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सुख-दुख

असफलता का भय सबसे बड़ा हत्यारा है!

क्या आप जानते हैं कि हमारे स्कूलों, कॉलेजों, अध्यापकों और अभिभावकों की संयुक्त असफलता के कारण हमारा पूरा समाज भुल्लकड़, कमजोर, भयभीत और नाकारा लोगों से भर गया है। इसे जरा बारीकी से समझने की आवश्यकता है। क्या आपने किसी नन्हे शिशु को कभी सीढिय़ां उतरने का प्रयास करते देखा है? एक नन्हा शिशु भी जब सीढिय़ां उतरने का प्रयत्न करता है तो अक्सर वह स्वयं को किसी दुर्घटना का शिकार होने से बचा लेता है। यदि वह सीधा रहकर सीढ़ियां न उतर पाये तो एकाध प्रयत्न के बाद वह पलटकर घुटनों के बल उतरने का प्रयत्न करेगा और यदि वह फिर भी न उतर सकता हो तो वह सहायता के लिए पुकार उठेगा। यह एक नैसर्गिक क्रिया है। प्रकृति ने बच्चों में एहतियात बरतने की यह भावना जन्म से ही भरी है।

बच्चे नई चीजों के प्रति उत्सुक होते हैं पर इसके साथ ही उन्हें यह भी अच्छी तरह पता होता है कि कौन-सा काम उनकी सामर्थ्य से बाहर है। जैसे-जैसे वे बड़े होते जाते हैं, यह निर्णय करने की उनकी क्षमता भी बढ़ती जाती है पर अत्यंत सावधान माता-पिता के बच्चे कुछ भी नया करने से घबराते हैं या फिर उसे असावधानी से करते हैं। ऐसे बच्चे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि वे किसी चीज से नहीं डरते, सो वे उन कामों को भी करने की चेष्टा करते हैं जिन्हें करने का जोखिम कोई समझदार या सावधान बच्चा नहीं उठाता। स्वयं को यों किसी खतरे के सामने ला खड़ा करने के बाद स्थिति पर काबू पाने का न तो उनमें आत्मविश्वास होता है, न स्थिरता। सो वे अपना बचाव नहीं कर पाते।

सालों पहले लंदन के हॉलैंड पार्क में एक मनोवैज्ञानिक की देखरेख में एक प्रयोग किया गया। इस पार्क में बच्चों के चढऩे के लिए ढेरों पेड़ उगाये गये। उनसे रस्सियां लटका दी गयीं। बच्चे उन पर चढ़कर लटक या झूल सकते थे। इसी तरह के तमाम दूसरे “खतरनाक” खेल भी थे। शुरू में अभिभावक वहां अपने बच्चों को लेकर आते और बैठ जाते तथा बच्चों को पेड़ों पर चढ़ने या मनपसंद खेल खेलने के लिए छोड़ दिया जाता। शीघ्र ही उस पार्क के प्रति अभिभावकों का विरोध मुखर हो उठा क्योंकि बच्चे अक्सर दुर्घटनाग्रस्त हो जाते और अपने हाथ-पांव तुड़वा बैठते। फिर वहां वयस्कों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। जवाब में अभिभावकों ने अपने बच्चों के वहां प्रवेश पर पाबंदी लगा दी, फिर भी बच्चे अभिभावकों की नजर बचा कर वहां आ ही जाते और अपने मनपसंद के खेल खेलते। अभिभावकों का दखल बंद होते ही दुर्घटनाओं की संख्या लगभग शून्य हो गई। छोटी-मोटी चोटों की बात छोड़ दें तो बस एक बार एक बच्चे के पैर में मोच आयी।

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जब माताएं बच्चों के साथ आया करती थीं तो वे बराबर “यह न करना, वह न करना, अरे यह तो बड़ा खतरनाक खेल है” आदि चिल्लाती रहती थीं। बच्चे उन नसीहतों से इस कदर नाराज हो जाते थे कि उनमें “समझ क्या रखा है? ठहरो, मैं अभी कुछ कर दिखाता हूं” का भाव जग जाता था। ऐसे में वे अपने लिए कोई बेहद कठिन काम करने लगते। पर अपनी मां से “गिर जाओगे” की चिल्ल-पौं सुनते-सुनते वे इतना बौखला जाते थे कि धमाके से नीचे गिर पड़ते। मांओं को लगता था कि उनकी आशंका सच साबित हुई कि बच्चे में अपने भले का निर्णय लेने की क्षमता नहीं है जबकि वे कभी भी यह समझ नहीं पाती थीं कि असल में दुर्घटना हुई ही उनके कारण थी। जाहिर है कि अगर बच्चों को स्वयं निर्णय करने दिया जाए तो साहसिक कार्यों को चुनने में वे सावधानी बरतते हैं। खेल में और जीवन में भी बच्चे जोखिम उठाना चाहते हैं, पर उन स्थितियों का सामना वे ठंडे और संतुलित दिमाग से करना भी जानते हैं।

भय तो बुद्धि का दुश्मन है। वह बच्चे के दृष्टिकोण को, जीवन के प्रति उसकी सोच को प्रभावित करता है। यानी, हमारे सामने दो समस्याएं हैं। एक तो यह कि बच्चों को भयभीत होने से कैसे रोका जाए, दूसरी यह कि सोचने की उन गलत आदतों को कैसे तोड़ा जाए जो भय से पनपती हैं। असफलता को लेकर एक शिशु और एक वयस्क की प्रतिक्रियाओं में जमीन-आसमान का अंतर होता है। एक शिशु को असफलता से लज्जा नहीं आती, आत्मग्लानि नहीं होती, अपराध का बोध नहीं होता। चलना सीखने वाले बच्चे बार-बार गिरते भी हैं, छ:-सात वर्ष के बच्चे साइकिल चलाना सीखते समय कई बार लुढ़कते और चोट खाते हैं। चलते समय या साइकिल चलाना सीखते समय बच्चे सफलता या असफलता के बारे में भी नहीं सोचते, परंतु जब वयस्कों को खुश करना महत्वपूर्ण बन जाता है तो सफलता और असफलता के बीच गहरी रेखा खिंच जाती है। सच तो यह है कि “सफलता” और “असफलता” दोनों ही वयस्क विचार हैं। हम बच्चों को स्कूल का काम न करने पर धमकाते हैं, नाराज हो जाने की धमकी देते हैं, असफल हो जाने का भय पैदा करते हैं। मां-बाप और अध्यापक मिलकर बच्चों में इस हद तक भय पैदा कर देते हैं कि भय से ग्रस्त बच्चा अपने मस्तिष्क की शक्तियों का विकास करने के बजाए उनका विनाश करता चलता है।

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बच्चे हमेशा यह सुनते हैं “अच्छे लोग ऐसी बातें नहीं करते।” लगातार अपनी भावनाएं छुपाते रहने के कारण ये बच्चे तनाव भरा जीवन जीते हैं। बाद के जीवन में भी कभी नौकरी जाने का डर, कभी प्रमोशन न होने का डर, कभी वेतन-वृद्धि रुकने का डर, फेल होने का डर, असफलता का डर, अफसरों, साथियों या परिवारजनों की आलोचना का डर लगा रहता है। भय की अवस्था में हम अपने मस्तिष्क का सही उपयोग नहीं कर सकते। यह भी सच है कि जिस-जिस तरह हम अपने मस्तिष्क का उपयोग करते हैं, वही यह भी तय करता चलता है कि हम भविष्य में उसका कैसा उपयोग कर पाएंगे। अगर मस्तिष्क का गलत इस्तेमाल होता रहेगा तो सही तरीके से उसके उपयोग की संभावनाएं कम होती चली जाएंगी।

सफलता न तो सहज प्राप्त होनी चाहिए न आसानी से ही, और न ही वह हमेशा मिलती जानी चाहिए। सफलता का अर्थ ही बाधा को पार करना होता है और यह “मैं नहीं कर सकता” के दृष्टिïकोण को “मैं कर सकता हूं” में बदलने की प्रक्रिया है। जो हम आज नहीं कर सकते, वही हम कल या कोई दूसरा कर सकेगा। हमारी असफलता किसी दूसरे की सफलता के लिए राह तो तैयार कर सकेगी। असल में हमें असफलता के प्रति अपना दृष्टिïकोण ही बदलना चाहिए। असफलता की भी गरिमा होती है, उसका रूप सकारात्मक होता है क्योंकि उसमें कम से कम प्रयास तो है। भयभीत योद्धा क्यों बनें? जीवन जीने की कला का यह सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है कि हम सफलता के लिए प्रयास करते हुए असफलता से न डरें। सफलता के प्रयास में तभी जोर आयेगा जब असफलता हमें निराश न करें, हताश न करे, तोड़े नहीं बल्कि प्रेरणा बन जाए।

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लेखक पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे। एक नामचीन जनसंपर्क सलाहकार, राजनीतिक रणनीतिकार एवं मोटिवेशनल स्पीकर होने के साथ-साथ वे एक नियमित स्तंभकार भी हैं और लगभग हर विषय पर कलम चलाते हैं।

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1 Comment

1 Comment

  1. Ashish

    March 14, 2020 at 7:31 pm

    निश्चित तौर पर यह एक कटु सत्य है। मेरे साथ अक्सर ये होता है और मैं हर बार खुद को काफी कमजोर सा महसूस करता हूं। हर बार इस तरह के विचारोत्तेजक लेख नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।

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