: मुख्यमंत्री जी. पहाड़ों के पत्र और पत्रकारों की दुर्दशा आपको नहीं दिखती क्या? : उत्तराखण्ड के एक साप्ताहिक पत्र संपादक का एक अखबार में स्टिंगर बनने की खबर उनके अपने लिए कितनी कष्टदायी होगी, जो हमें कष्ट भी दे रही है। सब परिचित हैं कि प्रिंट मीडिया में संपादक का पद सबसे बड़ाा और स्टिंगर सबसे छोटा पद है। किसी भी पत्रकार की स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह संपादक बने। वे मित्र भी लम्बे समय तक संपादक की बेताज कुर्सी संभालकर ऐसे अखबार की स्टिंगरी स्वीकार करने को बाध्य हुए जो अखबार उत्तराखण्ड के स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं को निगलने वाले अजगर हैं।
केवल यही उदाहरण नहीं है। एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक ने जब कहा- ”समाचार पत्र की 38 वीं वर्षगांठ के बाद शायद ही पत्र निकाल सकूं”, सुन कर मन व्यथित हुआ। जिन महानुभाव ने पूरा जीवन पत्र और पत्रकारिता को समर्पित कर दिया वो कितने दुख से ये कह रहे होंगे कि भाई अब नहीं।
हमने पर्वतीय पत्रकार एशोसिएशन अध्यक्ष रहते प्रत्येक मुख्यमंत्री को पर्वतीय क्षेत्रों की विषम भौगोलिक परिस्थितियों का हवाला देते हुए पर्वतीय क्षेत्रों से निकलने वाले पत्र-पत्रिकाओं व यहां कार्यरत पत्रकारों के लिए अलग प्रेस नीति बनाने की मांग के ज्ञापन दिए। अफसोस कि किसी भी मुख्य मंत्री ने उन्हें पढने और तद्नुसार कार्यवाही करने के बजाय सूचना निदेशालय को भेज देते और सूचना निदेशालय से नीीत नही है कि टिप्पणी का पत्र आ जाता।
हर कोई मंत्री अफसर के लिए देहरादून से निकलने वाले वे अखबार ही मीडिया हैं जिनके जिला संस्करणों ने उत्तराखण्ड की खबरों को बांट दिया है। एक जिले की खबर दूसरे में नहीं है और सरकार की नीति बनाने से लेकर कार्यवाही तक का ठेका उन्हीं का है। एक संपादक को स्टिंगरी क्यों स्वीकारनी पड़ रही है? 40-45 साल के पत्रकार को 38 साल बाद अपने पत्र केा स्थगित करने के बारे में क्यों सोचना पड रहा है?
मुख्यमंत्री जी सीधा सवाल आपसे है- आप स्वयं को उत्तराखण्ड का धुरंधर राजनैतिज्ञ कहते हैं, नहीं भी कहते हैं तो ऐसा आपके व्यवहार से झलकता है। आप गांव के प्रधान से केन्द्र के मंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गये हैं। आपकी तरक्की पर हमें नाज है। लेकिन बताईए हमारा संपादक स्टींगर बनने को क्यों मजबूर है? प्राण-पण से पत्रकारिता को समर्पित व्यक्ति जब आगे का रास्ता दुरुह देख रहा है तो उसकी राह के कांटे आप नही देख रहे होंगे? ये केवल उदाहरण हैं सारी स्थिति बद से बदतर है, लेकिन आपको दिखाई नहीं देगा।
आप सहित प्रदेश की स्वनामधन्य सरकारों ने पहाड़ और पहाड़ की पीडा को समझा नही है, आप लोग समझाते रहे ऐसी कहानी जिससे पहाड़ उजड़ गये, गांव खाली हो गये, उत्तराखण्ड की पत्र-पत्रिकाएं अतीत की कहानी हो गये, पत्रकार इन भस्मासुरों के बंधुवा हो गये जो आपके लिए मीडिया है। पत्रकार मरता है तो उसका परिवार बेसहारा हो जाता है लेकिन आपको परवाह नहीं है। परिवार मरे या बचे क्योंकि आपने अपने गुणगान के किए देहरादून में भाटों का इंतजाम कर लिया है। अच्छा है, एक सवाल पूछने वाला पत्रकार कम हो गया? उसके परिवार की हालत देख दूसरा भी हिम्मत भी नहीं करेगा। सबक सिखाने जैसी स्थिति है।
रावत साहब! शायद ही आप जबाब देंगे। प्रेस के मामले में पहाड का पत्रकार किसी स्थिति में है ही नही क्यों जिसका वह बधुवा है वह आपका नजदीकी है। जो बधुवा नहीं थे उन्हें आप सरवाइव मौका होने देंगे नहीं। आप उन्हें विज्ञापन नही देंगे, उनके लिखे का कोई नोटिस होगा, उनके पत्रों का कोई जबाव नही होगा तो थका हारा पत्रकार चुप हो जायेगा और कोसेगा उस घडी को जिसने उसे पत्रकारिता में आने का अशुभ लग्न दिया। उत्तराखण्ड के मामले में जिसकी पत्रकारिता अल्मोडा अखवार, गढवाली, कर्मभूमि, युगवाणी, देवभूमि, समाज सहित कई पत्रों की ऐतिहासिक भूमिकाओं से भरी है, उनकी पीढी को पत्रकारिता के कटीले दंश झेलने को मजबूर होना पड़े, ये शायद उत्तराखण्ड के पहाड़ों की किस्मत में ही लिखा है। और, लिखा है उन सरकारों का बोझ जो उन्हें कूड़े-कचड़े के अलावा कुछ समझती नहीं।
लेखक पुरुषोत्तम असनोड़ा उत्तराखंड में लंबे समय तक अमर उजाला अखबार के साथ सक्रिय रहे हैं. वरिष्ठों के प्रति अमर उजाला की उपेक्षात्मक नीतियों से त्रस्त होकर पुरुषोत्तम असनोड़ा ने इस्तीफा दे दिया. आजकल वे स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं और पहाड़ से जुड़े विभिन्न मुद्दों को कई प्लेटफार्म्स पर उठाते रहते हैं.
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D C Yadav
October 14, 2015 at 2:37 am
पहाड़ और पहाड़ के पत्रकार की पीडा को kisi ne समझा hi नही aaj tk, neta to इन भस्मासुरों के बंधुवा हो गये han.
D C Yadav
October 14, 2015 at 2:38 am
bat to sahi ha bhai