Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रिंट

संपादक बनकर दिल्ली आया तो एक साधारण रिपोर्टर की तरह सड़कों को नापा!

सुधीर मिश्रा-

क जनवरी 2022 को मेरा ट्रांसफर दिल्ली हुआ था। मई तक लखनऊ, दिल्ली और एनसीआर तीनों देखता रहा। फिर आखिरकार पूरी तरह से दिल्ली आकर बस गया। पचास पार की उम्र में दिल्ली जैसे शहर में बैचलर लाइफ जीना आसान नहीं होता।

बस एक बात थी जिसने मुझे लखनऊ छोड़ने के लिए तैयार किया, वो थी कंफर्ट जोन। लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम्स में मैंने सीखा था कि जब आप को आप का वर्क प्लेस कंफर्ट जोन लगने लगे तो फिर समझ लीजिए कि अब बदलाव जरूरी है। लगातार करीब दस साल तक एक शहर में संपादक रहने से आप को दृष्टि भ्रम होने लगते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

खास तरह के लोग, खास किस्म की बनावट, नकलीपन और स्वार्थ आप के इर्दगिर्द ऐसा मायाजाल बुनते हैं कि आप उसे ही सच मानने लगते हैं। इस बात को सबसे पहले मैने 2010 में महसूस किया था। तब मैं पहली बार भारत पाकिस्तान बॉर्डर के श्री गंगा नगर शहर में संपादक बन कर गया। कुछ ही समय में महसूस किया कि एक मायाजाल से बाहर निकल आया हूं। तीन साल बाद फिर नवभारत टाइम्स का संपादक बनकर लखनऊ आया तो काफ़ी परिपक्व हो चुका था। समझ आ चुका था कि कुर्सी या पद की वजह से जो आभामंडल आप के इर्द गिर्द नजर आता है, वह झूठ है। इसलिए पेशेवर सोच रखना जरूरी है।

करीब दस साल जमकर काम किया और जिस वक्त ऊब सी लगने लगी थी, तभी दिल्ली जाने का अवसर कंपनी ने दिया और मैंने नए संघर्ष के लिए खुद को तत्काल तैयार किया। इस बार कुछ प्रयोग मुझे खुद पर करने थे। बिलकुल एक रिपोर्टर वाली साधारण जीवन शैली का वरण करना। न अपना घर, न परिवार और न ही कार। दिल्ली में तमाम सलाहों के बाद भी न तो नई गाड़ी ली और न ही फ्लैट लेने का खयाल आया। जब जिंदगी ही सफ़र है तो इनकी जरूरत भी काम भर ही होनी चाहिए।

Advertisement. Scroll to continue reading.

ऑटो, मेट्रो, टेंपो, बस, ई रिक्शा और पैदल दिल्ली एनसीआर की सड़कों को नापा। दिल्ली को महसूस करना शुरू किया। यहां के गुरद्वारे, मंदिर और ऐतिहासिक जगहों को देखा जाना। मेरा किराए वाला फ्लैट मेरी सबसे पसंदीदा जगह बनी। अकेलेपन में एकांत की खूबसूरती को महसूस किया। कुछ ऐसे दोस्त मिले जिन्होंने मेरे अकेलेपन को कम करने के लिए समय समय पर अपना कीमती वक्त निकाला। कभी महसूस नहीं होने दिया कि मैं अकेला हूं। फिर जब बहुत अकेलापन लगे तो बेटी नंदिका बेनेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर ही रही थी। उसके साथ वक्त बिता लिया कभी कभी।

ऐसे वक्त में जब काफी लोग दफ्तर के माहौल में घुली सियासत में घुटन महसूस होती है, मुझे ऐसा कुछ नहीं झेलना पड़ा। मेरे लिए एक एकदम नई टीम जो पहले मेरे आने से सशंकित सी थी, वो कुछ ही दिनों में एकदम अपनी हो गई। सिर्फ टीम ही नहीं, रास्ते भी। मैने घर से ऑफिस के रास्तों से दोस्ती कर ली। मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियां मेरी कैलोरी बर्न का जरियां थीं। बीस रुपए में सात किलोमीटर दूर स्टेशन पहुंचाने वाली ऑटो के साथी यात्रियों की बातचीत दिल दिमाग की खुराक थी। आम लोगों के दुख, तकलीफ और खुशियों को करीब से महसूस कराती थी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

दिल्ली मेट्रो की सवारी तो दिल्ली की जीवन रेखा को समझने का सबसे बढ़िया टूल रहा। मेट्रो की भीड़ में असली दिल्ली दिखती थी। जहां आप भीड़ में भी एकदम तन्हा होते हैं। आप बिंदास फोन पर बात करते हुए रो सकते हो, हंस सकते हो और लड़ सकते हो। किसी को किसी से कोई मतलब नहीं। यहां समझ आता है कि मेट्रो सिटी में थोड़ा बेमुरव्वत हुए बिना आप सर्वाइव नहीं कर सकते। कोई मतलब नहीं होता यहां किसी को किसी से और यहां ज्यादातर दिल्ली बेदिल सी हो जाती है। इस शहर में आने और लखनऊ को छोड़ने ने बहुत कुछ सिखाया।

नेटवर्किंग के लिहाज से दिल्ली के दो साल बहुत महत्वपूर्ण रहे। देश की राजधानी में बढ़िया दखल रखने वाले महत्वपूर्ण लोग अब सिर्फ एक कॉल की दूरी पर हैं। दोबारा लखनऊ का संपादक बनने पर यह अनुभव और नेटवर्क बहुत काम आने वाला है। दिल्ली भी अब कंफर्ट जोन लगने लगी थी, इसलिए वापसी करना अच्छा ही है। अब दिल्ली एनसीआर में मेरे पास ऐसे अपने हैं जिनको मेरी पोस्ट और प्रोफाइल से प्यार नहीं है। वो मेरे अपने हैं, ठीक उन कुछ खास लोगों की तरह जो लखनऊ, श्रीगंगानगर, उदयपुर, जयपुर, भोपाल, रांची, मुंबई, कोहिमा, श्री नगर, गौहाटी, चंडीगढ़ और केरल में हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

करियर की यात्रा का पड़ाव एक बार फिर लखनऊ है। आगे बढ़ने और समझदारी बढ़ाने के लिए घर, गांव, कस्बा और अपना शहर छोड़कर निकलना जरूरी है पर पड़ाव बदलते रहने चाहिए, यात्रा चलती रहनी चाहिए। और हां चलते चलते एक बात और। जिसको जब मौका मिले दिल्ली छोड़ कहीं ऐसी जगह जिंदगी बिताने के बारे में सोचना चाहिए जहां थोड़ी बेहतर सांसें और ऑक्सीजन मिले। यह शहर स्लो पॉयजन है, जिसे आप जिंदगी समझने लगते हैं। आप को यहां अच्छे लोग मिल सकते हैं, पर सांसे खराब ही मिलेंगी…यह तय है।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement