संजय कुमार सिंह
आप मानिये या न मानिये, महुआ मोइत्रा के मामले में दम नहीं है। अमूमन ऐसे मामले मीडिया ट्रायल के लिए ही होते हैं और मीडिया में किसी को परेशान-बदनाम करके विजयश्री प्राप्त कर ली जाती है। पीड़ित कोई भी हो सकता है। इस बार महुआ मोइत्रा है। पुराने मामले सब जानते हैं, सबका हश्र देख चुके हैं। किन मामलों में ‘सजा’ हुई और फिर कुछ महीने बाद जमानत मिल गई। मामला वर्षों से लटका है, सबूत होने के दावों के बावजूद उनके फर्जी होने, पेश नहीं किये जाने और स्वीकार नहीं किये जाने जैसे मामले हैं और अभियुक्त चाहे बदनाम हुआ हो या नहीं, सजा नहीं हुई है।
मेरा मानना है कि भारत में यह एक आम समस्या है और जनहित सोचने वाली सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिये। इसमें अदालतों में मामले जल्दी निपटें – यह भी सुनिश्चित करना शामिल है। पर इसके लिए दबाव और माहौल बनाना मीडिया का काम है पर वह मीडिया ट्रायल और चीरहरण में ज्यादा भरोसा करता है। शायद उससे टीआरपी भी मिलती है। और वह दर्शकों पाठकों से जुड़ा मामला है। मीडिया जो दिखाये-बताये आप उसपर यकीन कर लेंगे तो मीडिया वही दिखायेगा जो आप देखते हैं और आप उत्सुकता में देखेंगे तो वह वही दिखायेगा जो उसे दिखाना है। और खेल यहीं है। मैं पुराने मामले छोड़कर सिर्फ महुआ मोइत्रा के मामले की चर्चा करूंगा क्योंकि वही मौजूं है।
महुआ मोइत्रा को कल एथिक्स कमेटी के समक्ष पेश होना था और कल ही सारी दुनिया को पता चल गया कि सवालों से नाराज महुआ तथा विपक्षी दलों ने बायकाट किया। बाद में निशिकांत दुबे ने प्रेस कांफ्रेंस की तो महुआ मोइत्रा ने लोकसभा अध्यक्ष को चिट्ठी लिखी – सब सार्वजनिक है। बहुतों को पता है। आज के समय में अखबारों से खबर कौन पाता है यह सवाल अपनी जगह है फिर भी सैद्धांतिक और जनहित के मुद्धे अखबारों में प्रमुखता न पायें और सरकारी प्रचार को जगह मिले तो चिन्ता की बात है। मुझे लगता है कि महुआ मोइत्रा को एक पार्टी ने, खासकर पुरुषों ने एक मामले में जैसे घेर रखा है उसमें उनका मामला (या उनका पक्ष) बताना सरकार के बारे में लोगों को राय बनाने में मदद करेगा।
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का नारा अगर प्रचारित किया गया तो वास्तविकता को उससे ज्यादा प्रचारित किया जाना चाहिए। पर ऐसा हो नहीं रहा है और अफसोस यह कि सांसद के मामले में भी नहीं हो पा रहा है। मैं जो अखबार देखता हूं उनमें अमर उजाला में यह खबर लीड है, नवोदय टाइम्स में पहले पन्ने पर विज्ञापनों के कारण एक ही खबर है और यह दूसरे पन्ने पर है। अखबार ने दूसरे पन्ने को भी पहले जैसा ही बनाया है और तीसरा पन्ना भी पहले जैसा ही है। इस तरह, कहा जा सकता है कि आज इस अखबार में तीन लीड हैं, यह खबर दूसरे नंबर पर है।
अंग्रेजी अखबारों में कोलकाता के द टेलीग्राफ ने इसे लीड बनाया है जबकि इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर है, हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने से पहले के अधपन्ने पर है, द हिन्दू में भी पहले पन्ने पर है। सिर्फ टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं दिखी। आइए अब शीर्षक और खबर को मिले ट्रीटमेंट की बात करता हूं। अमर उजाला का शीर्षक है, महुआ मामले में आचार समिति बंटी अब बिना किसी को बुलाए सौंपेगी रिपोर्ट। टीएमसी सांसद से पूछताछ के दौरान बैठक में हंगामा, तीखी नोकझोंक के बीच विपक्ष ने किया बहिष्कार। यहां गौरतलब है कि महुआ मोइत्रा पहले बता चुकी हैं कि एथिक्स कमेटी का प्रावधान किसलिये किया गया था और उसने अपना काम नहीं किया है। ना सांसदों के लिए कोई कोड ऑफ कंडक्ट है ना लॉगइन-पासवर्ड शेयर करने से संबंधित कोई नियम है। और साझा करना आम है।
सांसद दानिश अली की शिकायत पर सांसद रमेश विधूड़ी को बुलाया गया था पर वे राजस्थान चुनाव में व्यस्त हैं। महुआ मोइत्रा ने दुर्गा पूजा के कारण चुनाव क्षेत्र में व्यस्त होने के कारण पांच नवंबर के बाद की तारीख मांगी थी तो 2 नवंबर की तारीख दी गई और कल विवाद हो गया और कारण नैतिकता या एथिक्स ही है। लेकिन उसपर फिर कभी। अमर उजाला की खबर के अनुसार, एथिक्स कमेटी के अध्यक्ष विनोद सोनकर ने कहा है कि विवाद खड़ा करने वाले कमेटी को काम नहीं करने देना चाहते हैं …. वे चाहते हैं कि विवाद हो जिससे कार्य प्रभावित हो, मगर ऐसा नहीं होगा। कमेटी अपना काम करेगी और स्पीकर को जल्द रिपोर्ट सौंपेगी। आप समझ सकते हैं कि इस मामले में रिपोर्ट की जल्दी क्यों है और रमेश विधूड़ी को छूट क्यों है। उन्हें मीडिया से भी छूट है।
मेरा मानना है कि भाजपा ने बहुत पहले से अपने लोगों को मीडिया में स्थापित करना शुरू कर दिया था और अब वही लोग कहते हैं कि खिलाफ लिखने वाले को अच्छे काम भी बताना चाहिये, संतुलित होना चाहिए और जो यह सब नहीं करता है वह पक्षकार है जबकि मैं समझता रहा कि पत्रकार को हमेशा कमजोर के साथ रहना चाहिए सरकार के साथ रहने के लिए तो भारतीय सूचना सेवा के लोग और पीआईबी है ही। आपको पता नहीं हो तो बता दूं, पीआईबी के लोगों का प्रशिक्षण अखबारों में भी होता है। पर वह अलग मुद्दा है। अमर उजाला की आज की पूरी खबर एक खास मानसिकता के लोगों द्वारा लिखी और प्रस्तुत की गई लगती है। उदाहरण के लिए, एक शीर्षक है – अध्यक्ष को कहा बेहूदा और बेशर्म। मेरा मानना है कि कोई भी अचानक किसी बेहूदा और बेशर्म नहीं कह देगा। जरूर उससे पहले कुछ बात हुई होगी। खबर में अगर यह बताया जाये तो पाठक को अपनी राय बनाने या शीर्षक पर यकीन करने में सहूलियत होगी। पर यह खबर एक भाजपा नेता और महिला सांसद का आरोप है।
यही नहीं, पूरी खबर में महुआ मोइत्रा पर आरोप ही हैं उनका पक्ष या आरोप या जो कहती रही हैं वह सब नहीं के बराबर है। खबर वाली लाइन में ही अशोभनीय व्यवहार के बोल्ड उपशीर्षक के साथ महुआ मोइत्रा के नाम समेत पूरी बात पांच लाइनों में है। पूरी खबर करीब चार कॉलम में है, दो लाइन के शीर्षक के साथ है। कहने की जरूरत नहीं है यह मामला पूरी तरह उन्हें परेशान करने का है और मीडिया में लीक करके इसे बाकायदा साबित किया जाता रहा है। यह अलग बात है कि भारत की आम महिला अगर निजी तस्वीरें सार्वजनिक किये जाने से ही परेशान हो जाती तो भी महुआ मोइत्रा ने सबका मुकाबला किया है और अपनी बात भी सार्वजनिक तौर पर कहती रही हैं।
इसमें चैनल विशेष के लिए इंटरव्यू मांगने वाले से यह कहना शामिल है कि इंटरव्यू इसी शर्त पर दूंगी कि मुझे हीरे का वह नेकलेस दिया जाए जिसकी तस्वीर आप मेरे नाम के साथ चमकाते रहे हैं। यह इंटरव्यू की कीमत है। जाओ अपने बॉस को शब्दशः कह दो। बाद में उन्होंने इस चैट को खुद ही सार्वजनिक कर दिया। नवोदय टाइम्स की आज की खबर का शीर्षक है, महुआ मोइत्रा का आरोप मुझसे पूछे अनैतिक सवाल। उपशीर्षक है, कैश फॉर क्वेरी मामले में समिति के समक्ष पेश हुईं सांसद। जहां तक नवोदय टाइम्स की खबर का सवाल है उसमें अध्यक्ष के आरोप, शिकायतकर्ता निशिकांत दुबे के आरोप, लोकसभा के अध्यक्ष को लिखे महुआ के पत्र की चर्चा सब अलग-अलग है और कम जगह में ज्यादा संतुलित खबर लगती है।
वैसे महुआ का कहना है कैश यानी जो नकद दिये जाने का आरोप है वह कहां है? कब, कहां, किसने, किसे दिया और क्या सबूत है। यही नहीं, स्वेच्छा से आरोपों के समर्थन में जारी किये गये शपथ पत्र में नकद का जिक्र नहीं है। और कहने की जरूरत नहीं है कि साबित करने का काम देने वाले को करना है, पैसे नहीं मिले हैं यह साबित करने की जरूरत नहीं है। फिर भी मामला चल रहा है और अखबारों तथा मीडिया में इतनी जगह पा रहा है तो इसीलिए कि अदाणी के 20,000 करोड़ और फिर कोयला आयात में 12,000 करोड़ रुपये पर सवाल नहीं उठाये जाएं। ऐप्पल का अलर्ट इसी संदर्भ में हो सकता है और यह कोशिश चल रही हो कि आरोप लगाने के लिए सूचनाएं कौन देता है। अलर्ट में राज्य प्रायोजित महत्वपूर्ण है और उसका संबंध पेगासस से लगता है पर वह सब मीडिया में मुद्दा नहीं है।
द टेलीग्राफ ने अपनी खबर में बताया है कि महुआ ने कहा है कि एथिक्स कमेटी को अपना नाम बदल लेना चाहिए क्योंकि इसमें कोई एथिक्स या नैतिकता नहीं बची रह गई है। कुल मिलाकर, इसमें महुआ का ही पक्ष है और यही होना चाहिए। मीडिया सरकार का साथ देने के लिए नहीं है। सरकार के पास बहुत सारी शक्तियां हैं मीडिया को पीड़ित का साथ देना चाहिये। हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर का शीर्षक है कि एथिक्स पैनल ने मोइत्रा को ग्रिल किया तो विपक्षी सदस्य वाक आउट कर गये। कहने की जरूरत नहीं है कि मामला इतना ही नहीं है। पर स्थान और महत्व की भी बात होती है और यह संपादकीय विवेक व स्वतंत्रता का मामला है। इसमें सरकार का समर्थन नहीं है।
द हिन्दू में यह खबर चार कॉलम में है और शीर्षक है, मोइत्रा अन्य विपक्षी सांसदों ने एथिक्स कमेटी की बैठक का वॉकआउट किया। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर दो कॉलम में है और यह लोकसभा अध्यक्ष को महुआ मोइत्रा के पत्र पर आधारित लगती है और इस तरह कहा जा सकता है कि अखबार ने आरोपों, सुनवाई और पेशी आदि से ज्यादा महत्व कल के वॉकआउट और उसके बाद लोकसभा अध्यक्ष को लिखी गई चिट्ठी को महत्व दिया है और यह भी संपादकीय विवेक का मामला है। इसमें महुआ मोइत्रा का विरोध या सरकार अथवा सरकारी पार्टी का समर्थन नहीं दिख रहा है।