आलोक पाठक-
बनारस में टीवी9 वाले हेमंत शर्मा को 62वें जन्मदिन की बधाई देने के लिए उनके किसी प्रशंसक ने शहर के मुख्य चौराहे पर पीडब्ल्यूडी के ही बोर्ड पर फ्लेक्स टांग दिया।

मजेदार बात ये है कि ये बोर्ड गदौलिया से चौक जाने वाले रास्ते पर है और जिले के सभी बड़े अधिकारी इस मार्ग से आते जाते हैं पर किसी की निगाह वहां नहीं गई।
बनारसी ठाठ के साथ साठ पार की यात्रा
शंभूनाथ शुक्ल–
लेफ्ट और राइट के बीच सेतु बन जाना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। न अति वाम न अति दक्षिण, ऐसा व्यक्ति ही कबीर बनता है। आज मैं जिस शख़्स की बात कर रहा हूँ उसमें कबीर जैसी फक्कड़ी है तो तुलसी जैसा विशद ज्ञान और गंभीरता। जिसका एक दर्शन ही आपकी बेचैनी, उदासी और दुःख को दूर कर देता है। यह मित्र हैं श्री Hemant Sharma. उनकी कालजयी पुस्तक ‘द्वितीयोनास्ति’ का विमोचन करने प्रख्यात आलोचक और हिंदी में वाम धारा के अग्रणी डॉ. नामवर सिंह और राम कथा के लोकप्रिय वाचक मुरारी बापू एक साथ आए थे। उनका दर्शन सदैव शुभता ले कर आता है। यह मेरा निजी अनुभव तो है ही, समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सदस्य श्री राम गोपाल यादव ने तो बनारस में हुए “साठ के हेमंत” समारोह में यही बात मंच से कही।
पत्रकारिता के शिखर पुरुष हेमंत शर्मा के ठाठ वही ठेठ बनारसी है। भले वे ढाई दशक से दिल्ली में बसे हों और उसके पहले का दशक लखनऊ में गुज़ारा हो किंतु बनारस उनकी रग-रग में व्याप्त है। अभी 15 सितम्बर को उन पर लिखे गए समाज के विभिन्न लोगों के संस्मरणों का संकलन आया, साठ के हेमंत। इस पुस्तक के संपादक भाई उमेश प्रसाद सिंह ने मुझे भी न्योता था, किंतु मेरा दुर्भाग्य कि जब मैं बनारस के लिए नयी दिल्ली स्टेशन पर वन्दे भारत ट्रेन पकड़ने के लिए पहुँचा, तब तक वह ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म छोड़ चुकी थी। अब कुछ भी नहीं हो सकता था। इस तरह मैं एक भव्य और दिव्य कार्यक्रम का सहभागी होने से वंचित रह गया। हेमंत शर्मा एक पत्रकार से अधिक एक ऐसे ज़िंदादिल इंसान हैं, जिनको देख कर आपका तनाव छू-मंतर हो जाता है। आप कितने भी उदास या निराश बैठे हों, हेमंत का फ़ोन आ जाए, तो आपका चेहरा खिल उठेगा। हेमंत जैसे लोग आम जन नहीं होते, मैं उन्हें भोले शिव का अवतार कहता हूँ। उनके लिए प्रधानमंत्री का बुलावा आए और बनारस के पहलवान यादव का तो पक्का मानिए, हेमंत अपने बनारसी मित्र यादव जी के यहाँ अवश्य पहुँचेंगे।
एक बार मैंने उन्हें अपने घर बुलाया, हेमंत शर्मा सपत्नीक पधारे। अब मेरे घर पर डायनिंग टेबल तो थी नहीं। मैंने फ़र्श पर चटाई बिछा दी और थाली में दाल-चावल परोस दी। दाल थाली में फैल गई। हेमंत ने चम्मच को थाली के नीचे रखा और भोजन किया। ऐसी सादगी तब, जब वे टीवी 9 भारत वर्ष में न्यूज़ डायरेक्टर हो चुके थे। ऐसे हेमंत के कार्यक्रम में न पहुँच पाना कितना दुःखद लगा। उनकी धर्मनिरपेक्षता, समानता, भाईचारा और सद-व्यवहार का एक उदाहरण कि असदुद्दीन ओवैसी और स्वामी रामभद्राचार्य एक साथ उनके बुलावे पर एक मंच पर आ जाते हैं। सपा के राज्यसभा सदस्य राम गोपाल यादव और बाबा राम देव, अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कवि कुमार विश्वास और भारत सरकार के शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान इस समारोह में बनारस पहुँचे। इस पुस्तक में मेरा भी एक संस्मरण है।
अपने पांच दशक के पत्रकारीय जीवन में मैंने दूसरा हेमंत शर्मा नहीं देखा। एक ऐसा पत्रकार जिसकी जनसत्ता के गौरव काल के वक्त अनवरत दस साल तक पहले पेज पर उपस्थिति अनिवार्य थी। 1988-89 से लेकर 1998 तक हेमंत शर्मा की स्टोरी जनसत्ता में या तो लीड बनती अथवा बॉटम। हेमंत लखनऊ में हों या न हों, मगर उनकी स्टोरी के बिना जनसत्ता का प्रभात संस्करण छूटता तक नहीं था। यहाँ तक कि 1990 में जब हेमंत शर्मा अपनी लगुन में बैठे थे, दिल्ली से फ़ोन खटक रहा था कि हेमंत की स्टोरी कहाँ है? शुक्र है कि तब मोबाइल फ़ोन नहीं था, वर्ना दिल्ली डेस्क से कोई चीफ़ सब उनको भाँवरों से उठा देता। कहता, हेमंत जी स्टोरी भेज दो, भाँवरें तो हो जाएँगी। और यकीनन हेमंत जी की स्टोरी फ़ैक्स से आ जाती। हेमंत जी ने अपनी लेखनी से किसी को बख्शा नहीं और किसी पर अपुष्ट आरोप नहीं लगाए। इसीलिए इस अवधि में जब उत्तर प्रदेश की राजनीति पल-पल बदल रही थी, हेमंत शर्मा पर कभी अँगुली नहीं उठी।
हेमंत शर्मा मिलनसार और मददगार भी हैं।ऐसे कि 1989 के दौरान जब वे लखनऊ में जनसत्ता के उत्तर प्रदेश ब्यूरो के मुखिया थे, तब उनका वेतन था, 5000 रुपए पर मित्रों को नरही की दूध-रबड़ी खिलाने का बिल आता 8000 रुपए। वे न सिर्फ़ खिलाते-पिलाते हैं बल्कि मदद भी इस क़दर विनम्रता के साथ करते हैं, कि मदद कर ख़ुद ग़ायब हो जाते हैं, ताकि मदद पाने वाला शर्मिंदगी न महसूस करे। ऐसे हैं हमारे मित्र हेमंत शर्मा।हो सकता है वे वर्षों तक न मिलें, किंतु अगर उन्हें पता चला गया, कि आप किसी समस्या में हैं तो आपके बिना कहे उसका समाधान हो जाएगा। आप सोचते रह जाओगे, कि यह अनुकंपा किसकी हो गई। हेमंत शर्मा से अपनी मित्रता 1984 से है। मैं उनकी रिपोर्टिंग, उनकी लेखन शैली, हर चीज़ की तह तक जाने की उनकी तत्परता और हर पहलू पर उनकी तीक्ष्ण नज़र का क़ायल रहा हूँ। पर ज़रूरी नहीं रहा, कि हम रोज मिलते रहे हों या फ़ोन पर बात करते रहे हों, किंतु एक-दूसरे की कुशल-क्षेम अवश्य पता करते रहे। लेकिन मैंने पाया कि जब भी मैं किसी संकट में आया, हेमंत किसी संकट-मोचक की तरह मेरे साथ खड़े हैं। मैंने जब जनसत्ता छोड़ने का निश्चय किया तब भी और जब अमर उजाला से इतर जाने का फ़ैसला हो तब भी। हेमंत शर्मा हर तरफ़ से मदद को हाज़िर थे। और अकेले मेरे लिए ही नहीं, वे अपने सभी मित्रों के संकट मोचक रहे हैं। वह भी इस तरह से कि अगले को पता ही नहीं चला कि उसकी मदद कौन कर गया
ऐसे मित्र हेमंत शर्मा का आज जन्मदिन है। नीचे मैं उन्हीं का लिखा एक पीस दे रहा हूँ। जो जस का तस उन्हीं का है, बस मैंने इसे एडिट किया है क्योंकि 15 साल तक लगातार उनकी हर कॉपी को मैं ही एडिट करता था। और वर्ष के 365 दिनों में से कभी उनकी कॉपी कभी न आए तो मैं फ़ौरन उन्हें एसटीडी कॉल करता। इसलिए यह कॉपी भी मैंने एडिट की। आख़िर डेस्क के आदमी को यह ज़िम्मेदारी तो पूरी करनी ही पड़ती है।
“तो मित्रों, मैं हेमन्त शर्मा वल्द मनु शर्मा, क़द-पॉंच फुट दस इंच, सफ़ेद बाल, मूँछें काली क़ौम- सनातनी ब्राह्मण, पेशा- अख़बार नवीसी और अफ़साना नवीसी, साकिन- कबीर चौरा, जिला बनारस, हाल मुक़ाम दिल्ली, ज़िन्दगी के साठ बरस पूरे कर रहा हूँ।आस्तिक हूँ। घरेलू संस्कारों से धार्मिक हूँ।पर पोंगा पंडित नहीं हूँ। मैं आधुनिक जातिविहीन हक़ीक़त को समझने वाला सर्वसमावेशी हिन्दू हूँ। किसी धर्म-जाति से परहेज़ नहीं है। मेरा धर्म मुझे मनुष्य मात्र से बांधता है। लोगों को इकट्ठा कर उत्सवधर्मिता सिखाता है और जीवन को मेल-जोल, उत्सव-आनंद के साथ जीने की प्रेरणा देता है। कुल मिलाकर यही अपनी पहचान है।
संकोच था कि अपने बारे में क्या लिखूँ। अपने बारे में लिखना एक रोग है आजकल जिससे हर कोई बेचैन है। तो मैंने सोचा कि होली दिवाली में, मैं भी ललही छठ्ठ क्यों न लिखूँ? कोरोना वायरस ने वक्त को रोक लिया है। रूके हुए वक्त में पीछे देखने को मजबूर किया है। अज्ञेय के शब्दों में, समय ठहरता नही। अगर ठहरता है तो सिर्फ़ स्मृतियों में। तो पेश है, मेरी स्मृति की मंजूषा से निकला मेरा अब तक का सफ़रनामा।
बचपन बनारस में छूट गया। जवानी लखनऊ में बीती और अब उत्तरार्द्ध में दिल्ली वास। मैंने पहले ही कहा था कि इस जीवन में गड्डे भी है और खण्डहर भी। तो शुरूआत खण्डहर से। २७ सितंबर पितृपक्ष की तृतीया के रोज़ बनारस के दारानगर के मध्यमेश्वर के पास जिस खण्डहर नुमा घर में मैं पैदा हुआ, वह खपरैल का कच्चा घर था। दालान का दरवाज़ा गिर गया था। छत छलनी थी। मिट्टी की ऊबड खाबड़ फ़र्श और टूटी छप्पर। पैदा होते ही ज़बर्दस्त पानी। ‘घन घमण्ड नभ गरजत घोरा!’ पानी चार घंटा बरसा और छत रात भर बरसती रही। इस बरसात ने माता की प्रसव पीड़ा को भुला दिया। मॉं और दादी मिल कर रात भर छप्पर से चूते पानी के नीचे कहीं परात तो कहीं बाल्टी रखती रहीं और पानी से बचाने के लिए मेरा स्थान परिवर्तन करती रही। यानी मैं बरसात का आनन्द लेते हुए पैदा हुआ। इसलिए आज भी काले बादल मुझे अपनी ओर खींचते है।
बनारस का दारा नगर मुहल्ला दारा शिकोह के नाम पर है। दारा शिकोह जब अपने भाई औरंगजेब से बग़ावत कर संस्कृत पढ़ने बनारस आया तो इसी मुहल्ले में रहता था।मेरे जन्मस्थान से दो सौ मीटर बाएं काशी का प्रसिद्ध मृत्युजंय महादेव का मंदिर और दो सौ मीटर दाँए मध्यमेश्वर का प्राचीन मंदिर था। दो जागृत शिवलिंगों के बीच जन्म के कारण अपना नाता महामृत्युंजय से दोस्ताना रहा। जिस खण्डहर में मैं जन्मा वह किराए का था। चन्दौली के एक बाबू साहब का। पिता के दिन अब अच्छे होने की ओर थे। वे चपरासी से लाईब्रेरियन होते हुए अध्यापक हो चुके थे। उन्हें यह मुश्किल इसलिए उठानी पड़ी कि दादा जी का कपड़ों का कारोबार था। पर आज़ादी और आर्यसमाज के आन्दोलन में सक्रिय रहने के कारण वे कभी लाहौर जेल में होते तो कभी अम्बाला में। वे समाज को समर्पित थे, सो कारोबार चौपट। पॉंच भाई बहनों का परिवार चलाने की ज़िम्मेदारी पिता के अबोध और कमजोर कन्धों पर आ गयी। इसलिए आठवीं के बाद उन्होने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा। दिन में फेरी लगाते या फुटपाथ पर गमछे बेचते और रात में पढते । फिर प्राईवेट इम्तहान देते। इसलिए गमछे से अपना सांस्कृतिक परंपरागत रिश्ता है। लिखने पढ़ने में पिता जी को अपने नाना से सहयोग मिलता। वे साहित्यिक रूचि के थे। नाना के पिता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के चाकर अभिवावक थे। भारतेन्दु बाबू ने अपनी लिखने वाली एक डेस्क पिता के नाना को दी। उनसे होते हुए वो डेस्क पिता और फिर मुझ तक आते आते लगभग लकड़ियों में तब्दील हो गयी थी पर आई। यही अपनी लेखकीय विरासत थी।
जन्म लेने के आठ महीने बाद ही हम अपने मौजूदा घर पियरी पर आ गए।इसलिए मेरी दादी और मॉं मुझे परिवार का शुभंकर मानती थीं। मेरे जन्म लेने के बाद स्थितियॉ बदलीं। हम अपने मौजूदा घर में आ गए।राजपूताने से अहिराने में। यादवों का मुहल्ला। मैं गाय और गोबर में बड़ा हुआ। मेरे दिमाग में जो गोबर तत्व आपको मिलेगा, शायद इसी वजह से। बग़ल में औघड़नाथ तकिया। जुलाहा कबीर को ब्रह्मज्ञान यहीं हुआ था। लहरतारा से कपड़ा बुनकर, जब वे बाज़ार जाते तो यहीं ठहर औघड़ साधुओं से ज्ञान लेते। बड़ा वैचारिक संघर्ष का माहौल था बचपन में। बग़ल में निर्गुण कबीर। घर में परम सनातनी दादी। जिनकी सुबह रोज़ गंगा स्नान और महामृत्युंजय से लेकर काशी विश्वनाथ के दर्शन से होती और दादा जी परम आर्यसमाजी। वे अकबरपुर ( फैजाबाद) के आर्यसमाज के संस्थापक रहे। दादी आधे दिन अपने आराध्यों, देवो की मूर्ति के सामने होतीं और दादा जी मूर्ति पूजा के सख़्त विरोधी। एक परम मूर्तिपूजक, दूसरा मूर्तिपूजा का परम विरोधी। एक कहे ‘अंत काल रघुवरपुर जाई’ और दूसरा कहे ‘अंत काल अकबरपुर जाई‘। घर में रोज़ सनातन धर्म के पक्ष और विपक्ष में शास्त्रार्थ होता। सोचिए एक परिवार में इतनी धार्मिक धाराएँ! यही सॉंस्कृतिक विरासत अपने मूल में है।
घर के पड़ोस में भुल्लू यादव के स्कूल में गदहिया गोल (तब नर्सरी का यही नाम होता था) में मेरा दाख़िला हुआ। तो भंतो! यादव जी के अक्षर ज्ञान से अपना शैक्षिक जीवन शुरू हुआ। यादवी संस्कार मिले। दूसरी जमात तक यहीं पढ़ा। तीसरी में आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की संस्था द्वारा संचालित हरिश्चन्द्र मॉडल स्कूल पढ़ने चला।फिर दसवीं तक यहीं था।जीवन में अराजकता, उद्दडंता, शरारत, खिलंदड़ापन और रंगबाज़ी ने यहीं प्रवेश किया। बाहरी दुनिया से भी सामना यही हुआ।अध्यापकों से चुहलबाजी हो या स्कूल से भागकर सिनेमा देखना हो। मेरे चरित्र के चौखटे में सारे ऐब यहीं जड़े गए। बेफ़िक्री में पगा यह शरारती स्कूली वक्त जीवन में फिर नहीं आया।
तीसरी-चौथी तो ठीक से बीती पर पॉंचवी तक आते-आते बनारसी रंग चढ़ चुका था। मेरे जीवन मे अब तक कई नए और दिलचस्प किरदार दाखिल हो चुके थे। मोछू उनमे से एक थे। स्कूल के बाहर झाल मूड़ी बेचने वाले मोछू हमारे स्कूल में हमारे स्थानीय अभिभावक जैसे थे। मेरे पैसे उनके पास जमा रहते थे। हर रोज़ मूड़ी खिलाते फिर इकट्ठे एक रोज़ पैसे लेते। कभी कभी कुछ और खाना होता तो अपने पास से भी पैसा देते। मोछू दिलदार आदमी थे।
पढ़ाई में अपना सबसे निकट साथी अस्थाना था जो रुड़की से इंजीनियरिंग कर इण्डियन आयल में शीर्ष पर पहुँचा। बदमाशियों में मेरा अज़ीज़ जायसवाल था जिसने स्कूल से भाग कर सिनेमा देखना सिखाया। आनन्द मंदिर में उसके पिता मैनेजर थे। मैंने महज साढ़े सात बार शोले वहीं देखी। प्रोजेक्टर रूम में बैठ कर। शोले हाउस फ़ुल होती थी। प्रोजेक्टर रूम में एक छेद ख़ाली होता था जिसमें से इंटरवल में विज्ञापन वाली स्लाईड चलती थी। मुझे सिनेमा देखने के बदले इण्टरवल में वही स्लाईड खिसकानी होती थी। मैं वो कर देता था।
बीए बीएचयू से किया फिर एमए में दाख़िला जेनयू में हुआ पर एमए किया बीएचयू से ही। वहीं से पीएचडी की और फिर उसी विश्वविद्यालय में मानद प्रोफ़ेसर बना। नौकरी लखनऊ और दिल्ली में की।पत्रकारिता की धर्म-दीक्षा देने के लिए प्रभाष जी जैसा शंकराचार्य मिला।और साहित्य में मेरे गुरू श्रद्धेय नामवर सिंह हुए। मेरी कलम पर उन दोनों का ही आशीर्वाद है। इसी कलम की किसानी करते करते अब जीवन के उत्तरार्ध में प्रवेश कर गया हूँ। बस इतनी सी दास्तां है अपनी। जिंदगी ने यहां तक साथ निभा दिया है, लड़ते, झगड़ते, हिचकोले और झटके देते ही सही। साहिर लुधियानवी लिख गए हैं- “इस तरह ज़िंदगी ने दिया है हमारा साथ, जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से।”इस जिंदगी से अब और क्या चाहिए? बस ज़िंदा नज़र आने की दुआ चाहिए।
तो सारांश यह कि अब यदि साठ पार कर लिए हैं तो बस घाट के किनारे पाठ करता रहूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है। अब अपने भौतिक दैहिक और जैविक आदतों में बदलाव की सोच रहा हूं। साठ पार की उम्र में काम करूँगा तीस की तरह। कपड़े पहनूँगा बीस की तरह और साठ में घुमक्कड़ी होगी आठ की तरह। सोच की परिपक्वता में जरूर साठ रहेगा।
वसीम बरेलवी समझा गए हैं “उसूलों पर अगर आँच आए तो टकराना जरूरी है, जो ज़िंदा हो तो ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है” सो इसी दुआ के साथ कि शेष जिंदगी भी हर लम्हा ज़िंदा नज़र आने की कामयाब कोशिशों में बीते, आप सबका बहुत बहुत आभार। आपकी दुआएँ ही मेरी ताकत हैं। जन्मदिन तो उम्र के साल कम करता जाएगा, पर आपकी दुआएँ साल की उम्र बढ़ाती जाएँगी। इन्हें और भी फक्कड़ी के साथ जीने की वजह बनती जाएँगी। यही ज़िंदादिली मेरा हासिल है और आपको वापिस देने के लिए मेरा रिटर्न गिफ्ट भी!”
हेमंत शर्मा की विनम्रता के संदर्भ में में एक उदाहरण और रखूँगा। कहते हैं, रहीम से किसी ने पूछा, कि “कहाँ से सीखी नवाब जू ऐसी देनी देन, ज्यों-ज्यों कर ऊपर उठे, त्यों-त्यों नीचे नैन!” रहीम ने जवाब दिया- “देनहार कोऊ और है देत रहत दिन-रैन, लोग भरम हम पर करें ताते नीचे नैन!!” तो मित्रों ठीक रहीम की तरह हमारे मित्र हेमंत शर्मा हैं। वे ऐसे मित्र हैं, जिनके अनुराग, प्रेम और जिनकी विद्वता की थाह लेना आसान नहीं है।
उत्तर राग हेमंत जी को जन्मदिन की अशेष शुभकामनाएं
राघवेंद्र दुबे-
अयोध्या और रामजन्म भूमि विवाद को लेकर ‘ युद्ध में अयोध्या ‘ और ‘ अयोध्या का चश्मदीद ‘ जैसी अब तक की सबसे संदर्भ समृद्ध और प्रामाणिक किताब के लेखक शीर्ष पत्रकार हेमंत शर्मा जी को आज जन्मदिन पर अशेष शुभकामनाएं । बता दूं यह किताब पढ़कर पब्लिक इंटेलेक्चुअल और मार्क्सवादी प्रखर आलोचक स्व. नामवर सिंह जी प्रसन्नता के अतिरेक में रो पड़े थे ।

हमारे समय के सुकरात डीपी त्रिपाठी (डीपीटी) फरीदाबाद के एशियन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस में भर्ती थे , उनका इलाज चल रहा था , उस समय भी इस किताब का पाठ हुआ । ‘ युद्ध में अयोध्या ‘ उन्हें सुनाने के लिये आधा से अधिक तो टाइम एनेलाइजर देवेश दुबे ने और आधी मैंने यह किताब पढ़ी थी ।
बहुत ध्यान और आलोचकीय सजगता से डीपीटी ने हस्पताल के बेड पर लेटे , यह किताब सुनी और एक सवाल लटका ही रह गया —‘…देवेश …. आखिर सरसंघचालक मोहन भागवत ने इस किताब का विमोचन मंजूर कैसे कर लिया… उन्होंने इसे पूरा पढ़ा नहीं था क्या …? इसका कोई जवाब मैं क्या देता ।
देवाधिदेव महादेव उनमें यही लेखकीय धार और तर्क संगतता हमेशा बनाए रखें ।
हेमंत साठ प्लस के हो चुके हैं । हाल ही उन पर एक किताब ‘ साठ के हेमंत ‘ का विमोचन हुआ । लिखते हैं — 60 का पिछले साल ही हो गया था पर मित्रों के संस्मरणों की किताब छपने में एक साल लग गए। इसके पीछे मंशा शायद यही रही होगी कि मैं सठिया गया हूँ। इस बात पर मुहर किताब छाप कर लगवा दी जाय। संगीत की भाषा में कहूँ तो यह मेरे जीवन का उत्तर राग है। उत्तर राग यानी दिन के उत्तरार्ध में गाए जाने वाले राग। उत्तर राग में पके हुए स्वर लगते हैं। संगीत में इसकी शुद्धता सिद्ध है। हमारे ललित संगीत में सबसे लोकप्रिय राग ‘भैरवी’, ‘मालकोश’,‘वसंत’ और ‘आसावरी’ इसी उत्तर राग परिवार से आते हैं। तो मित्रों मैं साठ साल का जवान हो गया हूँ। बिलकुल परिपक्व और पके हुए राग की तरह।..’
One comment on “हेमंत शर्मा के 61वें जन्मदिन पर एक बनारसी प्रशंसक की बरजोरी!”
कभी इसपर भी प्रकाश डालें,शून्य से चैनल मालिक बनने का अर्थ कहां से आया