही बैच के अधिकारी थे ।
महानिदेशालय में भी हम आस-पास ही बैठते थे और पटपड़गंज में भी हम बरसों पड़ोसी रहे । हम सुबह एक साथ ही दफ़्तर जाते लेकिन शाम को हमारे रास्ते अलग-अलग हो जाते । वे दफ़्तर से सीधे घर जाते और हम प्रेस-क्लब या कहीं और भटकते-भटकते देर से घर पहुँचते ।
अशोक त्रिपाठी इलाहाबाद से आये थे और 2012 में रिटायर होकर वापस इलाहाबाद चले गए । बीच में लीलाधर मंडलोई ने उन्हें रेडियो में आकाशवाणी पत्रिका के पुराने अंकों के सम्पादन का काम सौंपा । यह काम हुआ लेकिन अधूरा ही रहा । दिल्ली में घर होने के बाद भी उन्होंने इलाहाबाद में घर बनाया और वहीं चले गए । अशोक त्रिपाठी बहुत अच्छे सम्पादक थे ।
अशोक त्रिपाठी केदारनाथ अग्रवाल के प्रिय पात्रों में से रहे । केदारजी और रामविलासजी के पत्रों की अद्भुत किताब ‘मित्र-संवाद’ अशोक त्रिपाठी का ऐसा कारनामा है जिसे हिन्दी-जगत भूल नहीं सकता । मित्र-संवाद अशोक त्रिपाठी के उत्कृष्ट सम्पादन का उदाहरण है । इस सम्पादन में एक आलोचक की दृष्टि भी दिखाई देती है ।
अंतिम मुलाक़ात अशोकजी से कोई तीन बरस पहले दिल्ली में हुई थी । इन दिनों वे इलाहाबाद में साहित्यिक रूप से सक्रिय थे लेकिन क्रूर कोरोना ने उन्हें लील लिया । अभी तो सत्तर के भी नहीं हुए थे, भाई ! क्या ज़ल्दी थी । सादर नमन !