खाली पेट्रोल का मामला हो तो झेल लें। गोरखपुर में नींबू 8 रुपये का एक और हरी मिर्च 150 रुपये किलो है। इसे भी गूंथकर जिंदगी पर टांग नहीं सकते कि किसी की बुरी नजर से बचा जा सके।
सत्येंद्र पीएस-
अम्मा बता रही हैं कि घर की पेंटिंग में सवा से डेढ़ लाख रुपये लग जाता है। इसलिए 3 साल से पेंटिंग नहीं हुई है। यह स्थिति तब है जब घर के तीन पुरुष और एक महिला नौकरी करते हैं और पिताजी पेंशन पाते हैं। इसके अलावा 3 महिलाएं गृहिणी हैं, 4 नाबालिग बच्चे हैं। यानी 8 वयस्कों में 5 लोग थोड़ा बहुत कमाने वाले हैं, गेहूं चावल अमूमन गांव खेत से आ जाता है।
पता नहीं मेरे परिवार का ही बजट बिगड़ा हुआ है या देश के अन्य नागरिकों पर भी असर है। रिजर्व बैंक बेचारा रीपो और रिवर्स रीपो रेट घटाते और सरकार को पैसे देते तबाह है। महंगाई बेकाबू हो रही है। पहले ऐसा होता था तो रीपो रेट बढाया जाता था, जिससे नगदी कम हो जाए और लोग कम खरीदारी करें, महंगाई घट जाए। अब डबल समस्या है। लोगों की खरीदने की औकात भी नहीं है और महंगाई भी बढ़ रही है। हाय रे किस्मत!
उधर रूस को छींक आ गई तो भारत को जर-जूड़ी पकड़ चुका है। इनकी कोई औकात नहीं है कि भारत की आर्थिक तबाही हो रोक लें। पिछले 3 दिन में 2 रेटिंग एजेंसियां भारत का वृद्धि अनुमान घटा चुकी हैं।
काँख कूँखकर भारत माता की जय बोलते रहें। आप ढलान पर बाइक बन्द कर दे रहे हैं कि 50 पैसे का पेट्रोल बच जाए, बेटे के मोबाइल में डेटा पैक भरवा रहे हैं कि सम्पर्क में रहे और वह फेसबुक पर लिख रहा है कि 200 रुपये लीटर पेट्रोल हो जाए तब भी कोई बात नहीं, राष्ट्र आगे बढ़ रहा है। कार वालों को तो ढलान पर इंजन बन्द करने की सुविधा भी नहीं है क्योंकि इंजन बन्द करने पर स्टियरिंग जाम हो जाता है।
मुझे लगता है कि प्रकृति से लेकर महंगाई की मार का शिकार मैं ही हूँ। बाकी लोगों का विकास हो ही रहा होगा। लोगों के विकास से ही तो देश का विकास होता है, लेकिन यह समझना मुश्किल है कि विकास कहाँ जा रहा है, किसकी जेब में घुसकर बैठ गया? कम से कम हम लोगों की जेब में तो नहीं है!
एक्सीडेंट का खौफ दिल से निकल ही नहीं रहा। सड़क पर बाइक से निकलने पर डर लगता है। उस दिन का खौफनाक मंजर दिमाग में घूमता रहता है। बिटिया के लिए हर रोज दुआएं करना, उसके पैर की मालिश करना, उसकी फिजियोथेरेपी करना, जहां कहीं मित्र लोग सम्पर्क करने को कह रहे हैं, डॉक्टरों से व्हाट्सएप पर रिपोर्ट भेजना और पूछना कि वो ठीक तो हो जाएगी? और इस बीच नौकरी करना, जिससे और बुरी आर्थिक स्थिति न हो! यही काम है। शुक्र है कि प्राइवेट नौकरी है और लोग अत्यंत मानवीय हैं, वरना सरकारी नौकरी होती तो नौकरी पर बुलडोजर चल जाता!
क्या जिंदगी और क्या शासन प्रणाली है? समझ में नहीं आता कि हम जंगली होते और अन्य जानवरों, पक्षियों की तरह जंगल जंगल घूमकर हू तू तू तू करते भोजन तलाशते तब सुखी रहते या सरकारें बनाकर, विकास करके, विभिन्न सुख सुविधाएं जुटा करके अब सुखी हैं?