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वेब-सिनेमा

‘फ़िल्म सेन्सरशिप के सौ वर्ष’ पुस्तक प्रकाशित

हम आज भी अंग्रेज़ी हुकूमत के नियमों से फ़िल्म प्रमाणन प्रक्रिया करते हैं, सौ वर्षों की सिनेमाई यात्रा का पूरा विवरण पेश करती है पुस्तक ‘फ़िल्म सेन्सरशिप के सौ वर्ष’, पुस्तक में देश के जाने माने फ़िल्मकारों और फ़िल्म पत्रकारों के साक्षात्कार हैं समाहित

फ़िल्म सेन्सरशिप को लेकर देश भर में माहौल हमेशा से गरम रहा है. 1918 में अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा फ़िल्मों की सामग्री को परीक्षण करने के इरादे से आरम्भ की गई नीति आज 21वीं सदी में ओटीटी प्लेटफ़ोर्म के ज़माने में भी प्रासंगिक है. एक दर्शक फ़िल्म में क्या देखे? इसे तय करने की एक संस्था आज़ाद भारत में भी बनाई गई जिसे केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड का नाम दिया गया.

इसी क्रम में कई कमेटियाँ बनी जिसने इस बोर्ड के क्रियान्वयन और तरीक़ों में बदलाव लाने के लिए ज़रूरी सुझाव भी दिए. यह सब कितना सफल हुआ और क्या बदलाव हुए पुस्तक फ़िल्म सेन्सरशिप के सौ वर्ष बताती है. डॉ मनीष जैसल द्वारा लिखी गई यह किताब संभवत: हिंदी में इस विषय पर लिखी गई पहली किताब है जो फ़िल्म सेन्सरशिप के सौ वर्षों का पूरा लेखा जोखा पेश करती है.

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दुनिया भर में फ़िल्म सेन्सरशिप को लेकर बने मॉडल में भारत में कौन सा सबसे उपर्युक्त होना चाहिए पुस्तक में दिए सुझावों से जाना और समझा जा सकता है. कभी पद्मावती जसी फ़िल्मों को लेकर विवाद होता है तो कभी उड़ता पंजाब के सीन कट हो जाने से मीडिया में हेडलाइन बनने लगती है. लेकिन इसके पीछे के तर्कों और इससे बचाव को लेकर सरकारें क्या क्या उपाय सोचती और उसे करने का प्रयास करती है पुस्तक कई उदाहरणों के साथ सामने लाती है. देश के शिक्षाविद, फ़िल्मकार,पत्रकारों, लेखकों आदि से किए गए साक्षात्कार फ़िल्म सेन्सरशिप के भविष्य को लेकर एक राह दिखते हैं. जिन पर अमल किया जाये तो संभवत: इस दिशा में सकारात्मक कार्य हो सकता है.

महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से फ़िल्म स्टडीज़ में पीएचडी डॉ जैसल ने काशीपुर के ज्ञानार्थी मीडिया कोलेज में भी अपनी सेवाएँ बतौर सहायक प्रोफ़ेसर और मीडिया प्रभारी दे चुके हैं. सीएसआरयू हरियाणा में सेवाएँ देने बाद वर्तमान में नेहरु मेमोरियल लाइब्रेरी नई दिल्ली के सहयोज से पूर्वोत्तर राज्यों के सिनेमा पर पुस्तक लिख रहे डॉ मनीष ने मशहूर फ़िल्मकार मुज़फ़्फ़र अली पर भी पुस्तक लिखी है, जो काफ़ी चर्चित रही.

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बुक बजुका प्रकाशन कानपुर द्वारा इनकी तीनों किताबें प्रकाशित हुई हैं. प्रकाशक ने बताया कि सिनेमा पर लिखने वाले बहुत काम लोग हैं ऐसे में भारतीय सिनेमा और सेन्सरशिप पर लिखी गई इस पुस्तक में लेखक ने भारतीय संदर्भों के साथ अमेरिका यूरोप और एशिया के कई प्रमुख देशों के फ़िल्म सेन्सरशिप की विस्तृत चर्चा की है. वहीं प्रमुख फ़िल्मकारों और पत्रकारों से संवाद पुस्तक को और भी तथ्य परक बनाती है. फ़िल्म समीक्षक, लेखक और स्वतंत्र पत्रकार की भूमिका का बराबर निर्वहन कर रहे पुस्तक के लेखक डॉ मनीष जैसल ने सभी फ़िल्म रसिक, फ़िल्मी दर्शकों और पाठकों से पुस्तक को पढ़ने और उस पर टिप्पणी की अपील की है.

वर्तमान में लेखक मंदसौर विश्वविद्यालय में जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर हैं. फ़िल्म मेकिंग, फ़ोटोग्राफ़ी, इलेक्ट्रोनिक मीडिया जैसे टेक्निकल विषय पर विशेष रुचि भी है. स्क्रीन राईटर एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया, आइचौकडॉटइन, अमर उजाला, हिंदुस्तान, भास्कर, न्यूजलांड्री जैसे पोर्टल में लगातार इनकी फ़िल्म समीक्षाए और लेख प्रकाशित होते रहते हैं.

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दो भागों में प्रकाशित ‘फ़िल्म सेन्सरशिप के सौ वर्ष’ को प्राप्त करने के लिए आप [email protected] पर सम्पर्क कर सकते हैं.

https://youtu.be/rM1tVLifETc
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