प्रवीण झा-
देबाशीष बनर्जी एक क़िस्सा सुना रहे थे कि रामकृष्ण परमहंस से एक बार ज्ञान और विज्ञान के अंतर पर प्रश्न पूछा गया। परमहंस की ख़ासियत थी कि वह भारी-भरकम शब्दावली न प्रयोग कर, हर प्रश्न पर कुछ लोक-उदाहरण सुना देते।
उन्होंने कहा कि एक व्यक्ति ने जंगल में एक हरे रंग का गिरगिट देखा। उसने अपने मित्र को यह बात कही। वह मित्र भी उस गिरगिट को देखने गया, और लौट कर कहा, “तुम्हारी आँखें तो ठीक है? यह नीले रंग का गिरगिट था।”
ये दोनों इस पर विवाद करने लगे तो एक तीसरा व्यक्ति इनकी पंचायती करने आया। उसने कहा कि तुमलोग मत लड़ो! मैं देख कर आता हूँ, और अंतिम निर्णय देता हूँ।
उन्होंने लौट कर कहा, “दरअसल तुम दोनों ही ग़लत थे। यह गिरगिट हल्के लाल रंग का है। नीला या हरा नहीं। तुम दोनों को भ्रम हुआ है।”
अब वे तीनों लड़ने लगे कि हमने तो ठीक देखा था। आखिर वे तीनों वहीं जंगल में बैठे एक साधु के पास गए, और पूछा कि आप तो यहीं रहते हैं, यहाँ के गिरगिट किस रंग के हैं? हरे, नीले या लाल?
साधु ने समझाया, “यह तो उस गिरगिट का चरित्र है कि वह रंग बदलता रहता है।”
परमहंस कहते हैं कि इन तीनों व्यक्तियों के पास अपनी-अपनी दृष्टि से ज्ञान था, जानकारी थी, जो उनकी नज़र में सही भी थी। किंतु विज्ञान साधु के पास था, जो ऐसे कई ज्ञानों के समुच्चय से निष्कर्ष की ओर पहुँचा था।