संजय कुमार सिंह
पटना में कल हुई विपक्ष की रैली की खबर आज दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइम्स में सेकेंड लीड और कोलकाता के द टेलीग्राफ के पहले पन्ने पर राहुल गांधी और लालू यादव की तस्वीर के साथ चार कॉलम में छपी है। इंडियन एक्सप्रेस में फोटो के साथ दो कॉलम में, टाइम्स ऑफ इंडिया में टॉप पर सिंगल कॉलम में है। नवोदय टाइम्स में, “नीतीश चाचा जी जहां रहें खुश रहें : तेजस्वी” शीर्षक से फोटो के साथ चार कॉलम में है। हिन्दी अखबारों में अमर उजाला और अंग्रेजी अखबारों में द हिन्दू में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। मुझे लगता है कि चुनाव के इस मौसम में पटना की कल की रैली बहुत महत्वपूर्ण थी और अच्छी-खासी संख्या में जनता के साथ नेता भी जुटे थे लेकिन अखबारों में उसे राहुल गांधी की ‘न्याय यात्रा’ की ही तरह महत्व नहीं मिला। निश्चित रूप से यह संपादकों के विवेक और अखबारों की स्वतंत्रता का मामला है।
अखबार जब खुलकर भाजपा का समर्थन कर रहे हैं तो भाजपा पर यह आरोप भी रहा है कि कई मामले में उसने कार्रवाई नहीं की है और अपराधियों को संरक्षण दिया है। चुनाव से पहले ये दाग मिटाने वाली पहले पन्ने की आज की कुछ खबरों के शीर्षक देख लीजिये। 1. मणिपुर में हथियारों की चोरी के सिलसिले में सात के खिलाफ चार्ज शीट 2. बिना नियंत्रण चली ट्रेन के मामले में स्टेशन मास्टर समेत चार बर्खास्त 3. मेनका गांधी, ब्रजभूषण सिंह, वीके सिंह को टिकट की घोषणा नहीं हुई 4. मुंबई में एफआईआर, मनी लांड्रिंग में 150 बैंक खाते ईडी की निगरानी में 5.बेंगलुरु कैफे ब्लास्ट के लिए चार संदिग्ध नजर में 6. एनएचएआई के महाप्रबंधक घूसखोरी में गिरफ्तार, 7. ग्वालियर में भाजपा कार्यालय के सामने गोलीबारी और 8. ताइवान ने चीन से कहा – हम तुम्हारी कठपुतली नहीं। भारत और हम दोनों आजाद मीडिया वाले लोकतंत्र हैं।
देश में आम चुनाव की घोषणा से ठीक पहले प्रधानमंत्री चुनाव के बाद के 100 दिनों की योजना बना रहे हैं। कल चुनाव से पहले मंत्रिपरिषद को अंतिम बार संबोधित किया और 10 दिन में 12 राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में 29 कार्यक्रम करने वाले हैं तो अखबार क्या बता रहे हैं और क्या नहीं, यह चुनाव की दृष्टि से जरूरी है और देश में लोकतंत्र की रक्षा के लिए निष्पक्ष तथा समान स्थितियों में चुनाव के लिए जरूरी है। आप जानते हैं कि इलेक्टोरल बांड से भारी वसूली कर चुकी सत्तारूढ़ पार्टी के शासन में कांग्रेस की न्याय यात्रा के दौरान आयकर के एक पुराने मामले में जुर्माने की राशि वसूलने के लिए अपील पर सुनवाई से कुछ ही दिन पहले कांग्रेस के खाते फ्रीज कर दिये थे। शोर करने पर खातों को फिर उन्हें खोल दिया पर इस शर्त के साथ कि जुर्माने की रकम खाते में रहे, न निकाली जाये। कांग्रेस ने कहा था कि उतनी रकम है ही नहीं तो फ्रीज खत्म करने का मतलब नहीं है।
यह भी आरोप था कि खाते से पैसे जबरन निकाल लिये गये। हालांकि, मुझे यह माजरा समझ में नहीं आया पर ठीक से खबर भी नहीं छपी। इससे पहले जब कांग्रेस ने चंदा अभियान डोनेट फॉर देश शुरू किया था तो भाजपा ने खेल कर दिया था। इस नाम से डोमेन पंजीकृत करवाकर अनजान लोगों से कुछ दूसरे लोगों से चंदा वसूल लिया जबकि कांग्रेस का डोनेशन लिंक डोनेट आईएनसी डॉट इंक था। कुल मिलाकर यह ठगी और अपराध का मामला था पर ज्यादातर अखबारों की खबर ऐसे छपी थी जैसे कांग्रेस की गलती थी कि उसने इन वैकल्पिक नामों के डोमेन पंजीकृत नहीं कराये। कुछ लोगों ने तो यहां तक लिखा कि इस आशंका से बचने के लिए कांग्रेस को डॉट इन, डॉट ऑर्ग और डॉट कॉम सब पहले ही पंजीकृत करा लेने चाहिये थे ताकि अपराधियों को ये नाम मिलते ही नहीं।
इस तरह, ठगी और लूट के साथ एक अनैतिक व नीच राजनीति का मामला कांग्रेस की लापरवाही के रूप में प्रचारित किया गया था। ऐसे में मीडिया क्या कर रहा है यह देखना और जानना दिलचस्प है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें इस तरह के कुतर्क और प्रचार सेवा शामिल है। द टेलीग्राफ की तब की एक रिपोर्ट के मुताबिक, डोनेट फॉर देश डॉट ऑर्ग और डोनेट फॉर देश डॉट कॉम विजिट करने वाले को बीजेपी और ऑपइंडिया के डोनेशन पेज पर ले जाते थे। इस तरह एक बीजेपी के डोनेशन पेज और दूसरा ऑपइंडिया के डोनेशन पेज पर रिडायरेक्ट हो जाता था। ऐसा ही डोनेट फॉर देश इन के साथ था। इनका कांग्रेस या उसके कैंपेन से कोई संबंध नहीं था। ऐसी ही खबरों, जिसे हेडलाइन मैनेजमेंट भी कहा जाता है, के क्रम में आज के अखबारों की लीड सरकार की चुनाव बाद की तैयारी है।
इस मंत्रिपरिषद की अंतिम बैठक की खबर निश्चित रूप से लीड है जबकि कई मंत्रियों के टिकट कट चुके हैं और कटने की आशंका है। इसलिए टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी लीड के साथ की खास बिन्दुओं को दो हिस्सों में छापा है – मंत्रियों को सलाह और नौकरशाहों को संदेश। इसमें चुनावी मौसम में आप किससे मिलते हैं उसपर सतर्क रहने की सलाह शामिल है। टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड का शीर्षक है, बोलते वक्त संयम रखें। लेकिन पेशे से डॉक्टर और बहुत कम समय स्वास्थ्य मंत्री रहे, केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन, पृथ्वी विज्ञान मंत्री हर्षवर्धन ने अपनी बात खुलकर कही है (संभव है संदेश मिलने से पहले कहा हो)। आज अखबारों में जो छपा है उससे लगता नहीं है कि संयम बरता है। वैसे भी चुनाव न हारने और जनता में अच्छी छवि होने के बावजूद अगर टिकट नहीं मिलने की घोषणा चुनाव की घोषणा से पहले हो जाये तो कैसा संयम और क्या संयम।
हर्षवर्धन ने राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा कर दी है। इसका मतलब तो यही होता है कि अब वे राज्यपाल बनकर किसी राजभवन को भाजपा कार्यालय भी नहीं बनायेंगे और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ काम करने को सौभाग्य बता चुके हैं। इसलिए मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री का संदेश इतनी बड़ी खबर नहीं थी कि उसे लीड बनाया जाता लेकिन आज इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया और द हिन्दू में भी यही लीड है। अमर उजाला, नवोदय टाइम्स भी अपवाद नहीं हैं। अकेले द टेलीग्राफ ने इसे लीड नहीं बनाया है। हो सकता है, असामान्य द टेलीग्राफ ही हो पर यह बैठक इतवार को नहीं हुई होती तो आज पटना की रैली बड़ी खबर होती। भले तब अखबार किसी और खबर को प्रमुखता देते। रैली और बैठक एक ही दिन होना, संयोग हो सकता है और यही हेडलाइन मैनेजमेंट है।
भाजपा के प्रति अखबारों का यह नरम रवैया अक्सर, कई खबरों से दिखता है। आज भी दिख रहा है। उदाहरण के लिए भाजपा ने जिन लोगों को टिकट देने की घोषणा की है उनमें एक नाम भोजपुरी गायक पवन सिंह का आसनसोल से है। आसनसोल से इस समय फिल्म अभिनेता और बिहारी बाबू, शत्रुघ्न सिन्हा तृणमूल कांग्रेस के सांसद हैं जो उपचुनाव में जीते हैं। ऐसे में भोजपुरी गायक पवन सिंह को बिना सोचे-समझे और सहमति के उम्मीदवार नहीं बनाया गया होगा। चुनाव घोषणा से पहले उम्मीदवारों की घोषणा में इतनी सावधानी नहीं बरती गई हो तो यह अति आत्मविश्वास का मामला है और यह पवन सिंह या भाजपा या दोनों का हो सकता है। दूसरी ओर, भोजपुरी गाने तो अश्लील होते ही हैं और भोजपुरी गायक अभिनेता भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत चुके हैं। मनोज तिवारी को भी टिकट देने की घोषणा हुई ही है।
फिर भी पवन सिंह ने टिकट देने की घोषणा के बाद चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा की है तो यह बड़ी बात है। भाजपा की मजबूरी और चुनाव जीतने की संभावना, दोनों का पता चलता है। चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा पवन सिंह की स्वयं की हो या कहने पर की गई हो, तथ्य यही है कि उम्मीदवार चुनने में गलती हुई है। उससे भाजपा की हालत भी पता चलता है। वे आसानसोल की जगह बिहार यूपी ही नहीं, दिल्ली से भी उम्मीदवार होते तो शायद उनका अश्लील गाना मुद्दा नहीं बनता। बंगाली लड़की पर टिप्पणी मुद्दा नहीं बनता जबकि इस कारण बंगाल से उनके जीतने की आशंका भी कम होती है। ऐसे में आज इस मामले की खबर देखिये। खास तथ्यों को जैसे गायब कर दिया गया है, वह महत्वपूर्ण है। अकेले द टेलीग्राफ ने आज पवन सिंह के मामले को लीड बनाया है। शीर्षक है, पवन का मामला बेहद गर्म, संभालना मुश्किल। इसका फ्लैग शीर्षक है, भाजपा ने आसनसोल के लिए चुने गए विवादास्पद उम्मीदवार को छोड़ा।
मुख्य खबर के साथ पवन सिंह की फोटो और महुआ मोइत्रा की ट्वीट भी है। इसके साथ सिंगल कॉलम की एक खबर में कहा गया है कि कोलकाता हाईकोर्ट के जज, न्यायमूर्ति अभिजीत गंगोपाध्याय इस्तीफा देंगे, 5 मार्च पर नजर। वैसे तो यह खबर दूसरे अखबारों में भी है और न्यायमूर्ति गंगोपाध्याय भाजपा में शामिल हो सकते हैं। पर इससे महत्वपूर्ण खबर है, भाजपा का टिकट पाने वालों की पहली सूची में केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी का नाम होना। टेलीग्राफ की इस खबर के अनुसार टेनी को मंत्रिमंडल से निकालने की मांग करने वाले किसान इससे भी नाराज हैं लेकिन खबर पहले पन्ने पर नहीं है। आप जानते हैं कि इन बेटे पर प्रदर्शनकारी किसानों को कुचलकर मार डालने का है। इस बीच खबर यह भी है कि पाकिस्तान में नई सरकार बन गई है और नये प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने कश्मीर की तुलना फिलिस्तीन से की है और दोनों की आजादी की जरूरत बताई है। अखबार ने यह भी लिखा है कि भारत ने इसपर तत्काल प्रतिक्रिया नहीं दी है।
पवन सिंह के मामले में तृणमूल कांग्रेस के आधिकारिक हैंडल से बांग्ला में एक वीडियो बयान ट्वीट किया गया है। उसके साथ अंग्रेजी में लिखा है (हिन्दी अनुवाद मेरा), “प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बंगाल आये और नारी शक्ति पर ज्ञान देकर पवन सिंह को लोकसभा (चुनाव) का टिकट सौंप दिया। एक नीच जो महिलाओं पर अश्लील गीत बनाने के लिए कुख्यात है। पर बंगाल के जबरदस्त विरोध के बाद सिंह को नामांकन वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।“ बीबीसी की एक खबर के अनुसार, “भाजपा प्रवक्ता शमीक भट्टाचार्य ने शनिवार रात कहा था, “साफ़ है कि तृणमूल कांग्रेस चुनाव से पहले ही आसनसोल सीट पर हार मान चुकी है। यह हमले उसकी हताशा का प्रतीक हैं।” यहां यह बता दूं कि भोजपुरी मेरी मातृभाषा है और मैं भोजपुरी गाने नहीं सुनता। इस विवाद से पहले मैंने पवन सिंह का नाम भी नहीं सुना था। ऐसे ही विवाद से पता चला था कि लहंगा उठा देब रिमोट से गाने वाले भी भाजपा सांसद हैं। 75 साल की हेमा मालिनी को टिकट की घोषणा हो चुकी है तो जब ले चुम्मा ना चिखईबू होठललिये से त ले आईब सौतिन बंगलीये से … गाने वाले को सांसद बनाने का प्रयास है।
रवीश कुमार के ट्वीट के अनुसार, “…भोजपुरी क्षेत्रों के लोगों के लिए कोई भी स्थायी शहर नहीं है। उन्हें आज न कल कहीं भागकर जाना होता है। साथ जाती है भोजपुरी और उसके गाने। सूरत से लेकर दिल्ली तक के जिन बंद कमरों में लेबर क्लास रहता है, वहाँ इन गानों के ज़रिए सपने पैदा किए जाते हैं। कम मज़दूरी के कारण वह जीवन में कुछ हासिल नहीं कर पाता है, बस सपना देखता है बंगाल की माल का और लंदन की लवंडिया का। भोजपुरी के ये गायक लड़कियों के देह का वर्णन ऐसे करते हैं ताकि सुनने वाले को लगे कि विकास का मतलब बेहतर जीवन पाना नहीं है। लंदन की लवंडिया का देह पाना है। … वैसे भारत अकेला देश है, जहां नारी की पूजा होती है। बंगाल की माल और लवंडिया लंदन की उसी पूजा के पूजनीय मंत्र हैं। पता नहीं बाक़ी दुनिया की नारियाँ कैसे जीती हैं, उनकी पूजा भी नहीं होती। अभागन हैं।“
इन तथ्यों और ऐसे विचारों के बावजूद आज अमर उजाला की खबर का शीर्षक है, महिलाओं पर अभद्र गाने से पवन की उम्मीदवारी पर ब्रेक। उपशीर्षक है, सोशल मीडिया पर वायरल हुए गाने तो भोजपुरी स्टार को चुनाव लड़ने से करना पड़ा इन्कार। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें उम्मीदवार के चयन पर कोई टिप्पणी नहीं है। उससे पूरी तरह बचा गया है और इतना ही नहीं, नड्डा से करेंगे मुलाकात के तहत लिखा है, “भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पवन को दिल्ली बुलाया है। माना जाता है कि पवन को दूसरी सीट से प्रत्याशी बनाये जाने या कोई बीच का रास्ता निकालने की कोशिश होगी। चर्चा है कि पवन बिहार से टिकट चाहते हैं।“ कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा को या अमर उजाला को पवन को सांसद बनाये जाने से दिक्कत नहीं है। बंगाल से संभव नहीं हुआ तो बिहार से बन जाये और चूंकि जीत सकते हैं इसलिए भाजपा कोशिश कर रही है कि 400 पार में मदद मिल जाये। और यह गलत कैसे हो सकता है। मुद्दा यह है कि ऐसी हस्तियों के दम पर लोकप्रियता और जनादेश पाने का मतलब तानाशाही हो तो अखबार उसका भी समर्थन करेंगे। करते ही रहे हैं और इसमें सरकार या भाजपा का विरोध देशद्रोह बन जाता है। महिला या नारी को लवंडिया कहने मानने समझने वालों के दम पर नारी शक्ति के लिए काम करने का भी दावा किया जाता है। चिन्मयानंदो, कुलदीप सेंगरों और ब्रजभूषण सिंहों के लाथ मिलकर।
रोज इस तरह कई खबरों की चर्चा की जा सकती है। समझना तो पाठकों को है। मैं यहां एक दो खबरों की चर्चा करके बताना चाहता हूं कि ज्यादातर अखबार सरकार की सेवा में मीडिया का अपना मूल काम नहीं कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, मैंने लिखा था कि पुलवामा 14 नवंबर को हो गया था। इस बार अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ है कि सरकार के पक्ष में माहौल बने। इस क्रम में बेंगलुरु के कैफे में विस्फोट के बाद चीन से पाकिस्तान जा रहे कनसाइनमेंट को रोके जाने और उसकी खबर कई दिनों बाद द हिन्दू में लीड बनी। आज जब ज्यादातर अखबारों में (पहले पन्ने पर) इस खबर का फॉलो अप नहीं है तो द हिन्दू ने ही बताया है कि पाकिस्तान के अनुसार भारत में इस सामान को जब्त किया जाना अनुचित है। तो किया क्यों गया – यह मुद्दा नहीं है। जो भी हो, मामला भारत पाकिस्तान संबंध का है और इसे चुनाव में फायदे के लिए रंग दिया जा सकता है। खबर छपती रहे तो यह संभव नहीं होगा लेकिन अचानक कुछ भी बताकर मामला स्पष्ट होने तक खेल हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। नजर संपादकों को रखना है पर पाठक तो रखें।
यही नहीं, विदेशी महिला से बलात्कार की खबर का फॉलो अप भी आज पहले पन्ने की खबरों में नहीं है। सिर्फ टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में छापा है। भले ही यह मामला विपक्ष शासित राज्य में हुआ है पर इसमें हिन्दू-मुसलमान का एंगल नहीं है इसलिए इसपर शोर कम है। भाजपा वाले अपनी गलती हो तो कुछ भी मुद्दा नहीं बनाते हैं। और यही काम मीडिया भी करता है। विदेश मामलों से संबंधित यह खबर गैर भाजपाई सरकार झारखंड की है फिर भी आम अखबारों में नहीं है तो इसका कारण यह हो सकता है कि मुख्यमंत्री को हाल में जबरन गिरफ्तार किया गया और मौजूदा सरकार या राजनीति इसे मुख्यमंत्री बदलने की अस्थिरता से जोड़कर भाजपा के सिर न मढ़ दे।