रविंद्र सिंह-
डॉ. देवी शकर का त्याग
डॉ. देवी शंकर अवस्थी का जन्म 5 अप्रैल 1930 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गांव सथनी वाला खेडा के एक संयुक्त परिवार में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा अपने गांव तथा ननिहाल में हुई जब ये 17 वर्ष के थे तो इनके पिता का देहावसान हो गया था। श्री शंकर अवस्थी परिवार में सबसे बड़े थे इसलिए इनके कंधो पर अन्य सदस्यों का बोझ भी आन पड़ा। इन्होंने विपरीत परिस्थिति में अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए अध्ययन को जारी रखा।
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए कानपुर चले गए वहां डी.ए.वीकॉलेज से 1953 में हिंदी में एम.ए (प्रथम श्रेणी) डिग्री हासिल की और उसी वर्ष 23 अगस्त को वहीं हिंदी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हो गए।
अब आर्थिक दृष्टि से थोडा संकट कम होने पर कानपुर से ही इन्होने ‘कविता 1954’ का अजीत कुमार के साथ संपादन किया। इसके बाद कलजुग पत्रिका की शुरूआत करते हुए युग चेतना, ज्ञानोदय, नई कहानियां पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेखन शुरू कर दिया। अकादमिक और लेखन के क्षेत्र में अपनी यात्रा जारी रखते हुए सन् 1961 में दिल्ली विश्वविद्यालय के सांध्य कालीन सत्र में प्रधान अध्यापक नियुक्त हो गए।
11 जनवरी 1966 को स्कूटर से अपने मित्र मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के साथ दरिया गंज से घर मॉडल टाउन लौटते समय वे दुर्घटना ग्रस्त हो गए और गहन इलाज के बावजूद आईसीयू में 2 दिन बेहोश रहने के बाद 13 जनवरी की सुबह उनका अल्प आयु में निधन हो गया। जब यह बात शिक्षक और साहित्यकारों को पता चली तो हर तरफ शोक की लहर चलने लगी। अल्प आयु के होने के बाद भी उन्होंने जितना भी लिखा है उस पर साहित्यकार आज भी आश्चर्य व्यक्त करते हैं।
देवी शंकर जी की अकाल मृत्यु के बाद एक बार फिर परिवार पर मुसिबतों का पहाड आ गिरा। परिवार के सामने एक ओर मार्गदर्शक की कमी तो दूसरी ओर आर्थिक कमजोरी परेशानी बन रही थी। अब श्री देवी शंकर जी की धर्मपत्नी श्रीमति कमलेश अवस्थी ने परिवार का बोझ अपने कंधों पर लेकर अन्य सदस्यों को बड़े भाई की कमी महसूस नहीं होने दी। छोटे भाई उदय शंकर अवस्थी 1964 में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से केमिकल इंजीनियरिंग की पढाई कर रहे थे जिसमें कमलेश अवस्थी जी ने भाई की तरह सहयोग कर आगे की पढ़ाईजारी रखने के लिए प्रेरित किया। देवी शंकर जी के जीवन काल में एक ही पुस्तक प्रकाशित हो पाई थी बाद में उनकी पत्नी ने बाकी पुस्तकें प्रकाशित कराई।
आलोचना के लिए प्रसिद्ध लेखक ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में 1960 में पीएचडी पूर्ण की। तदोपरांत आचार्य जी के कहने पर उनकी ही आलोचना लिखने से साहित्य जगत में काफी प्रसिद्ध हो गए।
उदय शंकर अवस्थी ने अपने भाई की ईमानदारी, मेहनत और संबन्धों को कैश कर देश की सबसे बडी उर्वरक कंपनी में नौकरी हासिल की परंतु स्वार्थी प्रवृत्ति के उदय शंकर ने अपने भाई के अधूरे साहित्य को राष्ट्र को समर्पित करने में किसी तरह का सहयोग नहीं किया। डॉ. देवी शंकर स्मृति सम्मान की शुरूआत के बहाने हिंदी आलोचना में युवाओं की सहभागिता को जो प्रोत्साहन मिला है वह मील का पत्थर साबित हुआ है।
उक्त सम्मान समारोह प्रत्येक वर्ष 5 अप्रैल को उनके जन्म दिवस पर मनाया जाता है परंतु इस सम्मान समारोह में भाई की जीवन यात्रा को जीवंत रखने में भी किसी तरह का सहयोग नहीं किया जाता है। इसी कड़ी में उदय शंकर अपने ससुर श्रीलाल शुक्ल साहित्य अवार्ड पर प्रत्येक वर्ष 15 दिसंबर को गरीब किसानों की इफको के कोष से समारोह कराकर 11 लाख नकद राशि भी देता है। इस तरह के कृत्य से जाहिर होता है मामूली से उदय शंकर अवस्थी वर्तमान में भारत का सबसे बड़ा सहकारिता माफिया बन गया है। लगता है उसे बडे भाई की मेहनत, ईमानदारी, संघर्षशील जीवन नापसंद था, इसलिए उनका सम्मान समारोह कराने से घबराता है जो इंसान भाई की ईमानदारी और मेहनत की बदौलत फर्श से अर्श तक पहुंचा हो वह उनको ही भूल चुका है, श्रीलाल शुक्ल की नॉवेल राग दरबारी काफी प्रसिद्ध हुई, उक्त नॉबेल इसलिए प्रासंगिक है।
वर्तमान में आलोचना सहन करने के बजाए लोग चापलूसी में ज्यादा विश्वास रखते हैं। मुख्य रूप से जमींदारी के समय भांड राजाओं को खुश करने के लिए राग गाया करते थे। उदय शंकर अवस्थी का अतीत से अब तक का समय नेताओं एवं नौकरशाहों के इर्द-गिर्द घूमते व चापलूसी करते गुजरा है।
बरेली के पत्रकार रविंद्र सिंह द्वारा लिखी किताब ‘इफको किसकी’ का 24वां पार्ट..
जारी है…
पिछला पार्ट.. इफको की कहानी (23) : भ्रष्टाचार के पीआरओ का उदय!