चंद्र भूषण-
शोर में डूबी एक जरूरी सभा
कल शाम इंडिया हैबिटेट सेंटर, दिल्ली में आयोजित राजकमल प्रकाशन की सभा ‘हिंदी पाठक को क्या पसंद है’ एक मायने में अच्छी रही कि इसमें कुछ जानकारियां हासिल हुईं। सत्यानंद निरुपम Satyanand Nirupam ने पिछले दस सालों में ही छपी और दस हजार से ज्यादा बिकी 21 किताबों की एक सूची जारी की। इस सूची में पेपरबैक और हार्डबाउंड, दोनों तरह की बिक्री के आंकड़े मौजूद थे और पेपरबैक संस्करणों की बिक्री हार्डबाउंड की तुलना में लगभग सारे ही मामलों में पांच-सात गुना थी। तात्पर्य यह कि किताबें लाइब्रेरी में जाने की तुलना में कहीं ज्यादा खुले बाजार में बिक रही हैं। हिंदी के लिए निश्चित रूप से यह एक शुभ सूचना है।
इन इक्कीस किताबों की सूची में सबसे ऊपर वाली जगह बुकर पुरस्कार प्राप्त किताब ‘रेत समाधि’ की है। दूसरे नंबर पर पश्चिमी दर्शन का सार संक्षेप प्रस्तुत करने वाली अंग्रेजी से अनूदित किताब ‘सोफी का संसार’ है, जिसे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी से जुड़े एक लोकप्रिय शिक्षक दिव्यकीर्ति के वीडियो रिकमेंडेशन का फायदा मिला है। गौर से देखें तो अंग्रेजी और अनुवाद और भरपूर ऑडियो विजुअल प्रचार की कोई न कोई पहचान दोनों ही किताबों के साथ जुड़ी है, क्योंकि रेत समाधि की बिक्री शुरू में सामान्य ही रहने के बाद इसके अंग्रेजी अनुवाद के बुकरित होने के साथ ही अचानक बढ़ गई। यही एक्सीलरेटर वाला काम दूसरी किताब के साथ ऊपर बताए गए वीडियो रिकमेंडेशन ने किया।
ज्यादा बिकी किताबों में कुछेक और का रिश्ता भी लेखकों के सुपरिचित चेहरों से जुड़ा है। एक का पीयूष मिश्रा से, एक का कुमार विश्वास से और एक का रवीश कुमार से। अरुंधति रॉय की किताब ‘एक था डॉक्टर, एक था संत’ और प्रो. तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और संभवतः ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’ भी इस सूची का हिस्सा है, और ये तीनों किताबें दलित साहित्य के दायरे में आती हैं। जाहिर है, ये नाम मैं याददाश्त से ही गिना रहा हूं। स्थापित साहित्य के रूप में सिर्फ अज्ञेय की ‘शेखर : एक जीवनी’ के दोनों हिस्से यहां मौजूद हैं, जो राजकमल से पिछले दस वर्षों में ही आए हैं।
अज्ञेय के अलावा इस सूची में एक लेखक की दो किताबें अशोक कुमार पांडे की हैं, जिनका संबंध कश्मीर और गांधी की हत्या से है और जिनकी विधा बहसमूलक अद्यतन इतिहास कही जा सकती है। सभा का एक और अच्छा पहलू धर्मेंद्र सुशांत Dharmendra Sushant द्वारा प्रस्तुत पाठक सर्वे के नतीजे थे, जिसमें साढ़े चार हजार से ज्यादा पाठकों के सबसे बड़े हिस्से ने कथेतर गद्य को अपनी पहली पसंद बताया था। क्या ही अच्छा होता, यह सूची और सर्वे प्रकाशकों के एक कंसोर्टियम के द्वारा प्रस्तुत किए गए होते। केवल एक प्रकाशन समूह से जोड़कर इन्हें देखने की बाध्यता हमारे सामने न होती!
बहरहाल, इन प्रस्तुतियों के बाद चार लेखकों ऋषिकेश सुलभ, अशोक कुमार पांडे, गीताश्री और अविनाश को पाठकों की पसंद को लेकर एक बातचीत करनी थी, जो बिल्कुल सिरे नहीं चढ़ पाई। मेरी सीमा हो सकती है, लेकिन सिर्फ सुलभ जी के दो वाक्य मुझे याद रहे। एक यह कि उन्हें पाठकों की पसंद से डर लगता है। और दूसरा, बतौर लेखक उनकी जिम्मेदारी ऐसा लिखने की है कि पाठक उनके यहां चांद का जिक्र पढ़े तो उसे लगे कि इस तरह तो चांद को उसने पहली बार ही देखा है। बहरहाल, स्पीकर के सामने बैठे होने के चलते या जिस भी वजह से, लेखकों की बहुत लाउड बातों ने मेरे सिर में भयंकर दर्द उत्पन्न कर दिया और मुझे सभा छोड़नी पड़ गई।
मेरे ख्याल से, इस बार की राजकमल सभा में अवधारणा के स्तर पर कोई गहरी त्रुटि मौजूद थी। न विषय खराब था, न इसपर चर्चा कराना अनुचित था। फिर भी कुछ कायदे की बात हो नहीं पाई। लेखकों में अपनी वाणी का सम्मोहन, भाषण झाड़ने की लत और अपनी ही जोतने की एक बीमारी होती ही है। खासकर तब, जब वे सब कुछ जानते हों और अपने सामने कोई चुनौती न महसूस करते हों। ऊपर से कम या ज्यादा प्रभाव इस अतिशय बातूनी समय का भी है, जो हर टेढ़ को चौगुना कर देता है। उनकी बातचीत से अगर सुनने योग्य कुछ निकलवाना है तो इसके लिए विषय और वक्ता-निर्धारण से लेकर सभा संचालन तक अधिक सुचिंतित होना चाहिए।