संजय कुमार सिंह-
पुराना है लेकिन हकीकत है
इसमें सबके लिए सामग्री है। कांग्रेस विरोधियों, समर्थकों, परिवार विरोधियों, गांधी विरोधियों, भक्तों, आपियों और आप विरोधियों, संघ समर्थकों, विरोधियों – सबके लिए।
अगर भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति के आगे कांग्रेस नहीं चलेगी तो यही होगा। सबको झाड़ू लगाया जाएगा। वैसे ही जैसे सांप्रदायिक राजनीति होती है। शायद थोड़े अच्छे से या और कुंद तरीके से। साफ-सुथरी अच्छी राजनीति पसंद नहीं है तो लो जो चाहते हो वही। थोड़े अच्छे से। थोड़ा-थोड़ा।
घोषित नौटंकीबाज ही हो, नकली क्यों? राजनीति पसंद नहीं है या एंटायर ज्यादा हो गया तो इंजीनियरिंग, पत्रकारिता, कारोबार है ना …. अगर सुझाव है कि कांग्रेस खत्म हो जाए तो लो आप हैं ना।
अगर एतराज है कि गांधी परिवार अलग हो जाए तो लो विकल्प है ना। अगर वो पप्पू है तो ये पापा है ना। और ये सब कोई सोच समझ कर नहीं कर रहा है। जनता ने कर दिखाया। सिर्फ समझने की बात है।
राकेश कायस्थ-
ऑपरेशन के बिना कांग्रेस का बचना नामुमिकन है… राजनीति कुछ तल्ख सच्चाइयों पर चलती है। सबसे बड़ी सच्चाई ये है कि अगर शीर्ष नेता लगातार नाकाम होता है तो उसका इक़बाल खत्म हो जाता है।
2004 के चुनाव से पहले प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कहा था- आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय की ओर प्रस्थान। मगर भाजपा चुनाव नहीं जीती। आडवाणी को 2009 में दोबारा मौका मिला, मगर वे पीएम इन वेटिंग ही रहे।
नेतृत्व परिवर्तन का सवाल उठा तो सुषमा स्वराज ने बहुचर्चित बयान दिया “हिंदू समाज मे पिता के जीवित होते हुए पगड़ी पुत्र के सिर पर नहीं रखी जाती है। हमारे नेता आडवाणी जी ही रहेंगे।”
मगर पिता के होते हुए 2014 में पगड़ी बदल दी गई। आडवाणी पूरी तरह स्वस्थ थे और चुनाव लड़ रहे थे लेकिन उन्हें किनारे लगाकर नरेंद्र मोदी को पार्टी का नेता बनाया गया। यह इस बात का सबूत था किसी भी गंभीर राजनीतिक दल को भविष्य की तरफ देखना ही पड़ता है।
अगर शीर्ष नेता लगातार नाकाम हो रहा हो तो कोई अनंत काल तक उससे चमत्कार की उम्मीद लगाये नहीं बैठा रह सकता है। मोदी आज बीजेपी के माई-बाप और भगवान इसलिए हैं क्योंकि अपने दम पर चुनाव जिता देते हैं। अगर लगातार कई चुनाव हारे तो यकीनन विकल्प की बात उठेगी।
सोनिया गांधी ने जिस ताकत और इक़बाल के साथ दस साल तक कांग्रेस को चलाया उसके मुकाबले आज पार्टी की स्थिति इस कदर दयनीय है कि यूपी के नतीजे आने के बाद तृणमूल के एक नेता ने ये सुझाव दे डाला कि कांग्रेस को टीएमसी में अपना विलय करवा लेना चाहिए।
कांग्रेस समर्थक बुद्धिजीवी राहुल और प्रियंका गांधी से एक सीमा से कहीं ज्यादा हमदर्दी रखते हैं। यह ठीक है कि राहुल गाँधी प्रेस कांफ्रेंस करते हैं और दोस्ती बनी रहे’ कहते हुए कभी इंटरव्यू बीच में छोड़कर नहीं भागे।
ये भी ठीक है कि प्रियंका गांधी ने यूपी का चुनाव महिला सशक्तिकरण के नाम पर लड़ा और राजनीति में असली मुद्दों को वापस लौटाने की बात कही। मगर इन सबका नतीजा क्या निकला?
क्या राहुल और प्रियंका के पास सचमुच इस देश के लिए कोई बड़ा विजन है? क्या वो कांग्रेस के सभी नेताओं को साथ लेकर चलने में सक्षम हैं? क्या उनमें इतनी प्रबल इच्छा शक्ति है कि लगातार हार के बावजूद को लड़ते रहने का संकल्प देश के सामने रखें और ठोस कार्यक्रमों के साथ आगे बढ़ें?
चाहे सिंधिया का पार्टी तोड़ना हो, राजस्थान की नौटंकी हो या फिर कैप्टन और सिंद्धू का पंजाब डुबो देना, कांग्रेस आलाकमान पूरी तरह बेबस नज़र आया। हर बार यही लगा कि पार्टी से उनका नियंत्रण लगभग खत्म हो चुका है।
सामान्य सिद्धांत है, आप जो भी काम कर रहे हों, आपको डिलीवर करना ही पड़ता है। जिन लोगों को राहुल या प्रियंका की शख्सियत पसंद है, वे कई सारी दलीलें गढ़ते हैं। सबसे बड़ा तर्क ये है कि बीजेपी जितना गिरकर चुनाव लड़ सकती है, वैसा राहुल और प्रियंका नहीं कर सकते हैं।
एक राजनेता का काम ही विकल्प देना होता है। अगर राजनीति बुरी है तो अच्छी राजनीति करने से किसने रोका है? सिर्फ यह कह देने से बात नहीं बनती कि रोजगार और शिक्षा के नाम पर वोट मांगने से कोई वोट नहीं देता। अगर नेता द्वारा पेश किया गया विकल्प जनता की समझ में नहीं आ रहा तो यह नेता की नाकामी है।
समर्थक राहुल और प्रियंका को उनके कुछ अच्छे भाषणों और ट्वीट के आधार पर नंबर दे रहे हैं जबकि सच ये है कि दोनों भाई-बहन कुछ भी ऐसा नहीं कर रहे हैं, जिससे पार्टी पुनर्जीवित होती नज़़र आये।
सोनिया गांधी नब्बे के दशक में लंबे समय तक औपचारिक तौर पर सक्रिय राजनीति से दूर रहीं। क्या इससे पार्टी पर उनकी पकड़ कमज़ोर हो गई? अगर गांधी परिवार से अलग किसी और व्यक्ति को कांग्रेस अपना अध्यक्ष बना दे और राहुल और प्रियंका उसके नेतृत्व में काम करें तो हो सकता है कांग्रेस में इसका कोई सकारात्मक असर दिखे।
दूसरा तरीका ये है कि राहुल गांधी पूरी तरह से पार्टी की कमान अपने हाथ में लें और देश को भरोसा दिलाये कि मौजूदा समय की मांग के मुताबिक वे फुल टाइम राजनीति करने को तैयार हैं।
बहुत लोगों की दलील है कि गांधी परिवार के बिना कांग्रेस जिंदा नहीं रह सकती। लेकिन अभी जिस तरह पार्टी चल रही है, उसके होने का भी क्या मतलब है? कांग्रेस पार्टी के भविष्य का सवाल सीधे-सीधे देश और लोकतंत्र के भविष्य से जुड़ा हुआ है। कांग्रेस के समझदार विरोधी भी इस बात को जानते हैं।
कांग्रेस पार्टी को इस समय एक ऑपरेशन की ज़रूरत है। उसका शरीर ऑपरेशन के लिए तैयार नहीं दिख रहा है लेकिन इसके अलावा कोई और रास्ता नहीं है। अगर गांधी परिवार बड़े फैसले लेने के बदले खामोशी से देखता रहा तो देश की सबसे पुरानी पार्टी और लोकतंत्र की मौत का अपयश उसके हिस्से आएगा।
अनंत-
राहुल गांधी वह नहीं हैं जो कांग्रेस समर्थक सोचते हैं। राहुल गांधी जो भी हो “एक भला आदमी है”, यह बात भोले-भाले कांग्रेस समर्थकों का भ्रम है।
जो व्यक्ति बिना किसी प्रशासकीय अनुभव के खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मान ले, उसके पहले बिना किसी चुनाव के पार्टी का अध्यक्ष बन जाए,वह दरअसल सत्तालोलुप है, भला आदमी नहीं।
भला आदमी क्या होता है? मैं खाली सड़क में रात को बारह बजे भी सिग्नल पर गाड़ी रोकता हूँ, ईमानदारी से टैक्स भरता हूँ। तो क्या मैं पार्टी अध्यक्ष पद के लायक हो गया? यह भला आदमी होने का बहाना दरअसल परिवार के प्रभामंडल से सम्मोहित कांग्रेसियों का हथियार है जिससे वे अपनी स्वामीभक्ति को खुद से छिपाना चाहते हैं।
2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद न केवल राहुल ने नैतिकता के आधार पर पद से इस्तीफा दिया, बल्कि यह भी कहा कि मेरे परिवार से बाहर जिसको चाहो अध्यक्ष बनाओ। लेकिन ऐसा कहने के बाद अपनी बहन के साथ मिलकर खुलेआम पार्टी के निर्णय लेना यह दर्शाता है कि राहुल को सत्ता के बिना राहत नहीं मिलती। इस्तीफा दिया था तो निर्णय नहीं लेने चाहिए। दूर रहो। आपकी बहन केवल एक राज्य की महासचिव है, वह पूरे देश में पार्टी के फैसले क्यों ले रही है?
दरअसल यह राहुल गांधी की घोर परिवारवादी मानसिकता को दर्शाता है। अब इसके आगे की बात करते हैं।
2014 में कांग्रेस के 9 मुख्यमंत्री थे। अभी केवल 2 हैं। 2014 के बाद से जितने विधानसभा चुनाव हुए हैं, इनमें कांग्रेस ने भाजपा से सीधी टक्कर की स्थिती में केवल 3 चुनाव जीते, और उनसे बनी सरकारों में भी एक गिरवा दी।
सीधे मुकाबलों में भाजपा के ख़िलाफ़ कांग्रेस का जीत प्रतिशत करीब 4 प्रतिशत है। यह सब तब हुआ है तब कांग्रेस के सारे फैसलों पर राहुल गांधी की मोहर है।
संगठन क्षमता की बात करें तो उनके महान फैसलों का महान तमाशा पंजाब में पिछले छह महीनों में हम देख चुके हैं। पार्टी की अंदर के लड़ाई को यूँ सरेआम होने देने में न केवल नेतृत्व की असफलता थी बल्कि उसकी (अर्थात भाई-बहन की) सक्रिय भागीदारी भी थी। और नहीं तो अपने मातहत लोगों पर भी आपका नियंत्रण नहीं जिनकी नियुक्ति आपने खुद की है!
कांग्रेस खुद को विपक्ष का सबसे बड़ा और आवश्यक अंग मानती है। लेकिन उसके शासक परिवार के मुखिया का व्यवहार देखिए। राहुल गांधी ने आज तक मुम्बई जाकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं की है। पार्टी टूटने के डर से आप महाराष्ट्र सरकार में शामिल हुए। यदि महान नैतिकतावादी हो तो शामिल नहीं होना था , यदि हुए तो फैसले को स्वीकार करो। यह फूफा की तरह चलती बारात से दूरी बनाना क्या एक अच्छे नेता को शोभा देता है? यूपीए के विस्तार के लिए खुद आगे होकर राहुल विपक्ष के किस नेता के घर जाकर उससे मिले? क्यों विपक्ष के नेता (पवार, ममता सहित) आज भी सोनिया गांधी से मिलते हैं, राहुल से नहीं?
मेरे गृहराज्य छत्तीसगढ़ में भी उनके दौरे के लिए हमारे मुख्यमंत्री को महीनों मिन्नतें करनी पड़ीं। अंततः वे तब आए जब हमारे मुख्यमंत्री ने असम के बाद उत्तर प्रदेश चुनावों का जिम्मा उठाया (अर्थात क्या किया यह बताने की आवश्यकता नहीं है)।
संगठन क्षमता की एक और बानगी। अपने अनेक साक्षात्कारों में राहुल ने यह स्वीकार किया है कि उनकी पार्टी का प्रचार तंत्र कमज़ोर है। लेकिन यदि ऐसा है तो अमरिंदर सिंह जैसे को पार्टी से निकालने का दम रखने वाले राहुल एक अदद रणदीप सिंह सुरजेवाला को प्रवक्ता पद से हटाने का दम क्यों नहीं रखते? यह तो कोई भी एक कांफ्रेंस देखकर बता देगा कि सूरजेवाला एक फिसड्डी प्रवक्ता है। जो अध्यक्ष वही ठीक नहीं कर सकता वह पार्टी और देश में क्या खाक ठीक कर देगा?
बाद इन सबके, जब चारों ओर से कांग्रेस की यह आलोचना हो रही है कि वह परिवारवादी पार्टी है तो नैतिकता का दूसरा नाम राहुल गांधी, क्यों नहीं यह घोषणा कर देते कि चूँकि यह चर्चा है, आरोप है, इसलिए मेरा परिवार इस पद से दूर रहेगा। इन बातों से आहत कांग्रेसी यही सोचे कि यदि महात्मा गांधी पर इस आरोप का दसवाँ हिस्सा भी लगता तो वो क्या करते? इसलिए, नैतिकता के ये दावे झूठे हैं।
चुभेगी बात लेकिन सच यही है कि राहुल गांधी सत्ता के आदी हो चुके हैं, उन्हें पार्टी पर नियंत्रण की सनक है, और उनकी सँगठन क्षमता दोयम दर्जे से भी गई बीती है। उनके और उनकी बहन के नेतृत्व को देश की जनता नकारते-नकारते थक गई है। इसलिए पुरखों का दिया कुछ संस्कार बाकी हो तो तत्काल पार्टी के निर्णय तंत्र से सौ कोस दूर चले जाएँ। ऐसा करके वे और उनकी बहन देश की सबसे बड़ी सेवा करेंगे। एक अप्रैल से अंतरराष्ट्रीय विमान सेवाएँ पूरी क्षमता से बहाल भी हो रही हैं। इसका फ़ायदा फ्रीक्वेंट फ्लायर राहुल को अवश्य ही उठाना चाहिए।