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दृष्‍टांत ने खोली फर्जी सर्कुलेशन से सरकारी खजाना लूटने वालों की पोल

लखनऊ की आबादी से भी कई गुना अखबारों की प्रसार संख्या है। जबकि इस आबादी के आधार पर पांच सदस्यों वाले परिवार से डिवाइड कर परिवारों की संख्या की बात की जाए तो लखनऊ में 25 लाख से ज्यादा परिवार नहीं हो सकते। यह भी सत्य है कि औसतन एक घर में एक ही अखबार पढ़ा जाता है। कुछ घरों में चार से पांच-पांच अखबार भी आते हैं तो दूसरी ओर गरीब परिवार के लोग चाय की दुकानों पर जाकर ही समाचार-पत्र पढ़ लेते हैं। एक जानकारी के अनुसार 10 प्रतिशत लोग दूसरों से मांगकर अखबार पढ़ते हैं। यदि इस तरह से देखा जाए तो लखनऊ के लिए 8 से 10 लाख का सर्कुलेशन भी काफी ज्यादा होगा। 

लखनऊ की आबादी से भी कई गुना अखबारों की प्रसार संख्या है। जबकि इस आबादी के आधार पर पांच सदस्यों वाले परिवार से डिवाइड कर परिवारों की संख्या की बात की जाए तो लखनऊ में 25 लाख से ज्यादा परिवार नहीं हो सकते। यह भी सत्य है कि औसतन एक घर में एक ही अखबार पढ़ा जाता है। कुछ घरों में चार से पांच-पांच अखबार भी आते हैं तो दूसरी ओर गरीब परिवार के लोग चाय की दुकानों पर जाकर ही समाचार-पत्र पढ़ लेते हैं। एक जानकारी के अनुसार 10 प्रतिशत लोग दूसरों से मांगकर अखबार पढ़ते हैं। यदि इस तरह से देखा जाए तो लखनऊ के लिए 8 से 10 लाख का सर्कुलेशन भी काफी ज्यादा होगा। 

जानकार आश्चर्य होगा कि सिर्फ राजधानी लखनऊ में ही इस आंकड़ें से कई गुना अखबारों की प्रसार संख्या दर्शायी जा रही है। सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय के अधिकारी भी इस बात से पूरी तरह से सहमत हैं इसके बावजूद विभागीय अधिकारियों की खामोशी साफ बताती है कि ‘दाल में काला’ नहीं बल्कि पूरी दाल ही काली है। निरीक्षा शाखा के एक कर्मचारी की मानें तो इस बात की जानकारी विभागीय स्तर से शासन के उच्च पदस्थ अधिकारियों तक भी पहुंचायी जा चुकी है। गौरतलब है कि सूचना विभाग मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र में है। इस लिहाज से कम से कम इस विभाग में तो पारदर्शिता होनी ही चाहिए थी।

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‘हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा’ की तर्ज पर अखबार का प्रकाशन भी अब मिशन के बजाए चोखा धंधा बन चुका है। डीएवीपी, सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के कुछ अधिकारियों/कर्मचारियों, प्रिंटिंग प्रेस और अखबार मालिकों की मिलीभगत से राजधानी लखनउ में ही हजारों की संख्या में ऐसे समाचार-पत्र/पत्रिकाएं कुकुरमुत्ते की भांति उग आयी हैं जिनका वास्तविकता में पत्रकारिता से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। ऐसे समाचार-पत्र/पत्रिकाएं सम्बन्धित विभागों के कुछ लालची किस्म के अधिकारियों/कर्मचारियों की मदद से राजकीय कोष को जमकर लूट रहे हैं। 20-25 से 100-200 प्रतिदिन प्रतियां प्रकाशित करने वाले अखबार मालिकों ने शपथ-पत्रों में फर्जी तरीके से हजारों-लाखों की प्रसार संख्या दर्शा रखी है ताकि अधिकाधिक प्रसार संख्या के आधार पर उन्हें विज्ञापन के अच्छे दाम और पत्रकारों को दी जाने वाली अन्य सरकारी सुविधाओं का लाभ मिल सके। 

25 प्रतियां प्रकाशित करने वाले बने मान्‍यता प्राप्‍त पत्रकार 

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20-25 प्रतियां प्रकाशित करने वाले मुख्यालय से मान्यता प्राप्त पत्रकार तक बन चुके हैं। जिन्हें एक कॉलम समाचार लिखने का तरीका नहीं आता वे वरिष्ठ पत्रकारों की सूची में नामजद हैं। ऐसे तथाकथित पत्रकार न सिर्फ हजारों लाखों की प्रसार संख्या दर्शाकर प्रतिवर्ष लाखों का विज्ञापन जुटा रहे हैं बल्कि नौकरशाही और सियासी गलियारों में श्रेष्ठ पत्रकारों की श्रेणी में गिने जाते हैं। ऐसे पत्रकारों के अखबारों की कितनी प्रतियां प्रतिदिन प्रकाशित होती हैं ? इसकी जानकारी नौकरशाही को भी है लेकिन पत्रकारों के बीच श्रेष्ठ समझे जाने वाले ऐसे पत्रकारों को कभी-कभी नौकरशाही भी सलाम बजाती नजर आती है। कई कार्यक्रमों में नौकरशाही को ऐसे तथाकथित पत्रकारों के समक्ष नतमस्तक होते सोशल साईटों पर अक्सर देखा जाता है। 

महत्वपूर्ण यह है कि फर्जी सर्कुलेशन के सहारे अपनी दुकानें चलाने वाले कुछ तथाकथित पत्रकारों ने बकायदा संगठन बनाकर सरकार और विभागों पर दबाव बना रखा है। किसी एक फर्जी पत्रकार के खिलाफ कार्रवाई होते देख इनका संगठन अधिकारियों के घेराव के लिए हमेशा तत्पर रहता है। इन संगठनों ने बकायदा परिचय पत्र भी जारी कर रखे हैं। चौंकाने वाला पहलू यह है कि संगठनों के यह परिचय-पत्र सदस्य के रूप में पान की गुमटी लगाने वालों से लेकर सब्जी विक्रेता और अन्य दुकानदारों तक को दिए गए हैं।

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फर्जी प्रसार संख्या दर्शाकर सरकारी खजाने पर डाका डालने वालों के खिलाफ जांच बेहद आसान है। यहां तक कि अनुभवी अधिकारी समाचार-पत्र की प्रिंटिंग  को देखकर ही उसकी प्रसार संख्या बता सकते हैं। सम्बन्धित विभाग के अधिकारी भी यही कहते हैं कि तकनीकी आधार पर सब कुछ स्पष्ट है इसके बावजूद वे नौकरशाही के निर्देश पर चुप्पी साधने के लिए विवश हैं। सैकड़ों की संख्या में ऐसे दैनिक अखबार निकलते हैं जो अपनी प्रसार संख्या तो पचास हजार से भी अधिक दिखाते हैं लेकिन प्रिंटिंग वे सीट ऑफसेट अथवा टे्डिल मशीन पर करवाते हैं। तकनीकी आधार पर सीट ऑफसेट और टे्डिल मशीनें प्रतिदिन लाखों की संख्या में अखबार नहीं छाप सकतीं जबकि उनके पास दूसरे अन्य जॉब वर्क भी होते हैं। 

तकनीकी आधार पर पूछे गए इस सवाल पर सूचना विभाग के अधिकारी भी सहमत हैं लेकिन तथाकथित दिग्गज पत्रकारों के विरोध में वे मुंह खोलने के लिए तैयार नहीं। इन अधिकारियों की मानें तो तकनीकी आधार पर ऐसे अखबारों की प्रसार संख्या को लेकर विभागीय अधिकारियों ने अपने उच्चाधिकारियों को भी सूचित कर रखा है। चौंकाने वाला पहलू यह है कि विभागीय स्तर से उच्चाधिकारियों तक यह जानकारी लगभग एक दशक पहले ही दी जा चुकी थी, लेकिन किसी भी सरकार के कार्यकाल में फर्जी प्रसार संख्या दर्शाने वाले अखबार मालिकों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी, अलबत्ता ऐसे पत्रकारों का कद जरूर बढ़ता गया। जिन्हें जिले से मान्यता प्राप्त थी वे  मुख्यालय से मान्यता पा गए तो दूसरी ओर सरकारी सुविधाओं में बढ़ोत्तरी भी ऐसे पत्रकारों को मिलती चली गयी जिनका पत्रकारिता से कोई सरोकार नहीं रहा है। कुछ अखबार और समाचार-पत्रिकाएं ऐसी हैं जिनका नाम तक लोग नहीं जानते और दस्तावेजों में उनकी प्रसार संख्या पचास हजार से लेकर लाखों तक हैं। 

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कोर्ट ने मांगी फर्जी प्रसार दिखाने वालों की जानकारी 

अभी हाल ही में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खण्डपीठ में दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस इम्तियाज मुर्तजा और जस्टिस श्रीनारायण शुक्ल ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए अखबारों के प्रसार संख्या पर उंगली उठायी है। इन जजों ने सम्बन्धित विभागों को भी निर्देश दिये हैं कि तत्काल ऐसे समाचार-पत्रों की जांच करवाकर सख्त कार्रवाई की जाए। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के कर्मचारी यूनियन की मानें तो समाचार-पत्र प्रकाशित करने के लिए आरएनआई को एक गाइडलाईन भी बनानी चाहिए। बुद्धिजीवी वर्ग से जुडे़ इस प्रोफेशन के लिए कम से कम स्नातक पास लोगों को ही समाचार-पत्र प्रकाशित करने की अनुमति मिलनी चाहिए। साथ ही ऐसे अखबार मालिकों की एक लिखित परीक्षा भी होनी चाहिए ताकि उनकी योग्यता पर भविष्य में कोई उंगली न उठा सके। जहां तक फर्जी सर्कुलेशन दर्शाने की बात है तो आरएनआई को ऐसे अखबार मालिकों के खिलाफ सख्त विभागीय और कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि फर्जी अखबार मालिकों के बीच भय बना रहे और वे पत्रकारिता की गरिमा से खिलवाड़ न हो सके।  

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सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन विज्ञापन एवं दृश्य प्रचार निदेशालय की विज्ञापन नीति-2007 में अखबार एवं समाचार-पत्र/पत्रिकाओं के प्रसार को लेकर सख्त हिदायतें दी गयी हैं। अनुच्छेद 18 में ‘निलंबन और वसूलियां’ कॉलम के खण्ड ‘‘क’’ में प्रसार सम्बन्धी झूठी सूचना देने पर डीएवीपी उक्त अखबार एवं पत्र/पत्रिकाओं को अपनी सूची से निलम्बित कर सकता है। इतना ही नहीं डीएवीपी की संस्तुति पर शीर्षक निलंबित करने की भी कार्रवाई की जा सकती है। आश्चर्य है कि तकनीकी आधार पर स्पष्ट प्रमाण के बावजूद डीएवीपी ने आज तक किसी भी अखबार के खिलाफ प्रसार संख्या को लेकर उंगली नहीं उठायी है। जाहिर है कि डीएवीपी में भी कुछ अधिकारी और कर्मचारी ऐसे बैठे हैं जो अखबारों का फर्जी सर्कुलेशन दर्शाने वालों से मोटी रकम ऐंठकर फर्जी दस्तावेजों पर अपनी संस्तुति जताते चले आ रहे हैं। 

फर्जी शपथ पत्र दाखिल कर होता है खेल 

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गौरतलब है कि फर्जी शपथ-पत्र दाखिल करना भी धोखाधड़ी की श्रेणी में आता है। ऐसा कृत्य करने वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 420 के तहत कार्रवाई कर दोषी लोगों को सलाखों के पीछे और जुर्माने के तौर पर रकम वसूले जाने का भी प्राविधान है। प्राप्त जानकारी के अनुसार कुछ अखबार मालिक ऐसे भी हैं जिनके खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, धोखाधड़ी सहित अनेक मामले पंजीकृत हैं इसके बावजूद एलआईयू ने उन्हें क्लीनचिट देकर अखबार के प्रकाशन की राह आसान कर रखी है। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के एक सेवा निवृत्त कर्मचारी का दावा है, ‘यदि सूचना विभाग के अधिकारियों को बिना दबाव के निष्पक्ष तरीके से जांच का अधिकार दे दिया जाए तो अस्सी प्रतिशत से भी ज्यादा फर्जी अखबारों का प्रकाशन तत्काल प्रभावित हो सकता है। इतना ही नहीं फर्जी शपथ-पत्र भरकर जमा करने वाले अखबार मालिक तो दण्डित होंगे ही साथ ही उनका शीर्षक भी विभाग की संस्तुति पर निरस्त किया जा सकता है।

हालांकि यूपीआईडी और डीएवीपी ने विज्ञापन दरें तय करने की गरज से अपनी विज्ञापन नीति में प्रसार संख्या को लेकर सख्त हिदायतें शामिल कर रखी हैं। इसकी जानकारी अखबार मालिकों को भी है लेकिन सुविधा शुल्क के सहारे अपना हित साधने वालों का तथाकथित गिरोह इतना प्रभावशाली है कि दोनों ही विभाग खुली आखों से भ्रष्टाचार को फलता-फूलता निहार रहे हैं। सम्बन्धित विभाग की विज्ञापन नीति में प्रसार संख्या को लेकर स्पष्ट कहा गया है कि जिनका प्रकाशन कम से कम 36 महीनों तक ‘‘कम से कम 2000 प्रतियां प्रतिदिन/सप्ताह/मासिक’’ बिना रूके नियमित रूप से हो रहा होगा उन्हें ही सुविधा का लाभ दिया जायेगा। दैनिक अखबारों की सूची में सैकड़ों की संख्या में ऐसे अखबार हैं जो महीने में दस-पन्द्रह दिन ही प्रकाशित होते हैं। जब डीएवीपी अथवा यूपीआईडी की सूची में नाम सम्मिलित करने का अवसर आता है तब ‘बैक डेट’ में अखबारों की मण्डी चलाने वाले तथाकथित अखबार के थोक व्यापारी उस कोरम को पूरा कर देते हैं। 

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थोक के भाव में छापी जाती हैं बैक डेट में अखबार की फाइलें 

अखबारों की मंडी चलाने वाले एक ही समाचार को सैकड़ों फर्जी समाचार-पत्रों में हेडलाईन बदल-बदल कर लगाते रहते हैं। यहां तक कि सम्पादकीय भी किसी न किसी अखबार की कॉपी की गयी होती है। खामियां डीएवीपी की नियमावली में भी हैं। नियमावली में यह सुविधा दी गयी है कि समाचार-पत्र, पत्रिकाएं वर्ष में सिर्फ दो बार ही पैनल में शामिल होने के लिए आवेदन कर सकती हैं। पहली बार फरवरी के अंत में और दूसरी बार अगस्त के अंत में। फर्जी सर्कुलेशन दर्शाने वाले अखबार कर्मी इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाते हैं। उनके अखबार भले ही महीनों प्रकाशित न होते हों लेकिन जब डीएवीपी में फाईल जमा करनी होती है तब आनन-फानन में अखबार की मंडी के थोक व्यापारी पूरी फाईल तैयार कर देते हैं। 

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डीएवीपी भी इस मामले में लापरवाह है। यदि वह ध्यान से प्रत्येक अखबार की स्क्रीनिंग करे तो अपने आप पूरा फर्जीवाड़ा सामने आ जायेगा। एक ही खबर को सैकड़ों समाचार पत्र में हू-बहू देखा जा सकता है। यूपी के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग के एक कर्मचारी ने लगभग हंसते हुए बताया कि इस बात की जानकारी उनके माध्यम से विभागाध्यक्षों को भी दी जाती रही है। जब बात कार्रवाई करने पर आती है तो वे अधिकारी भी हंस कर टाल देते हैं। इन परिस्थितियों में यदि विभागाध्यक्षों को उनका पोषक माना जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।

डीएवीपी की विज्ञापन नीति-2007 के अनुच्छेद-16 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आवेदन करने वाली पत्र-पत्रिकाओं को प्रसार संख्या के बारे में ए.बी.सी., लागत, लेखाकार/सांविधिक लेखा परीक्षक/चार्टर्ड एकाउंटेंट से प्रमाणित आंकडे़ मानदंड के अनुसार प्रस्तुत करने होंगे। 25 हजार प्रतियों तक प्रकाशित करने वालों को लेखाकार/चार्टर्ड एकाउंटेंट/सांविधिक लेखा परीक्षक का प्रमाण-पत्र और ए.बी.सी. का प्रमाण-पत्र जमा करना होता है। 25 हजार से लेकर 75 हजार तक प्रतियां प्रकाशित करने वाले अखबार मालिकों के निर्धारित प्रपत्र में सांविधिक लेखा परीक्षक का प्रमाण-पत्र और ए.बी.सी. का प्रमाण-पत्र जमा करना आवश्यक होता है। 75 हजार से अधिक प्रतियां प्रकाशित करने वालों के लिए ए.बी.सी. और आर.एन.आई के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता होती है। 

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फर्जी तरीके से प्रसार संख्या दर्शाने के लिए तय है फीस 

खास बात यह है कि इन नियमों की पूर्ति करने वाले गिने-चुने अखबार ही हैं जबकि सर्कुलेशन के आधार पर पैनल में हजारों की संख्या में अखबार पंजीकृत हैं। इन अखबारों के पास न तो ए.बी.सी. का प्रमाण-पत्र है और न ही अन्य सम्बन्धित दस्तावेज। जानकर हैरत होगी कि इस व्यवस्था के लिए भी ऐसे लोग हरदम तैयार रहते हैं। फर्जी तरीके से प्रसार संख्या दर्शाने के लिए बकायदा फीस तय है। वकील और सी.ए. निर्धारित फीस लेकर घर बैठे ही सारा काम कर देते हैं। अखबार मालिक का काम सिर्फ इतना रहता है कि वह दिल्ली जाकर डी.ए.वी.पी. में सम्बन्धित अधिकारी/कर्मचारी को चढ़ावा चढ़ाकर रिपोर्ट अपने पक्ष में लिखवा ले ताकि उसे वर्ष भर फर्जी तरीके से दर्शाए गए भारी-भरकम सर्कुलेशन के आधार पर विज्ञापन मिल सके। यदि कोई अखबार मालिक दिल्ली जाकर यह काम करने में अक्षम है तो इस काम के लिए भी राजधानी लखनऊ में मीडिया के बाजारों में थोक व्यापारी उपलब्ध हैं। 

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वे आप से दिल्ली आने-जाने का किराया लेने के साथ ही डी.ए.वी.पी. में सुविधा शुल्क की रकम लेकर आपका काम पूरा कर देंगे। राजधानी लखनऊ में ऐसे दलालों को भरमार है। ये दलाल अपनी मंडी में तो चर्चित हैं ही साथ ही एनेक्सी के मीडिया सेंटर से लेकर विधानसभा के मीडिया सेंटर और जीपीओ स्थित मीडिया सेंटर में भी लगभग रोजाना अपना शिकार तलाशते नजर आ जायेंगे। सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग परिसर से लेकर जिला सूचना कार्यालय में भी ये दलाल नजर आते हैं। कुछ तो रोजाना सूचना विभाग के साईकिल/स्कूटर स्टैण्ड पर नजर आते हैं। ये खुद तो शिकार तलाशते ही हैं साथ ही सूचना विभाग के कुछ कर्मचारी भी फर्जी सर्कुलेशन दिखाने वाले अखबार कर्मियों के लिए इन्हें ही चिन्हित करते हैं। यहां तक कि सूचना विभाग के जिन कर्मचारियों के अपने अखबार प्रकाशित होते हैं वे भी इन्हीं दलालों की मदद से अखबार और पत्र/पत्रिकाओं के फर्जी सर्कुलेशन के  लिए इन्हीं दलालों का दामन थामते हैं।

जिंदा मक्‍खी निगल रहा है डीएवीपी 

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अनुच्छेद-18 में डी.ए.वी.पी. को यह अधिकार दिया गया है कि यदि कोई समाचार-पत्र/पत्रिका का मालिक अपने दस्तावेजों में झूठा शपथ-पत्र जमा करता है या झूठी सूचना देता है तो उसके समाचार-पत्र/पत्रिका को तत्काल प्रभाव से न सिर्फ सूची से हटा सकता है बल्कि शीर्षक भी निरस्त करने की संस्तुति कर सकता है। इसके बावजूद डी.ए.वी.पी. तो जिन्दा मक्खी निगल ही रहा है साथ ही उत्तर-प्रदेश का सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग निदेशालय भी सब कुछ जानते हुए भी मौन है और ऐसे लोगों के लिए संजीवनी बना हुआ है जो पत्रकारिता की गरिमा और उसके उद्देश्य को छिन्न-भिन्न करने में तुले हैं।

लखनऊ के इन अखबारों ने फर्जी सर्कुलेशन दिखाकर हड़पे लाखों 

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सिर्फ लखनऊ मंडल में ही हजारों की संख्या में हिन्दी-उर्दू समाचार-पत्र ऐसे हैं जो फाईलों और कागजों तक ही सीमित हैं लेकिन डीएवीपी और यूपीआईडी से विज्ञापन लेने के लिए ऐसे लोगों ने प्रसार संख्या 25 हजार से लेकर डेढ़ लाख-दो लाख तक दर्शा रखी है। ऐसे अखबारों की सूची में कुछ ऐसे प्रतिष्ठित अखबार भी हैं जो समय की मार के चलते अपना अस्तित्व खो चुके हैं। वर्तमान में इन अखबारों की स्थिति अत्यंत दयनीय बनी हुई है। कर्मचारियों को वेतन के वेतन के लाले हैं लेकिन सर्कुलेशन लाखों में दिखा रहे हैं। राजधानी लखनउ से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘स्वतंत्र भारत’ आज बंदी की कगार पर है लेकिन कागजों में इसका सर्कुलेशन 70 हजार से भी अधिक दिखाया जा रहा है। स्वतंत्र भारत की गिनी-चुनी प्रतियां ही राजधानी लखनऊ मे नजर आती हैं। कर्मचारी वेतन न मिलने की दशा में दूसरे अखबारों की शरण में जा रहे हैं। 

कमोबेश यही हाल दैनिक समाचार-पत्र ‘आज’ का भी है। इस अखबार ने सिर्फ लखनउ में ही अपना सर्कुलेशन लगभग 60 हजार दर्शा रखा है। इस अखबार ने वाराणसी से अपनी प्रसार संख्या दो लाख से ज्यादा दर्शा रखी है। डीएवीपी से इस अखबार की विज्ञापन दर सर्वाधिक 61 रूपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर से भी ज्यादा है। इसी तरह से अन्य दूसरे मंडलों से भी इस अखबार ने अपना सर्कुलेशन लाखों में दर्शा रखा है। हकीकत यह है कि राजधानी लखनऊ में ‘दैनिक आज’ की प्रतियां दो हजार का आंकड़ा भी पार नहीं कर पा रही हैं।

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जिस अखबार ‘दैनिक आज’ में नौकरी पाने के लिए दिग्गज पत्रकार लाईन लगाए खड़े रहते थे वही अखबार कार्यालय आज सन्नाटे में हैं। कर्मचारियों से लेकर पत्रकारों तक को वेतन नहीं मिल पा रहा है। लिहाजा वरिष्ठ पत्रकारों ने तो इस अखबार से किनारा कर ही लिया है साथ ही नए पत्रकार भी इस अखबार के कार्यालयों में जाना पसन्द नहीं करते। इसके बावजूद कागजों में इस अखबार ने अपनी प्रसार संख्या लाखों में दर्शाकर सरकारी धन की लूट मचा रखी है। ऐसा नहीं है कि डीएवीपी कभी प्रतिष्ठित रहे इन अखबारों की माली हालत से परिचित नहीं है, इसके बावजूद विभाग की कृपादृष्टि कहीं न कहीं भ्रष्टाचार को अवश्य उजागर करती है।

किसी समय राजधानी लखनऊ और रायबरेली में प्रतिष्ठित रहे ‘लखनउ मेल’ की हालत और भी दयनीय है। स्टाफ के नाम पर लखनउ में सिर्फ एक ही कर्मचारी है, जो खबर लिखने से लेकर संशोधन करने और पू्रफ रीडिंग से लेकर पेज का ले-आउट तैयार करने तक का काम करता है। इस दैनिक समाचार-पत्र के लिए वह समाचारों का संकलन कैसे करता होगा ? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। जाहिर है अखबार के लिए इंटरनेट के माध्यम से दूसरे अखबारों की खबरे कॉपी की जाती हैं। इस अखबार के मालिकानों ने रायबरेली में अपनी प्रसार संख्या 26 हजार से भी ज्यादा दर्शा रखी है।

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लखनऊ में इसकी प्रसार संख्या 21 हजार से भी अधिक है। रायबरेली से पंजीकृत इस अखबार का डीएवीपी दर 14 रूपए 39 पैसा प्रति वर्ग सेंटीमीटर है जबकि लखनउ मे यूपीआईडी इसकी दर 11 रूपए 34 पैसे निर्धारित है। सच्चाई यह है कि इस अखबार की कुछ सौ प्रतियां रायबरेली जाती हैं जबकि लखनउ में इसकी प्रतियां सिर्फ फाईलों तक ही सिमटी हुई हैं। ये अखबार न तो स्टॉलों पर नजर आता है और न ही घरों में जाता है। इस अखबार का प्रकाशक परिवार लगभग दर्जन भर अन्य दैनिक अखबार भी प्रकाशित करता है। जिसमें समाचार ज्योति, आज की रिपोर्ट भी शामिल है। 

अमृत विचार का सर्कुलेशन 26 हजार 6 सौ 43 दर्शाया जाता है। हकीकत यह है कि प्रथम तो यह अखबार सीट ऑफसेट और लीथो मशीन पर छपता है। इस लिहाज से इसका सर्कुलेशन तकनीकी आधार पर ही पूरी तरह से फर्जी है। द्वितीय इस अखबार को सिर्फ सूचना विभाग की फाईलों में ही देखा जा सकता है। इस अखबार की प्रतियां भी न तो स्टॉलों पर नजर आती हैं और न ही राजधानी लखनउ और जनपद रायबरेली की आम जनता के घरों में नजर आती हैं। फर्जी सर्कुलेशन के आधार पर अमृत विचार की विज्ञापन दरें 14 रूपए 39 पैसे निर्धारित की गयी हैं।

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इसी तरह से इन्हीं गुप्ता बंधुओं का एक अन्य प्रकाशन ‘आज की रिपोर्ट’ भी है। यह अखबार सांध्य दैनिक के रूप में पंजीकृत हैं। इस अखबार की प्रतियां अपने पंजीकरण के समय से लेकर आज तक भले ही किसी को नजर न आयीं हो लेकिन कागजो में इसकी प्रसार संख्या 20 हजार से भी उपर है। यूपीआईडी से इस अखबार की विज्ञापन दरें 11 रूपए 34 पैसे तय है। सूचना विभाग के अधिकारी भी इस अखबार को सिर्फ फाईलों तक ही मानते हैं लेकिन उच्चाधिकारियों के निर्देश पर इसके सर्कुलेशन के आधार पर रेट तय करना उनकी मजबूरी है। यह अखबार आज तक कभी भी बाजारों अथवा घरों में नजर नहीं आया। 

गौरतलब है कि ज्यादातर सांध्य दैनिक समाचार पत्र हॉकरों के जरिए बाजारों और चौराहों पर हेडलाईन चिल्ला-चिल्लाकर बेजे जाते हैं। 20 हजार से भी ज्यादा का सर्कुलेशन दिखाने वाले इस अखबार को उन्हीं के साथियों ने आज तक नहीं देखा है। जानकार सूत्रों की मानें तो इन अखबारों की ब्रदर्स एण्ड कम्पनी ने दर्जनों की संख्या में अखबारों का पंजीकरण करा रखा है। सूचना विभाग से लेकर उच्च पदस्थ अधिकारियों के बीच इनकी गहरी पैठ से इन्हें काफी लाभ मिलता रहा है। आज की रिपोर्ट और समाचार ज्योति सहित दर्जन भर अखबार के मालिक अरविन्द गुप्ता को भले ही अपने अखबार में समाचार लिखने की आवश्यकता न हो लेकिन इन्हें रोजाना मुख्यमंत्री कार्यालय एनेक्सी भवन के मीडिया सेंटर में जरूर देखा जा सकता है। आरोप है कि श्री गुप्ता सिर्फ विज्ञापन संकलन के लिए ही अधिकारियों की चौखटों पर दस्तक देने के लिए एनेक्सी और विधानसभा में मंडराते रहते हैं।

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लखनऊ मंडल के उन्नाव जनपद से प्रकाशित एक दैनिक समाचार-पत्र ‘उन्नाव टाईम्स’ के मालिक ने अखबार की प्रसार संख्या 22 हजार से भी ज्यादा दिखा रखी है। जबकि यह अखबार न तो उन्नाव में कहीं नजर आता है और न ही राजधानी लखनउ के स्टॉलों पर। सूचना विभाग की फाईलों में जरूर इसे देखा जा सकता है और वह भी दो-तीन महीनों में एक बार। बताया जाता है कि अखबार मालिक दो-तीन महीनों में बैक डेट से अखबार की फाईल बनवाकर विभाग में जमा करवा देता है। इसी आधार पर इस अखबार का डीएवीपी दर भी तय किया जा चुका है। यह सच्चाई सूचना विभाग से लेकर डीएवीपी में बैठे कर्मचारी भी भलीभांति जानते हैं फिर भी इन सबकी चुप्पी भ्रष्टाचार मे संलिप्त होने की ओर साफ इशारा कर रही है। 

उन्नाव जनपद से ही प्रकाशित हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘वृतांत’ ने तो अपनी प्रसार संख्या 48 हजार से भी ज्यादा दिखा रखी है। इस डीएवीपी दर प्रतिष्ठित दैनिक समाचार-पत्रों के समतुल्य है। डीएवीपी ने प्रसार संख्या के आधार पर इस अखबार का विज्ञापन दर 20 रूपए 19 पैसे दे रखा है। लखनऊ से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र उर्जा टाईम्स का कागजों पर सर्कुलेशन 30 हजार से भी ज्यादा है। यह अखबार कभी-कभार ही छपता है इसके बावजूद सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय के रजिस्टर में इसे नियमित दर्शाया जा रहा है। फर्जी सर्कुलेशन के आधार पर ही डीएवीपी ने इस अखबार की विज्ञापन दर 14 रूपए से भी ज्यादा दे रखी है। 

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दैनिक समाचार-पत्रों की सूची में शामिल स्वतंत्र चेतना का सर्कुलेशन कागजों पर 71 हजार से भी ज्यादा है। साथ ही इसके सांध्य संस्करण का सर्कुलेशन 67 हजार 500 प्रतियां प्रतिदिन है। इस अखबार की माली हालत भी ठीक नहीं है। संवाददाताओं को अल्प वेतन में गुजारा करना पड़ता है। इस समाचार-पत्र के ही एक संवाददाता की मानें तो बमुश्किल दो हजार प्रतियां ही रोजाना छपती हैं। वैसे भी यदि एक अखबार के प्रकाशन की न्यूनतम कीमत का आंकलन किया जाए तो ‘स्वतंत्र चेतना और चेतना विचारधारा’ जैसा अखबार छापने में प्रति अखबार सात से आठ रूपए के बीच खर्चा आता है। इस हिसाब से यदि एक लाख प्रतियां प्रतिदिन सर्कुलेशन की भी मान ली जाएं तो इस अखबार का रोजाना का खर्चा सात से आठ लाख रूपए प्रतिदिन है। जबकि स्टॉफ का खर्चा इसमें सम्मिलित नहीं है। इस तरह से सिर्फ छपाई का खर्चा ही प्रतिमाह तकरीबन ढाई करोड़ आता है। पूरे वर्ष का खर्च लगभग तीस करोड़ का है। 

यदि स्टॉफ का खर्चा भी इसमें जोड़ लिया जाए तो कम से कम एक दैनिक अखबार के लिए चार संवाददाता, दस से बारह संवाद-सूत्र, कम से कम दो कैमरामैन, आधा दर्जन उप संपादक, कम्प्यूटर ऑपरेटर सहित अन्य स्टॉफ की भी जरूरत पड़ती है। यदि स्टॉफ का न्यूनतम खर्चा एक लाख रूपए प्रतिमाह मान लिया जाए तो वर्ष भर में बारह लाख रूपया तो यह अखबार अपने स्टॉफ पर ही खर्च कर देता है। इस तरह से वह अखबार जो गिनी-चुनी संख्या में ही बाजारों में नजर आता है उसका सालाना बजट 30 से 32 करोड़ के बीच है। प्राईवेट विज्ञापनों की संख्या लगभग न के बराबर होती है। इन परिस्थितियों में मसालों का बिजनेस करने वाला बिना किसी लाभ के 30 से 32 करोड़ रूपया कैसे व्यय कर सकता है ? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। जाहिर है यह अखबार भी फर्जी सर्कुलेशन दिखाकर अपना हित साध रहा है।

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स्वरूप केमिकल्स बनाने वालों ने भी सत्ताधारियों के बीच सम्पर्क साधने की गरज से एक दैनिक समाचार-पत्र ‘राष्ट्ीय स्वरूप’ का प्रकाशन शुरू किया था। शुरूआती दौर में जोर-शोर से चलने वाला यह समाचार-पत्र वर्तमान समय में बंदी की कगार पर है। जानकार सूत्रों की मानें तो वर्तमान समय में इस अखबार की प्रतियांे का सकुलेशन हजार का आंकड़ा भी पार नहीं कर पा रहा है इसके बावजूद कागजों में इस अखबार का सर्कुलेशन 68 हजार प्रतिदिन से भी ज्यादा है। यूपीआईडी ने इसके विज्ञापन की दर 23 रूपए 90 पैसे कर रखी है। स्टॉफ के नाम पर इस अखबार में गिने-चुने लोग ही नजर आते हैं। 

एक समय प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में शुमार रहे ‘दि पायनियर’ की माली हालत भी अत्यंत दयनीय है। इसके बावजूद कागजों में इसका सर्कुलेशन 75 हजार प्रतिदिन दर्शाया जाता है। यूपीआईडी ने इसकी विज्ञापन दरें 23 रूपए से भी ज्यादा कर रखी है। हालांकि ‘दि पायनियर’ की खस्ता हालत के बारे में सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय के कर्मचारियों से लेकर अधिकारी तक सभी वाकिफ हैं फिर भी आंख मूंद कर उसके फर्जी सर्कुलेशन पर वे मुहर लगाते चले आ रहे हैं। विभाग ने एक बार भी फर्जी सर्कुलेशन के बारे में समाचार-पत्र से जवाब-तलब नहीं किया। इस सम्बन्ध में सूचना विभाग के ही कर्मचारियों का कहना है कि जब दो पन्ने के अखबार 50 से 70 हजार का सर्कुलेशन दिखा-दिखा कर मलाई चाट रहे हैं तो कम से कम इस समाचार-पत्र पर तो उंगली नहीं उठनी चाहिए। आखिर फर्जी सर्कुलेशन दिखाने वाले ‘दि पायनियर’ पर उंगली क्यों नहीं उठानी चाहिए ? इस सवाल का जवाब सूचना निदेशालय के अधिकारियों के पास भी नहीं है।

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उर्दू दैनिक समाचार-पत्र तो हिन्दी दैनिक समाचार-पत्रों के सर्कुलेशन को भी पीछे छोड़ चुके हैं। हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र के मुकाबले अधिक विज्ञापन दर मिलने के कारण इन अखबारों ने अपने शुरूआती दौर में ही अखबार का सर्कुलेशन इतना अधिक दर्शा रखा है कि उस पर यकीन करना असम्भव सा प्रतीत होने लगता है। जहां एक ओर उर्दू दैनिक ‘सहाफत’ ने अपना सर्कुलेशन लगभग 67 हजार प्रतिदिन दर्शा रखा है वहीं दूसरी ओर इन दिनों का सर्कुलेशन 72 हजार से भी ज्यादा दिखाया गया है। ‘अवध की पुकार’ भी फर्जी सर्कुलेशन की दौड़ में शामिल होकर अपना सर्कुलेशन 56 हजार से भी ज्यादा दिखा रहा है। ‘सहाफत’ का डीएवीपी दर 23 रूपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रति कॉलम है तो दूसरी ओर ‘अवध की पुकार’ और ‘इन दिनों’ को यूपीआईडी ने 20 से 23 रूपए की दरें घोषित कर रखी है। 

लखनऊ से प्रकाशित उर्दू दैनिक समाचार-पत्र ‘एक दाम’ लखनऊ में ही कहीं नजर नहीं आता लेकिन इसका सर्कुलेशन 71 हजार प्रतिदिन से भी ज्यादा है। यूपीआईडी ने भी इसके सर्कुलेशन पर अपनी सहमति की मुहर लगाते हुए इसकी विज्ञापन दर 23 रूपए से भी ज्यादा तय कर रखी है। फर्जी सर्कुलेशन के मामले में राष्‍ट्रीय सहारा का उर्दू संस्करण भी पीछे नहीं है। भले ही इसकी प्रतियां लखनऊ में 3 से 5 हजार ही छपती हों लेकिन इसने अपना सर्कुलेशन 33 हजार से भी ज्यादा का दिखा रखा है। यूपीआईडी ने प्रसार संख्या के आधार पर इसकी विज्ञापन दरें भी तय कर रखी हैं। एक अन्य उर्दू दैनिक समाचार-पत्र वारिस-ए-अवध ने अपनी प्रसार संख्या 55 हजार से भी ज्यादा दिखा रखी है, जबकि यह अखबार लखनऊ में ही कहीं नजर नहीं आता। 

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सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय के सम्बन्धित अधिकारियों ने इसके फर्जी सर्कुलेशन पर अपनी सहमति की मुहर लगा रखी है। डीएवीपी में इसकी विज्ञापन दर 20 रूपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर से भी ज्यादा है। एक वरिष्ठ पत्रकार प्रभात त्रिपाठी के समाचार-पत्र ‘समाजवाद का उदय’ सिर्फ फाईल कॉपी तक ही सिमटा है इसके बावजूद सूचना विभाग में इसका सर्कुलेशन 62 हजार से भी ज्यादा है। श्री त्रिपाठी जिस मशीन में अपना अखबार छापते हैं उसकी क्षमता ही 5 हजार कॉपियां प्रतिदिन से ज्यादा की नहीं है इसके बावजूद सूचना विभाग के अधिकारी श्री त्रिपाठी के इस फर्जीवाडे़ पर सहमत है। जानकारी के अनुसार श्री त्रिपाठी का एक और दैनिक समाचार-पत्र ‘प्रभात केसरी’ भी लखनऊ से प्रकाशित दर्शाया जा रहा है।

एक स्कूल के संचालक अपना दैनिक अखबार ‘अपना अखबार’ के नाम से प्रकाशित करते हैं। इस अखबार की चंद प्रतियां ही उनके करीबी और जान-पहचान वालों के पास निःशुल्क भेजी जाती हैं लेकिन कागजों में इस अखबार का सर्कुलेशन 66 हजार से भी ज्यादा है। सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय के सम्बन्धित अधिकारियों ने भी इसके फर्जी सर्कुलेशन को सही मानते हुए अपनी सहमति की मुहर लगा रखी है। यूपीआईडी में इस अखबार की विज्ञापन दरें 23 रूपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर/कॉलम निर्धारित है।

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जनपद रायबरेली से अपना प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘आनन्द टाइम्स’ ने अपनी प्रसार संख्या 35 हजार से भी ज्यादा दर्शा रखी है। विज्ञापन के लिए इसका विभागीय दर 17 रूपए से भी ज्यादा निर्धारित है। रायबरेली से ही प्रकाशित ‘लोहिया क्रांति’ की प्रसार संख्या 28 हजार से भी जयादा है। डी.ए.वी.पी. ने इसकी विज्ञापन दर 14 रूपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर से भी ज्यादा कर रखी है। इस अखबार को रायबरेली में भले ही किसी ने न देखा हो लेकिन सूचना विभाग की फाईलों में इसे जरूर देखा जा सकता है। इसी तरह से रायबरेली से अपना प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले रॉयल न्यूज ऑफ राजधानी, रोशन लहरी, सूचना संसार, विचार सूचक जैसे समाचार-पत्रों ने अपनी प्रसार संख्या 18 से 28 हजार तक दर्शा रखी है। सच तो यह है कि इनमें से कई अखबार तो सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में भी नियमित जमा नहीं होते इसके बावजूद इन अखबारों के मुद्रक, प्रकाशक जमकर सरकारी विज्ञापन की आड़ में सरकारी खजाने को सेंध लगा रहे हैं। विडम्बना यह है कि प्रदेश सरकारें भी सब कुछ जानते हुए चुप्पी साधे बैठी हैं।

राजधानी लखनऊ को अपना प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘ग्रामीण सहारा’ ने अपनी प्रसार संख्या 55 हजार से भी ज्यादा दर्शा रखी है। ग्रामीण सहारा की नौकरी छोड़ चुके एक संवाददाता की मानें तो यह अखबार दो हजार की संख्या में भी अखबार नहीं छपवाता है। इस अखबार के मालिकानों से डी.ए.वी.पी. से अपने अखबार की विज्ञापन दरें 20 रूपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर से भी ज्यादा कैसे करवा रखी है ? इसका जवाब सूचना विभाग की निरीक्षा शाखा के पास भी नहीं है। उर्दू दैनिक समाचार-पत्र सहाफत की प्रसार संख्या अद्भुत तरीके से 66 हजार से भी ज्यादा दिखायी जाती है। जानकार सूत्रों के मुताबिक यह अखबार रोजाना दो से चार हजार प्रतियां ही छपवाता है। प्रसार संख्या के आधार पर इस अखबार के विज्ञापन की विभागीय दर 23 रूपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर से भी ज्यादा है। 

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एक अन्य उर्दू दैनिक समाचार-पत्र ‘इन दिनों’ ने तो सहाफत जैसे चर्चित अखबार को भी पीछे छोड़ते हुए अपनी प्रसार संख्या 72 हजार 200 दर्शा रखी है। यह अखबार कभी-कभार स्टॉलों पर तो दिखता है लेकिन घरों में इसकी प्रसार संख्या में न के बराबर है। जानकार पत्रकारों का कहना है कि इस अखबार की प्रतियां बमुश्किल दो हजार से ज्यादा नहीं छपती हैं। इन दोनों अखबारों ने राष्ट्रीय सहारा के उर्दू संस्करण जैसे अखबार को भी काफी पीछे छोड़ दिया है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय सहारा ने अपने उर्दू संस्करण की प्रसार संख्या लगभग 33 हजार दर्शा रखी है।

‘वारिस-ए-अवध नाम का उर्दू दैनिक समाचार-पत्र कागजों में 55 हजार से भी ज्यादा की प्रसार संख्या दर्शाता चला आ रहा है जबकि यह अखबार न तो स्टॉलों पर कहीं नजर आता है और न ही घरों में। न चाय की गुमटियों में यह दिखता है और न ही पान की दुकानों में। फिर भी इस अखबार की प्रसार संख्या 55 हजार से भी ज्यादा है। इस अखबार की विभागीय दर 20 रूपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर से भी ज्यादा है। हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र ‘वकर्स हेराल्ड’ अब कहीं नजर नहीं आता इसके बावजूद सूचना विभाग की सूची में इसकी प्रसार संख्या 57 हजार से भी ज्यादा है।

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राजधानी लखनऊ में अपना प्रकाशन स्थल दर्शाने वाले ‘निष्पक्ष प्रतिदिन’ ने अपनी प्रसार संख्या ‘राष्ट्रीय सहारा’ जैसे अखबार से भी ज्यादा दर्शा रखी है। कागजों में इस अखबार ने अपनी प्रसार संख्या 74 हजार प्रतिदिन से भी ज्यादा दर्शायी है, जबकि हकीकत यह है कि यह अखबार पांच हजार का आंकड़ा भी पार नहीं करता। गौरतलब है कि इस अखबार का पंजीयन तक वर्ष 2005 में निरस्त कर दिया गया था। जानकारी के मुताबिक तत्कालीन सूचना निदेशक बादल चटर्जी ने इस अखबार के फर्जीवाडे़ का खुलासा करते हुए 30 लाख 50 हजार का विज्ञापन गलत तथ्य देकर हासिल करने सम्बन्धी आरोप में स्थानीय हजरतगंज थाने में प्राथमिकी तक दर्ज करायी थी। गलत दस्तावेजों के आधार पर ही 6 फरवरी 2012 में इस अखबार का घोषणा-पत्र भी निरस्त कर दिया गया था। इसी वजह से निष्पक्ष प्रतिदिन का प्रकाशन 6 फरवरी 2012 से 20 जून 2012 तक बंद रहा। 

चौंकाने वाला पहलू यह है कि प्रकाशन बंदी के दौरान भी निष्पक्ष प्रतिदिन के मालिक जगदीश नारायण शुक्ल ने भारत सरकार के डी.ए.वी.पी. विभाग से 12 लाख रूपए के विज्ञापन झटक लिए। उक्त विज्ञापनों का भुगतान भी हो चुका है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक सूचना एवं जनसम्पर्क निदेशालय से यह जानकारी डी.ए.वी.पी. को भी भेज दी गयी थी। इसके बावजूद डी.ए.वी.पी. ने न सिर्फ विज्ञापन जारी किए बल्कि भारी-भरकम भुगतान भी कर दिया। जाहिर है कि अखबार का प्रकाशन बंद होने के बावजूद फर्जी तरीके से विज्ञापन ऐंठने और भुगतान पाने के लिए ‘निष्पक्ष प्रतिदिन’ के मालिक ने कमीशन के रूप में मोटी रकम चुकायी होगी।

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उक्त उदाहरण तो महज बानगी मात्र हैं जबकि हकीकत यह है कि राजधानी लखनऊ से प्रकाशित होने वाले हजारों अखबार ऐसे हैं जो फर्जी प्रसार संख्या दर्शाकर राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के खजाने को लूट रहे हैं। फर्जी सर्कुलेशन को लेकर एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने भी मामले की गंभीरता को परखते हुए सम्बन्धित विभाग को जांच के साथ ही कार्रवाई के सख्त निर्देश दिए हैं। फिलहाल तो यह मामला कोर्ट में है लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता यदि कोर्ट ने फर्जी सर्कुलेशन दर्शाने वाले अखबार कर्मियों के खिलाफ शिकंजा कसा तो निश्चित तौर पर हजारों की संख्या में अखबारों का पंजीकरण निरस्त हो सकता है।

यह आर्टकिल लखनऊ से प्रकाशित दृष्टांत मैग्जीन से साभार लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है. इसके लेखक तेजतर्रार पत्रकार अनूप गुप्ता हैं जो मीडिया और इससे जुड़े मसलों पर बेबाक लेखन करते रहते हैं. वे लखनऊ में रहकर पिछले काफी समय से पत्रकारिता के भीतर मौजूद भ्रष्‍टाचार की पोल खोलते आ रहे हैं.

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0 Comments

  1. Rajkumar

    October 20, 2014 at 5:21 pm

    इस लेख में सचचाई है, लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि पत्रकारिता बची रहे क्योंकि बड़े अखबारों में बाजार के विग्यापन भरे रहते हैं, सबको पता है कि एक अखबार की लागत 8 रू से कम नहीं आता है पर बिकता है 3 से 4 रू जिसमें हाकर, एजेंट को 40 प्रतिशत कमीशन जाता है तथा भाडा में 10 प्रतिशत। कुल मिलाकर 1 या 2 रू बिक्री के बाद मिलता है। आज के सभी बड़े अखबारों के मालिक बड़े कार्पोरेट के हैं, जिनका मिशन अपने हितों की रक्षा करना है, जिसके लिए वे गिफ्ट देकर अखबार के प्रसार बढाते है

    नेहरू जी ने पहले पहले ही समझ लिया था कि समाज के चौथे खंभे को चलाने के लिए सरकारी सहायता जरूरी है इसलिए सरकारी विग्यापन की पॉलिसी बनायी और तत्कालीन अखबारों को सरकारी जमीन दिया, जिससे वे अपने पैरों पर खड़े हो सके।

    हमें छोटे अखबारों को बचाने के लिए तत्पर होना चाहिए, क्योंकि ये ही चौथे खंभे है, कार्पोरेट मालिको के अखबार नहीं। छोटे अखबारों में आज भी पत्रकारिता में जुड़े 75 प्रतिशत ज्यादा लोगों की रोजी रोटी चलती है।
    इसके लिए सरकार नियम बनाए की लागत से कम पर अखबार नहीं बिके। साथ ही सरकारी विग्यापन की पॉलिसी में बदलाव की जरूरत है जिसमें छोटे अखबारों के विग्यापन दर ज्यादा हो

  2. Rajendra prasad

    October 20, 2014 at 6:57 pm

    भाई सौ प्रतिशत सही लिखा गया है लेकिन क्या किया जाए। भाई अनूप जी ने सभी को नंगा कर दियां। खोजी पत्रकारिता के लिए साधूवाद। राजेन्द्र प्रसाद, सम्पादक प्रहरी मिमांसा लखनÅ

  3. mini

    October 21, 2014 at 5:33 am

    Har koe sachai Janta hai….per kya kar sakte hain…. kyu ke jyda tar newspaper Neta logo kee sah per chal rahe hain….. aur yeh haal Lucknow kaa hee nahee… pure desh kaa hai…..

  4. abhishek

    October 21, 2014 at 2:53 pm

    actuly good news . but we dont chenge them because a good strenth sistem work with them . we dont laeve them .

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