देवेंद्र आर्य
देवेंद्र आर्य और हम गोरखपुर के हैं। मतलब हमारा जन्म-भूमि का रिश्ता है। गर्भ और नाल का रिश्ता है। हम से छ महीना बड़े हैं देवेंद्र। उम्र में भी और रचना में भी। सो हमारे बड़े भाई भी हैं। सत्तर के दशक में हम विद्यार्थी थे। उन दिनों यह बी एस सी में पढ़ते थे, हम बीए में। हिंदी कविता में वह दिन मुक्तिबोध, धूमिल और दुष्यंत कुमार के सर चढ़ कर बोलने के दिन थे। इसी ताप और अपनी रुमानियत में क़ैद हम दोनों ही कविताएं लिखते थे। कवि गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में मिलते रहते थे। उन दिनों गोरखपुर के विद्यार्थी कवियों में देवेंद्र आर्य महबूब कवियों में शुमार थे। सब से ज़्यादा छपते भी थे और सुने भी जाते थे।
उन दिनों यह एक गीत सुनाते थे सस्वर, ‘याद तुम्हारी आई, जैसे बरखा फूल झरी/ छलक उठी कान्हे माथे से माटी की गगरी!’ और हम अपने प्रेम के अवकाश में, उस की याद में डूब जाते थे। हालांकि यह गीत गोरखपुर के ही माहेश्वर तिवारी के एक गीत, ‘ याद तुम्हारी जैसे कोई/ कंचन कलश भरे/ जैसे कोई किरण अकेली/ पर्वत पार करे!’ को दुहराते हुए था। फिर भी दोनों ही गीतों की तर्ज़ एक होने के बावजूद दोनों की कल्पना, उपमान और बिंब जुदा -जुदा थे। और मन को मोहते थे। प्रेम को एक उड़ान, एक छांव और मांसलता परोसते थे। ठीक वैसे ही जैसे कभी परमानंद श्रीवास्तव सस्वर सुनाते थे, ‘पल छिन चले गए/ जाने कितनी इच्छाओं के दिन चले गए!’ लेकिन उन दिनों देवेंद्र कुमार आर्य, हां देवेंद्र कुमार आर्य एक दूसरे देवेंद्र कुमार जिन्हें पूरा हिंदी समाज बंगाली जी के नाम से जानता है, उन के साथ ज़्यादा घूमते और मिलते। कहूं कि उन से ज़्यादा हिले हुए थे। बंगाली जी गीतों के अनूठे राजकुमार थे। और कविता के बादशाह। ‘एक पेड़ चांदनी/ लगाया है आंगने/ फूले तो आ जाना/ एक फूल मांगने ‘ जैसे गीत ने उन्हें खूब मशहूर किया था। बंगाली जी का मिजाज भी यही था। वह सब को सर्वदा देने की ही मुद्रा में रहते थे। कई बार मैं ने देखा कि एक कवि, कवि सम्मेलनों में उन की खड़ी की खड़ी कविता, उन की उपस्थिति में ही पढ़ देते थे। वापस आ कर उन के पांव छूते हुए कहते कि, ‘माफ़ कीजिएगा, बंगाली जी ज़रूरत पड़ गई थी। ‘बंगाली जी, मुह में पान कूचते हुए मुस्कुरा कर रह जाते। अकसर चुप-चुप रहने वाले और’ तावे से जल भुन कर/ कहती है रोटी/ अंगूर नहीं खट्टे/ छलांग लगी छोटी।’ जैसी मुहावरा तोड़क कविताएं लिखने वाले देवेंद्र कुमार बंगाली जी ने बहस ज़रूरी है जैसी अविरल कविता लिखी है:
दिक्कत है कि तुम सोचते भी नहीं
सिर्फ दुम दबा कर भूंकते हो
और लीक पर चलते-चलते एक दिन खुद
लीक बन जाते हो
दोपहर को धूप में जब ऊपर का चमड़ा चलता है
तो सारा गुस्सा बैल की पीठ पर उतरता है
कुदाल,
मिट्टी के बजाय ईंट-पत्थर पर पड़ती है
और एकाएक छटकती है
तो अपना ही पैर लहुलुहान कर बैठते हो
मिलजुल कर उसे खेत से हटा नहीं सकते?
एक से एक गीत और गज़ब की कविताएं लिखी हैं देवेंद्र कुमार ने। जैसे, ‘अब तो अपना सूरज भी आंगन देख कर धूप देने लगा है’ या फिर ‘न जनता/ न नेता/ आप पूछेंगे!/ फिर मुझे इस देश से/ क्या वास्ता? सो तो है मगर…।’ जैसी मारक कविताएं लिखने वाले देवेंद्र कुमार साइकिल से चलते थे। साइकिल से क्या चलते थे, साइकिल उन के साथ चलती थी। अक्सर पैदल ही वह साइकिल लिए चलते मिलते, पान मुह में घोलते हुए। कभी अकेले, तो कभी कोई साथ में भी। साथ में कोई भी हो सकता था, पैदल ही। अगर साइकिल लिए हो तो वह भी अपनी साइकिल के साथ पैदल। हम भी कई बार यह सुख भोग चुके हैं। पर देवेंद्र कुमार आर्य ने बहुत ज़्यादा। तो इन्हीं देवेंद्र कुमार बंगाली जी से हिले मिले देवेंद्र कुमार आर्य भी उन से बहुत कुछ प्राप्त कर रहे थे, सीख रहे थे। जैसे मिट्टी सोखती है पानी, वैसे ही देवेंद्र कुमार को सोख रहे थे, ज़ज़्ब कर रहे थे। उन की चुप्पी, बहुत कम बोलना, उन की शालीनता, उन की भाषा, उन का कहन, कविता का मुहावरा, उन का रूपक और बिंब विधान भी, उस में धार चढ़ाना, उसे मांजना भी। आदि-इत्यादि भी। और फिर खुद चुप रहना पर रचना का सर चढ़ कर बोलना! यह सब का सब। उन का पान भी, उन का अंदाज़ भी। धीरे-धीरे देवेंद्र कुमार और देवेंद्र कुमार आर्य एक तसवीर के दो पहलू बन गए। देवेंद्र कुमार आर्य को देवेंद्र कुमार की छाया कहने लगे लोग। लेकिन यह देखिए देवेंद्र कुमार आर्य ने इस चुभन को इस शिद्द्त से महसूस किया कि कविता और अपने गीतों का तेवर ही बदल लिया। बहुत जल्दी ही। बंगाली जी की कविता में जो तिलमिलाहट थी, उस तिलमिलाहट को देवेंद्र कुमार आर्य ने चीख और चीत्कार में बदल दिया। बाद में हम गोरखपुर छोड़ कर दिल्ली चले गए। अखबारी नौकरी में। फिर लखनऊ आ गए। लेकिन देवेंद्र कुमार आर्य गोरखपुर में ही रहे। बंगाली जी और अपने पिता जी की ही तरह रेलवे की नौकरी में। और कविता के साथ रहे। हम से गोरखपुर ही नहीं, कविता भी हम से छूट गई। वह हमारे पैदल और साइकिल से चलने के दिन छूट गए। लेकिन देवेंद्र कुमार आर्य नहीं छूटे। इस बीच कभी पैदल ही नाप लिया जाने वाला शहर गोरखपुर भी पसर कर बड़ा हो गया। हां, पर देवेंद्र कुमार आर्य का नाम छोटा हो गया। वह देवेंद्र कुमार आर्य से देवेंद्र आर्य हो गए। नाम भले उन्हों ने छोटा कर लिया अपना, लेकिन उन का कवि बड़ा बन गया। उन के गीत, जनगीत बन गए। नुक्क्ड़ नाटकों में गाए जाने लगे:
अगल-बगल खेतों से मिट्टी काटी जाएगी,
रोडवेज के लिए यह सड़क पाटी जाएगी।
सड़क किनारे गांव की अपनी क़ीमत होती है
बंगला गाड़ी और फार्मिंग इज़्ज़त शहरों की
बिजली डीज़ल खेत बेच के ढाबा खोलेंगे
खुलने को है गांव से थोड़ी दूर नई मंडी ।
आप की मर्जी पाले रहिए मोह कुछ होने का
फटी योजना थूक लगा के साटी जाएगी ।
लोगों का गुस्सा विस्फोटक रूप न धारण कर सके,
सदन सेफ्टीवाॅल्व अग्निशामक यंत्रों से हैं ।
कब होगी पहचान फर्श पर बिखरे खून की , कब
सुविधा की मोटी कालीन उलाटी जाएगी ।
या कि फिर
जो भी अपनी रोटी का
हिसाब देने से डरता है
सौ की सीधी बात है
दो नंबर का धंधा करता है
या फिर
घघ्घो रानी बड़ी सयानी
बोल री मछली कितना पानी ।
शहरों की शैतानी आंतें
पचा रही हैं पर्वत , जंगल ,
बहबूदी की बरबादी में
मना रहे हम दुःख का मंगल ।
ऐसे बहुतेरे गीत लिखे हैं देवेंद्र आर्य ने और लोगों ने गाए हैं , गाते ही हैं । अब तो जैसे आंदोलनों के दिन हवा हुए। पर जब होते थे आंदोलन तो देवेंद्र आर्य के गीत उन में हौसला भरते थे और खूब भरते थे । कई तर्ज़ और तेवर वाले उन के अनगिनत गीत , आंदोलनों की जान होते थे । एक बार मैं गोरखपुर गया तो दूरदर्शन द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन हो रहा था और देवेंद्र आर्य एक ग़ज़ल पढ़ रहे थे :
गोरख की सरज़मीं पर गुजरात का ख़याल
चेहरे की आइने से कहीं जंग होती है !
अब देवेंद्र आर्य न सिर्फ कद्दावर गज़लगो बन गए थे बल्कि हम जैसे लोग उन के शेर अपने कहानी – उपन्यास में कोट करने लगे थे । अपनी बात को और धरदार ढंग से कहने का कोई और तरीक़ा ही नहीं बचा था। देवेंद्र आर्य अब अगर गोरखपुर में रह कर भी यह और ऐसे शेर कह रहे हैं कि , ‘गोरख की सरज़मीं पर गुजरात का ख़याल/चेहरे की आइने से कहीं जंग होती है!’ और लगभग चुनौती देते हुए कह रहे हैं तो उन के शेर कहने की यह क्षमता तो है ही, उन की बहादुरी भी दिखती है । यह बात गोरखपुर में रहने वाले लोग समझ सकते हैं। सांप्रदायिक शक्तियों को उन की माद में ही रह कर चुनौती देना आसान नहीं है । रिस्क ज़ोन है यह । यह वैसे ही है जैसे धूमिल की कविता में कहें तो , ‘ लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो / घोड़े से पूछो जिस के मुंह में लगाम है। ‘
बावजूद तमाम मुश्किलों और दुश्वारियों के सांप्रदायिकता से लड़ने में उन की ग़ज़लें और गीत कभी पीछे नहीं रहे । सही नब्ज़ और सही बात वह कहते ही हैं बिना किसी रौ – रियायत के ।
हिंदू में सभी ठाकरे , मोदी नहीं होते
मुस्लिम में भी सभी लोग तो नदवी नहीं होते
इंसानियत दरिया है और दरिया से अधिक प्यास
इंसानियत के फ़ैसले फस्ली नहीं होते
क्या क्या न हुआ देश में गांधी तेरे रहते
क्या होता अगर देश में गांधी नहीं होते
उन की कविताएं भी इस से अछूती नहीं हैं :
फलां की जीत को फलां की हार समझने का
ख़ास मनोविज्ञान , आम के गले नहीं उतरा
काशी को काशी ने बता दिया
कि काशी को समझने के लिए
थोडा सा मगहरवासी होना जरूरी है .
सच के पीछे का झूठ सच है
या झूठ है झूठ के पीछे का सच , पता नहीं
काशी जीती या हारी , ये भी पता नहीं
पर वे दानिश्वर क्या झाकेंगे अपने देश छोड़ने के
उत्तेजक बयानों की आत्मा में
क्या साहित्यकारों के राजनीतिक बयान
राजनीतिज्ञों के साहित्यिक बयानों की तरह ही होते हैं
निरर्थक,पानी का बुलबुला
क्या तानाशाह सिर्फ व्यक्ति होता है
प्रवृत्ति नहीं
कि किसी एक के लिए जलावतन हो जाया जाय
क्या वाकई देश इतना कमज़ोर है
भरोसा, कहाँ गया लोक पर अटूट भरोसा ?
और सचमुच ! चौपट हो चले सिस्टम को , समाज और सरकार को सट – सट सोटा मारने का मन हो तो देवेंद्र आर्य की ग़ज़लों और गीतों से मिलिए । इन गजलों और गीतों में आप को न सिर्फ़ सिस्टम, समाज और सरकार को मारने के लिए सोटा मिलेगा बल्कि एक बेपनाह ऊर्जा और अधिकार भी मिलेगा जो कि कहीं किसी बाज़ार से खरीद कर नहीं , किसी क़ानून और संविधान से नहीं बल्कि कलेजे के भीतर से आता और मिलता है। इतने जलते और खौलते हुए शेर देवेंद्र की ग़ज़लों और गीतों में मचलते हैं कि एक – एक हर्फ़ से लिपट जाने को जी चाहता है। मुश्किल इतनी बड़ी आ जाती है कि किस ग़ज़ल को छोड़ें , किस गीत को छोड़ें और किस शेर से न लिपटें । सभी तो अपने आगोश में ऐसे लेते जाते हैं गोया कोई सरदी की शीत हो कि सभी वनस्पतियों को भिंगो कर सर्द करना ही है , अपने ज़ज़्बात में भिंगोना ही है । जैसे कोई तपती हुई बेपरवाह लू हो कि हर किसी को गरम थपेड़े में झुलसाना ही है । देवेंद्र आर्य की ग़ज़लों और गीतों के ताप में जो तेवर , जो तल्खी , जो तुर्शी है वह अब से पहले मैं ने दो और शायरों में पाई है । एक दुष्यंत कुमार , दूसरे अदम गोंडवी । और अब तीसरे हैं देवेंद्र आर्य। दुष्यंत के यहां सारी खदबदाहट के बावजूद उन की कहन में एक सलाहियत , और मासूमियत निरंतर तारी है। लेकिन अदम के यहां दुष्यंत की यह सलाहियत और मासूमियत की ज़मीन टूट जाती है , टूटती ही जाती है । अदम जैसे चीख पड़ते हैं, चीखते ही रहते हैं । एक हल्ला बोल की गूंज अदम की ग़ज़लों से अनायास फूटती मिलती है । जब कि देवेंद्र आर्य के यहां दुष्यंत की खदबदाहट में तर सलाहियत , मासूमियत तो है ही , अदम का हल्ला बोल भी है पर अचानक ही देवेंद्र आर्य की गज़लें जैसे हमलावर हो जाती हैं , ऐसे जैसे किसी शहर से नाराज़ नदी बाढ़ की शक्ल में उस शहर पर टूट पडी हो । धार – धार उस शहर को ध्वस्त करती और अपने पूरे वेग में उस शहर को उजाड़ती हुई । गुरिल्ला हमला नहीं , सीधा हमला करती हैं देवेंद्र की गज़लें और चौपट सिस्टम को सांस भी नहीं लेने देतीं । मुक्तिबोध की तरह आह्वान या ऐलान नहीं करतीं देवेंद्र आर्य की गज़लें कि , ‘ तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब !’ बल्कि वह तो जैसे शंखनाद करती हुई एक ही वार में सारे मठ और सारे गढ़ तोड़ डालना चाहती हैं । इन ग़ज़लों और गीतों का सिस्टम पर यह हमला बिना किसी रियायत , बिना किसी ऐलान के औचक परमाणु हमले की शक्ल ले लेता है । जैसे कोई हरावल दस्ता हों देवेंद्र आर्य की यह ग़ज़लें, उन के गीत । देवेंद्र अपनी रचनाओं में जो यह तेवर अपनाते हैं तो अचानक , एकबैग नहीं । इन के जनगीतों की याद कीजिए ।
फिर नंगी ले जाई जाएगी कोई औरत,
पुलिस सदन में बैठे-बैठे डांटी जाएगी।
वह जनगीत जो नुक्क्ड़ नाटकों में नाटक मंडलियां गाती रही हैं, गाती ही हैं । मुझे पूरा यकीन है कि अब देवेंद्र आर्य के जनगीतों के साथ – साथ उन की यह मोती मानुष चून की गज़लें भी लोगों के गुस्सा , लोगों के प्रतिरोध और लोगों के आक्रोश का बायस बनेंगी । इस में रत्ती भर संदेह नहीं ।
शुरू तो हुई थीं विरासत की बातें
मगर छिड़ गई हैं सियासत की बातें
शराफ़त की बातें, नफ़ासत की बातें
लुटेरों के मुंह से हिफाज़त की बातें
मोहल्ला कमेटी के हल्ले के पीछे
सुनी जा रही हैं रियासत की बातें
मुझे भी मज़ा है , कमाई उसे भी
समझता है हाथी महावत की बातें
तो यह जो हाथी और महावत की जुगलबंदी है व्यवस्था की बुनियाद में उस बुनियाद को ही हिलाने की कसरत में देवेंद्र आर्य की ग़ज़लें निरंतर बेचैन और युद्धरत हैं । नरेश सक्सेना के यहां भी यह बुनियाद ध्वस्त करने की बात चलती है लेकिन वह इस बुनियाद में उतरने के लिए पहले सीढ़ी खोजते हैं:
मुझे एक सीढ़ी की तलाश है
सीढ़ी दीवार पर
चढ़ने के लिए नहीं
बल्कि नींव में उतरने के लिए
मैं किले को जीतना नहीं
उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूं
लेकिन देवेंद्र को सीढ़ी नहीं सोटा की दरकार है ।
नहीं करते थे खेतिहर आत्महत्या
उपज बेशक थी कम सौ साल पहले
न जी डी पी थी ना थी एफ़. डी. आई.
न मनरेगा का गम सौ साल पहले
बरास्ता पूंजी आती है गुलामी
ये मुद्दा था अहम सौ साल पहले
देवेंद्र यहीं नहीं रुकते । वह तो जैसे ऐलान करते चलते हैं :
कि जिस दिन आसमान बिकने लगेगा
उसी दिन समझो आएगी क़यामत
खुदा महफ़ूज रक्खे प्यास मेरी
बदल डालूंगा मैं नदियों की क़िस्मत
ये गज़लें जब कहीं हालात भी बयान करती हैं तो भी उन की कहन में रिरियाहट या मिमियाहट नहीं होती , साफ तल्खी और तंज भरा तेग लिए गुस्से में डूब कर बोलती हैं ।
पानी कैसे पकड़ में आया , तुम क्या जानोगे
कैसे मैं ने साथ निभाया , तुम क्या जानोगे
बासी भात में ख़ुदा का साझा , खुदा की रहमत में
किस ने किस ने हिस्सा खाया , तुम क्या जानोगे
राजनीतिक बयानों में तो देश विकास की राह पर है लेकिन देवेंद्र की गज़लें कुछ और खुसफुसाती हैं । आप भी सुनिए :
देखा तुम ने मौसम कैसा है
चौबीस घंटे पैसा-पैसा है
अगड़ा बच्चा कंप्यूटर जैसा
पिछड़ा बच्चा , बच्चों जैसा है
देवेंद्र की गज़लें असल में बहुत महीन मार करती है , आहिस्ता से। पर भरपूर ।
दो मुट्ठी चावल और मुट्ठी भर दाल
इस के आगे क्या है भूख की मजाल
पूंजी से टकराए , इतनी हिम्मत
सत्ता की आंखों में सूअर के बाल
भट्ठी सा धधक रहा जीवन का सच
थर्मामीटर जैसा कविता का हाल
देवेंद्र की ग़ज़लों में छटपटाहट तो है ही मसलों की शिनाख्त और उस पर पत्थर सी मार भी है :
अन्न भरे गोदामों में , फिर भी अकाल देखो
जल , जंगल , ज़मीन से पैदा यह सवाल देखो
रौशनियों ने रौशनियों को यूं उलझाया है
अंधियारे की कीमत में आया उछाल देखो
यह विकास है या विनाश है, प्रगति है या पर-गति
रेल पटरियों पर जा बैठी है कुदाल देखो
लोगों की संसद लोगों की संसद नहीं रही
बदल रहे हैं अब लोगों के ख्याल देखो
अभी अयोध्या लंका नहीं हुई है भाई जी
हल कैसे होंगे आने वाले सवाल , देखो
वह जैसे आगाह करते हैं कि , आप अगर किरकिरा सको तो अलबत्ता / वरना पूजित होती जाएगी सत्ता । ‘ आज कल अच्छे दिन की बात बहुत होने लगी है । लेकिन देवेंद्र पूछते हैं :
मांगे भीख न देती दुनिया , बिन मांगे मोती देगी ?
उलटे सीधे ख़्वाब दिखाना , यह भी कोई बात हुई
जिस को पनही और पगड़ी में कोई अंतर नहीं दिखे
उस के आगे शीश झुकाना , यह भी कोई बात हुई
उन के कुछ और शेर यहां गौरतलब हैं :
दिये की लौ से हवा को पछाड़ देता है ।
वो एक नज़र से अंधेरे को फाड़ देता है ।
अंधेरे को ज़रा महफ़ूज रखिए
ये मनबढ़ रौशनी अंधा न कर दे।
या फिर
सीमा के उस पार है साज़िश सीमा के इस पार इलेक्शन,
अब के झंडारोहण में फूलों की जगह झरे हथगोले ।
या फिर :
हमने आज ख़रीदा कल के बदले में ।
जैसे कोका-कोला जल के बदले में ।
रास ना आया भूख का देसीपन हम को,
प्लेटें चाट रहे पत्तल के बदले में ।
आने वाली पीढ़ी करनेवाली है,
धरती का सौदा, मंगल के बदले में ।
ऐसे ही तीस्ता सीतलवाड़ पर लिखी उन की कविता बहुत महीन मार करती है :
क़ीमत फिर भी बड़ी चीज़ है
हमा शुमा के लहज़े को
मामूली अनुदान बदल के रख देता है ।
सपनों में आया हलका सा परिवर्तन
भीतर से इंसान बदल के रख देता है ।
रिंग जा रही होती है लेकिन रिस्पांस नहीं होता है
हो निर्वात तो संवादों का कोई चांस नहीं होता है ।
किसी देश के किसी काल के
किसी भी गांधी को देखो तुम
डेढ़ हड्डियों पर एक गाल बराबर मांस नहीं होता है ।
या फिर :
सागर ने कर लिए हैं दरवाज़े बंद
रेत ने भी तोड़ लिए सारे संबंध
तुम्हीं कहो कहां जाए , क्या करे नदी ।
छिलके सी छील के उतार ली गई
नेकी तो बूंद – बूंद मार ली गई
खुज्झे की तरह बची रह गई बदी
तुम्हीं कहो , कहां जाए , क्या करे नदी । ।
देवेंद्र की कविताओं में तल्खी और तंज का यह चाबुक इतनी तेज़ और इतनी सख़्ती से चलता है कि कविताएं सीधा मार करती हैं । उन का निशाना चूकता नहीं है कभी । सीधा निशाने पर जा गिरती हैं । देवेंद्र की कविताओं की , उन के गीतों और उन के ग़ज़लों की एक बड़ी खासियत यह भी है कि वह लफ़्फ़ाज़ी भी नहीं करतीं , न ही कोरी वैचारिक जुगाली । आम बोलचाल में आज-कल एक शब्द चलता है, ‘कमिश्नरी!’ तो अब कहानी , कविता और आलोचना आदि में भी यह कमिश्नरी डट कर हो रही है। नतीज़ा सामने है । रचनाएं ज़मीन से कट गई हैं । लेकिन सुखद यह है कि देवेंद्र इस कमिश्नरी की बीमारी की गिरफ़्त में नहीं हैं । वह तो खरी बात और खरी रचना के तलबगार हैं । और वो जो शमशेर कहते थे कि बात बोलेगी/ हम नहीं/ भेद खोलेगी आप ही ! को साकार करती चलती हैं देवेंद्र की रचनाएं । अदम गोंडवी लिख ही गए हैं कि , ‘ भूख के अहसास को शेरो सुखन तक ले चलो/ या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो/ जो गज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो गई/ उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।’ देवेंद्र अदम की इस बात को लगता है जैसे गांठ में बाध कर रखते हैं हमेशा । फ़िराक गोरखपुरी कहते थे कि लिटरेचर की भाषा तरकारी बेचने की भाषा होती है । तो देवेंद्र आर्य वही तरकारी बेचते हैं । उन के यहां नकली और लफ़्फ़ाज़ भाषा और फसली बातों की कोई जगह नहीं है । उन की ग़ज़लों , गीतों और कविताओं में देशज शब्दों की आवाजाही भी बहुत है । ओरहन जैसे शब्द जब इन की ग़ज़लों में नगीना की तरह जगमगाते मिलते हैं तो मन हरियरा जाता है । भोजपुरी और हिंदी के बहुत सारे लुप्तप्राय शब्द भी जब-तब देवेंद्र के यहां उपस्थित मिलते हैं । कई बार उन की ग़ज़लों के रदीफ़ -काफ़िया भी अनगढ़ रूप में जब झन्न – झन्न करते हुए अपने ऊबड़-खाबड़ रूप में उपस्थित मिलते हैं तो उन की ग़ज़लें इतरा-इतरा जाती हैं । उन की यह तोड़ फोड़ सुकून देती है । छंद और मीटर भी है ही देवेंद्र के यहां । परंपराएं , दस्तूर और सपने भी खूब हैं । साड़ी का परदा हमने घर में बचपन में देखा था , अब देवेंद्र की रचनाओं में उसे अभी भी बाक़ी पाता हूं तो मन हुलस जाता है । और यह साड़ी का परदा देवेंद्र के यहां किसी नॉस्टेलजिया में नहीं बल्कि अस्मिता के तौर पर उपस्थित है । ऐसे ही भोजपुरी के बहुतेरे शब्द ठाट मारते मिलते हैं देवेंद्र के यहां । भोजपुरी के बिंब , उस के रूपक और तमाम कार्य व्यवहार देवेंद्र की रचनाओं की थाती हैं । इस लिए भी कि वह जीवन और ज़मीन से बहुत गहरे जुड़े हुए हैं । गगन बिहारी कवि नहीं हैं देवेंद्र आर्य । हालां कि गौरैया उन के गीत में भी धूल खेलती है पर वह कइन, बांस और गौरैया के रूमान में नहीं जीते । उन की ही कविता में जो कहूं तो , ‘ सच में झूठ का हलका सा भी खारापन / लोगों के दिल में उपजा / सम्मान बदल के रख देता है । ‘ तो मैं यह बात बहुत ज़ोर से कहना चाहता हूं कि देवेंद्र की रचनाओं में झूठ का खारापन लेशमात्र भी नहीं मिलता और इसी लिए उन के लिए , उन की रचनाओं के लिए सम्मान बदलता नहीं है और – और बढ़ता जाता है । भोजपुरी में भी तमाम कविताएं और गीत लिखे हैं देवेंद्र ने । और क्या खूब लिखे हैं :
बापू में एगो भगत सिंह उगा के
मार्क्स में तनी एक ‘ भीम ‘ मिला के
फिर से अज़दिया के सपना जगा के
छेड़ल जा सन सत्तावन हो सखि
हक़ दिलवावन ।
ऐसे बहुतेरे गीत हिंदी और भोजपुरी में देवेंद्र रचते मिलते हैं जो भोजपुरी के पारंपरिक गीतों, उन के शिल्प और उन की टेर के साथ अपनी पूरी भाव भंगिमा में सारी ठसक के साथ धंस कर लिखे गए हैं । नागार्जुन , त्रिलोचन और गोरख पांडेय के तत्व भी उन के यहां यत्र-तत्र उपस्थित हैं अपने पूरे सम्मोहन के साथ। पता नहीं क्या है कि बहुत सारे कवि गीत से भागते हैं । पहले खूब गीत लिखते थे अब बिसार गए हैं । केदारनाथ सिंह कभी लिखते ही थे , ‘धान उगेंगे की प्राण उगेंगे ।’ नरेश सक्सेना भी लिखते ही थे गीत । ऐसे बहुत सारे कवि हैं जो गीत को भूल भाल कर ‘ कोरे कवि ‘ बन बैठे हैं । पर देवेंद्र ऐसा नहीं करते । बल्कि देवेंद्र के कई सारे गीत निर्गुण की भी याद दिलाते हैं पर बात और वज़न में वह आज के बाज़ार को तौलते और खदेड़ते हुए दहाड़ लगाते हैं, ‘ होगा जो भी साला / देखा जाएगा ।/ क्या कर लेगा ऊपर वाला , देखा जाएगा ।’ उन का एक गीत है लोन मेला :
चलो लोन मेला में हो आएं
फ्रीज मिले , कार मिले
सोलहो सिंगार मिले
लोन में मिलें मम्मी – पापा
पूंजी है शेषनाग
ब्रह्मज्ञान पूंजी को
व्यापे न दैहिक दैविक भौतिक तापा
पुनर्पाठ नश्वर दुनिया की नश्वरता का
मंडी का दर्शन अपनाएं ।
किसी भी डिजाइन का टूटा – फूटा लाओ
बदले में नया प्रेम ले जाओ
बंपर डिस्काउंट है
एक प्यार खर्च करो तीन प्यार पाओ ।
नया नया लांच हुआ सच का हूबहू झूठ
चलो क्लोन हो आएं ।
थोड़ा सा फिसलो
और गट्ठर भर नेम – फ़ेम
करनी में चार्वाक कविता में शेम-शेम
भीतर से चाटुकार , बाहर से भगत सिंह
द्वंद्व ही कला है , जीवन है ।
ख़तरा है
ख़तरे से बचने के लिए बिकें
बिकने के लिए खरीदवाएं
ए सुगना।,
हम भी दुनिया से ऊपर तो नहीं
एक क़दम अमरीका हो जाएं ।
देवेंद्र की ग़ज़लों में चुभन और टीस की इबारतें इतनी ज़्यादा हैं कि जैसे नागफनी में कांटे ही कांटे । जीवन और समाज जैसे कैक्टस के जंगल में पैबस्त हो । और इन्हीं कांटों में फूल कहीं – कहीं महकते भी मिलते हैं तो इस लिए कि यह जीवन का अनिवार्य हिस्सा हैं कि लाख दुःख हों , सुख का एक टुकड़ा भी तो है ही । तो देवेंद्र की ग़ज़लों में यह खुशबू भी है पर एक गहरी छुवन और एक निर्मल सरलता के साथ ।
बंद हवा में खिड़की जैसी खुलती दादी मां
मेरे मन में लालटेन सी जलती दादी मां
चीनी-रोटी , चंदा मामा , आंटे की चिड़िया
बच्चों के भीतर बच्चे सी पलती दादी मां
देवेंद्र कुमार के यहां प्यार भी खूब है । ‘ याद तुम्हारी आई, जैसे बरखा फूल झरी / छलक उठी कान्हे माथे से माटी की गगरी !’ जैसे रूपक वाला गीत उन के पास पहले ही से था । जिस में वह, ‘दिन दुपहरिया, फूल की थरिया’ जैसे मोहक बिंब रच रहे थे । साथ ही , ‘रह-रह झूमे , चेहरा घूमे / डूबा मन तेरी खुशबू में / धूल -धूल खेले गौरइया घिर आई बदरी !’ गा रहे थे । तमाम सीरीज कविताओं में उन की एक सीरीज प्रेम कविताओं पर भी बाकायदा है ही ।
यहां तनहाई का मतलब विसाले-यार भी तो है
अगर दुनिया में दुःख-जंजाल है तो प्यार भी तो है
तो देवेंद्र के यहां प्यार और इस की हरारत , इस की खुमारी और इस का हुलास भी खूब है । वह कहते ही हैं कि :
मेरी कविताओं में दुविधा , निराशा खोजने वालो
मैं केवल मैं नहीं हूं , मुझ में यह संसार भी तो है
या फिर :
जिसको प्यार संजोना आए ।
उसको जादू-टोना आए ।
पत्थर मिटटी हो सकता है,
तुम को अगर भिंगोना आए ।
ऐसे क्यों मिलती हैं ख़ुशियां ,
प्यार में जैसे रोना आए ।
प्यार के अनगिन रूप , अनुपम अनभव और अनूठी भंगिमाएं परोसते हैं देवेंद्र । ऐसे जैसे प्यार परोस नहीं रहे हों , जी रहे हों।
तुम से मिल कर कौन सी बातें करनी थीं, मैं भूल गया ।
शब्द चांदनी जैसे झर गए, मन महुए-सा फूल गया ।
तुम ने एक ओरहना क्या भेजवाया मिलने का,
अपनी ख़ुशी छिपा लेने का मेरा एक उसूल गया ।
बचपन से बचपन टकराया, गंध उड़ी चिंगारी-सी,
मैं अपने ही कंधे पर अपने बेटे-सा झूल गया ।
जैसे औरत वैसे पानी, धीरे-धीरे रिसता है,
पानी में रहते-रहते पत्थर भी एक दिन फूल गया ।
दोनों प्यार के राही थे ,गलबहियां थीं, दीवाने थे,
एक सपने में झूल रहा है, एक पंखे से झूल गया ।
वह कहते ही हैं कि , ‘ होगी जो मुहब्बत तो बताया न जाएगा / और चेहरा भी दर्पण से हटाया न जाएगा।’ वह बताते भी चलते हैं , ‘ तोड़ देती है ज़रा सी चूक, हल्की सी चुभन / चाहना पर तुम किसी को टूट के मत चाहना ।’ या फिर , ‘ दूरी से अगर मिटती दूरी तो मिटा लेते / मौसम के क़रीब आओ , ये प्यास की बातें हैं । ‘ अब अलग बात है कि वह यह भी लिखते हैं , ‘ स्त्री के पार जा के ही / उस के प्यार का पता चलता है / स्त्री के करीब आ के ही उस की नफ़रत का ।’
हिंदी दिवस हमारे देश में एक ख़ास परंपरा बन कर लोगों के दिल-दिमाग में बस चुका है पर देवेंद्र पूछते हैं कि
दोनों बहनें हैं तो फिर उर्दू दिवस काहे नहीं
है कहीं भाषा के नक्शे में हमारे उर्दू ?
वह बताते हैं कि , ‘ सियासी ताने बाने का सुनहरा जाल हो गई हैं / हमारी अस्मिताएं जातिगत फ़ुटबाल हो गई हैं ।’ ऐसे ही तमाम और विषय पर भी देवेंद्र की रचनाओं का हस्तक्षेप निरंतर होता रहता है । दुःख-सुख , घर-परिवार , मित्र -अहबाब , बाज़ार और उस की मार, हेन -तेन, कुढ़न , तपन , गरमी -बरसात सारा कुछ सहज ही देवेंद्र बांचते रहते हैं । और पूरी सहजता , पूरी सादगी से । ऐसे जैसे कोई स्त्री चावल बीन रही हो , मटर छील रही हो , स्वेटर बीन रही हो । अनायास फंदे पर फंदा डालती-उतारती , घटाती-बढ़ाती । सारे संबंधों की किसी मां की तरह तिरुपाई करती देवेंद्र की रचनाओं की कुल ताकत मनुष्यता और मनुष्यता की पहचान ही है। एक समय देवेंद्र कुमार बंगाली के पास मैं जब भी जाता चाहे उन का घर हो या दफ़्तर । वह अगर कुछ रच रहे होते तो अगर पूछता कि क्या कर रहे थे तो वह शर्माते हुए झिझकते हुए कहते, ‘ कुछ नहीं ज़रा एक कविता को साफ कर रहा था । ‘ या कहते , ‘ एक कविता को माज रहा था । ‘ वह लिखते भी थे , ‘ कविता को अच्छी होने के लिए / उतना ही संघर्ष करना पड़ता है, जितना एक लड़की को औरत होने के लिए।’ तो देवेंद्र आर्य भी अपनी रचनाओं पर मेहनत बहुत करते हैं । उसे साफ बहुत करते हैं , मांजते बहुत हैं । यह उन की रचनाओं को देख कर बार-बार लगता है । वह लिखते भी हैं , ‘ जानना , पहचानना , फिर छानना , तब मानना / इतना उद्यम हो सके तुम से तो कविता ठानना ।’ हमारे गोरखपुर में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी हैं । वह कहते हैं और अकसर कहते रहते हैं कि जो अच्छा आदमी नहीं हो सकता , वह अच्छा रचनाकार भी नहीं हो सकता । अच्छा आदमी ही, अच्छा रचनाकार भी होगा । तो लगता है देवेंद्र आर्य ने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की इस बात को अपने जीवन में जी लिया है । सच , देवेंद्र आर्य जितने अच्छे हैं, उतने ही सच्चे भी । कोई दिखावा नहीं । और ऐसी ही अच्छी और सच्ची उन की रचनाएं भी हैं । उन के अच्छे होने का ऐलान करतीं उन की रचनाएं सनद हैं इस बात की। मजनू गोरखपुरी , फ़िराक़ गोरखपुरी , मन्नन द्विवेदी , राम आधार त्रिपाठी जीवन , विद्याधर द्विवेदी विज्ञ , रामदरश मिश्र, देवेंद्र कुमार, परमानंद श्रीवास्तव और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की धरती गोरखपुर का नाम देवेंद्र आर्य भी उसी ताक़त से रोशन कर रहे हैं, जिस ताक़त और तेवर के साथ इन पुरखों ने किया है । हमें इस बात की बेहद खुशी है । बस बाक़ी अगर कुछ है तो यही कि निराला की तरह इन की भी रचनाओं को एक राम विलास शर्मा का मिलना । ताकि इन की रचनाओं का सही मूल्यांकन भी हो सके । हालां कि आज हिंदी आलोचना का मृतप्राय होना और आलोचकों की निष्क्रिय स्थिति बहुत निराश करती है । तिस पर खेमेबाजी ने रचना और आलोचना का सारा खेत खन दिया है । कहूं कि गोड़ दिया है । खनन माफियाओं ने जो हाल धरती , नदी, वन और अन्य संसाधनों का किया है आलोचकों ने उस से भी कहीं ज़्यादा बुरा आलोचना के साथ किया है । बहरहाल अब जो है सो है । इसी में जीना और मरना है ।
बहुतेरे गीतकारों , कवियों का हाथ गद्य में अमूमन मैं ने बहुत तंग पाया है । लेकिन देवेंद्र की किताबों की भूमिकाएं पढ़िए । उन का फुटकर गद्य पढ़िए । उन का गद्य भी उन की रचनाओं की तरह आग से भरा हुआ है । लगभग सभी किताबों की भूमिकाएं बहस-तलब और तार्किक हैं । खौलते हुए सवाल लिए यह भूमिकाएं बहुत सारे विमर्श की राह खोलती हैं । रचनात्मक पीड़ा और रचनात्मक जद्दोजहद की पगडंडी पर खड़ी यह भूमिकाएं लेकिन लोग पी गए । कहीं से कोई सदा न आई वाली बात हो गई । यह दर्द मैं उन का समझ सकता हूं । उन के ही एक गीत में जो कहूं तो :
कितना पीड़ा दायक होता है
सुर में रह कर बेसुर होना ।
जैसे गऊ माता के तलवे और
आदमी का खुर होना ।
सुर में रहने की अभिलाषा
लय में रहने का अनुशासन ।
देशभक्ति की बात तो तब है
जब रहने दे हमें प्रशासन ।
काम पड़े तो आ तू तू तू S S
गरज़ मिटे तो दुर दुर होना !
मैं ने बहुत सारे शहरों और जगहों पर लिखी गज़लें, कविताएं पढ़ी और सुनी हैं । लेकिन ‘ कितना कष्टसाध्य होता है / दिल्ली में गोरखपुर होना !’ लिखने वाले देवेंद्र आर्य ने जिस शिद्द्त और मुहब्बत से हमारे शहर गोरखपुर पर ग़ज़ल लिखी है और क्या झूम कर लिखी है और उस को वहां की ही तरह गोरखपूर से नवाज़ा है , पहले तो कभी किसी ने नहीं नवाज़ा , आगे भी खैर कोई क्या नवाज़ेगा ! यह अपने शहर से इश्क की इंतिहा भी है । हां , इतना इश्क नज़ीर बनारसी को करते पाया है मैं ने लेकिन वह भी गंगा से । लिखने को तो कभी 1967 में पालकी फ़िल्म के लिए हमारे इस शहर जहां कि तीन दशक से अब हम खुद रहते हैं इस लखनऊ के लिए शकील बदायूनी ने भी लिखा है और मुहम्मद रफ़ी ने नौशाद के संगीत में गाया है , ‘ ऐ शहरे लखनऊ ! तुझे मेरा सलाम है / तेरा ही नाम दूसरा जन्नत का नाम है !’ लेकिन लखनऊ शहर शकील बदायूनी का अपना शहर नहीं है । हां , नौशाद के बहनोई हैं वह तो उन की ससुराल ज़रूर है । यह गीत भी सुंदर है, बहुत दिलकश है और रुमानियत से भरा हुआ भी । पर वह नाज़ नहीं है इस गीत में जो अपने शहर का किसी को होता है। पर अपने शहर पर इतना नाज़ किसी और को क्या होगा जितना देवेंद्र को अपने गोरखपूर पर है ! यह नाज़ और यह अंदाज़ ख़ुदा सब को दे । बताइए भला कि किसी शहर का मुख्य बाज़ार क्या उस की मांग का सिंदूर भी हो सकता है ? देवेंद्र आर्य ने गोरखपूर शहर की मांग और उस का सिंदूर भी देखा है गोलघर में । अपने शहर और शहर से जुड़े रहने की सक्रियता और उस की अस्मिता का बेमिसाल नमूना है यह ग़ज़ल ।
दिलों की घाटियों में बज रहे संतूर जैसा हो ।
हो कोई शहर गर तो मेरे गोरखपूर जैसा हो ।
इधर कुसमी का जंगल हो, उधर हो राप्ती बहती,
शहर की मांग में इक गोलघर सिंदूर जैसा हो ।
कबीरा की तरह ज़िद्दी, तथागत की तरह त्यागी,
वतन के नाम बिस्मिल की तरह मगरूर जैसा हो ।
यहीं के चौरीचौरा कांड ने गांधी को बदला था,
भले यह इस समय अपने समय से दूर जैसा हो ।
बहुत मशहूर है दुनिया में गोरखपुर का गीता प्रेस,
नहीं दिखता जहां कुछ भी कि जो मशहूर जैसा हो ।
हुए मजनूं , फ़िराक़ और विज्ञ, राही, हिंदी , बंगाली,
शहर में एक परमानंद कोहेनूर जैसा हो ।
ये है पोद्दार, शिब्बनलाल, राघवदास की धरती,
यहां का आदमी फिर किस लिए मज़बूर जैसा हो ?
है दस्तावेज़, रचना, भंगिमा, जनस्वर, रियाजुल का,
कहां मुमकिन है कोई शहर गोरखपूर जैसा हो ?
हो गोरखनाथ का मंदिर तो एक ईमामबाड़ा भी,
उजाला घर से बेहतर दिल में हो और नूर जैसा हो ।
इबादत इल्म की, इंसानियत की, भाईचारे की,
हमारा रूठना भी प्यार के दस्तूर जैसा हो ।
यही दिल से दुआ करता हूं मैं, तुम को मेरे भाई,
तुम्हारा शहर मेरे शहर गोरखपूर जैसा हो ।
लेखक दयानंद पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है। यह लेख उनके ब्लॉग सरोकारनामा से साभार लिया गया है।
C B Pandey
June 14, 2018 at 11:09 am
बहुत बहुत धन्यवाद, देवेंद्र आर्य जी की दिल को छील देने वाली रचनाएँ हम तक पहुंचाने के लिए। मैने देवेद्र आर्य जी को भले ही पहले नहीं पढ़ा या सुना किन्तु आपकी लेखनी ने ऐसा सम्मोहन किया है कि लगता है कि मैं उनको बचपन से जानता हूँ।