जे सुशील-
बीस से पच्चीस साल एक बड़ा समय होता है. इसे आधुनिक समय में एक युग भी कहा जाए तो गलत नहीं है. नब्बे के दशक में एक आधे घंटे के न्यूज़ शो से शुरू कर के स्टार चैनल पर दो बुलेटिन और फिर पूरे चैनल तक प्रणय राय ने लंबा सफर तय किया. ये एक बड़ा फैसला होता है कि एक अच्छे प्रतिष्ठित कॉलेज में इकोनोमिक्स का प्रोफेसर मीडिया के क्षेत्र में आए और फिर सबसे अच्छे ब्रांड के रूप में अपनी कंपनी को स्थापित करे. ये जिन कारणों से भी हुआ हो यह चिन्हित करना ज़रूरी होगा कि प्रणय राय ने उस समय एक रिस्क लिया था जिसका उन्हें फायदा हुआ.
अभी मैं उनके कल्चर कैपिटल पर बात नहीं करूंगा क्योंकि वो यहां मौजू नहीं है. 98 से लेकर अगले दसेक साल एनडीटीवी नाम की कंपनी का जलवा रहा. हमारे जैसे छोटे शहरों से आए लोग उस कंपनी में नौकरी का सपना देखते थे और वहां फोन करने से भी डरते थे. कालांतर में हर तरह के लोगों ने वहां नौकरियां पाई और आज हम जहां भी किसी मीडिया में बड़े पत्रकार का नाम लेते हैं तो वो कहीं न कहीं एनडीटीवी से जुड़ा हुआ मिल सकता है जिसमें दिबांग, अर्णव और राजदीप के नाम प्रमुख हैं. एक पूरी पीढ़ी ने इन लोगों को देखकर पत्रकारिता सीखा है.
कांग्रेस या कहें सत्ता से एनडीटीवी के संबंध पत्रकारिता जगत में तो लोगों को पता ही थे और ये भी कि एनडीटीवी आम तौर पर अपने अंग्रेजी चैनल में ब्यूरोक्रैट्स के बच्चों को नौकरी दिया करता है या फिर प्रभावशाली लोगों के बाल बच्चों को. जिसका परिणाम यह हुआ कि सत्ता पक्ष से लगातार एक संपर्क में रहा यह चैनल धीरे धीरे सत्ता के निकट होता चला गया. इसका परिणाम हम सबने नीरा राडिया मामले में देख ही लिया है.
लेकिन इसके समानांतर एक और घटनाक्रम चल रहा था. हिंदी का चैनल जिसमें आम टाइप के लोग काम कर रहे थे वहां एक पत्रकार तेजी़ से अपने काम के कारण लोगों में अपनी जगह बना रहा था. वो अपना मुहावरा गढ़ रहा था और कह रहा था कि वो लाल पत्थर पत्रकारिता नहीं कर सकता है. वो सबआल्टर्न पत्रकारित में नए तरह के प्रयोग कर रहा था और लोग उसे पसंद कर रहे थे.
मेरी जानकारी कहती है कि 2007 या उसके आसपास एनडीवी ने एक सर्वेक्षण करवाया अपने हिंदी चैनल को लेकर कि उसकी रेटिंग लगातार क्यों गिर रही है जिसमें सर्वेक्षण करने वाले ने बताया कि आपके चैनल में कोई रवीश कुमार है उसे प्राइम टाइम पर लाया जाए. तब रवीश की रिपोर्ट नाम का एक कार्यक्रम रवीश कर रहे थे और उन्हें एक खास तबके में पसंद किया जाने लगा था. यह तबका हिंदी बोलने वाला हिंदी में सोचने वाला और हिंदी समाज की राजनीतिक दुनिया से मतलब रखने वाला था. उनकी रिपोर्टों में गरीब गुर्बा, मज़दूर, हाशिये के लोग थे.
कहते हैं कि उस कार्यक्रम की रेटिंग बहुत नहीं थी लेकिन उस कार्यक्रम के बारे में लोग बात बहुत करते थे. नतीज़ा यह हुआ कि रवीश को नौ बजे के कार्यक्रम के लिए तैयार किया गया. मुझे अभी भी याद है कि दीवाली की एक रात रवीश करीब दस बजे एंकरिंग करने आए थे और उन्होंने पीली टाई पहनी थी. उनका कांफिडेंस बिल्कुल खतम था और उनकी आवाज़ थरथरा रही थी. रवीश की रिपोर्ट वाले रवीश कहीं नहीं थे उस एंकरिंग में लेकिन उस आदमी ने धीरे धीरे अपने को मांजा और जब नौ बजे के कार्यक्रम में वो आने लगे तो सभी लोगों ने उन्हें जी भर कर पसंद किया.
2014 के पहले उनके कार्यक्रमों की तारीफ करने वालों में सबसे अधिक बीजेपी के समर्थक हुआ करते थे.फेसबुक पर उनके कार्यक्रमों को शेयर करने वाले लोग भी बीजेपी के ही समर्थक थे. कांग्रेसी समर्थक उन्हें पसंद करते थे मगर दबे छुपे चिढ़ा भी करते थे लेकिन चूंकि रवीश को न तो संसद जाना था रिपोर्ट करने और न ही नेताओं के इंटरव्यू करने थे तो उनका काम चलता रहा. फिर 2014 हो गया. दुनिया बदल गई. आगे क्या हुआ वो हम सब लोग कमोबेश जानते ही हैं.
आज प्रणय राय ने इस्तीफा दे दिया है. मुझे अभी भी याद है 2006 या उसके आसपास इंडिया टुडे के एक अंक में दस शीर्ष कंपनियों के नाम आए थे जिसमें एनडीवी का भी नाम था. सालाना टर्नओवर दस करोड़. यह रकम उस समय बहुत अधिक हुआ करती होगी तो मैं जान कर अचंभित ही हुआ था. खैर प्रणय राय पिछले कुछ सालों से अस्त होते पुच्छल तारे की तरह हो गए थे जिनको आज नहीं तो कल नेपथ्य में ही जाना था.
उन्होंने इस्तीफा देकर ठीक ही किया है. वैसे भी इतिहास कहता है कि अंबानी अडानी या लाला लोगों ने जो भी चैनल- अखबार खरीदा है वो ज्यादा दिन चला नहीं है. एनडीवी हो या टोटल टीवी या फिर न्यूज १८ हो या और कोई चैनल. जैसे बीस पच्चीस साल में प्रणय राय वाला युग समाप्त हुआ है वैसे ही दूसरों का समय भी खतम होगा.
लोकतंत्र में सत्ता की आलोचना करने वाला मीडिया एक ज़रूरी स्तंभ है. इसके बिना सत्ता निरंकुश हो जाती है. एनडीटीवी को कर्ज क्यों लेना पड़ा. कैसे कंपनी तबाह हुई……इन सबपर शोध किया जाए तो मुकम्मल किताब बन सकती है जो कि भारत के पिछले बीस वर्षों का एक सांस्कृतिक लेखा जोखा होगा कि कैसे लेफ्ट लिबरल प्रोग्रेसिव तबके ने सत्ता के साथ छुप कर गठजोड़ किया और चरम पर पहुंचे लेकिन जैसे ही सत्ता बदली वो तेज़ी से खत्म होते चले गए. सत्ता की भुरभुरी रेत पर बने संस्थानों का यही हश्र होता है. इसमें पत्रकारों का नुकसान नहीं है जब तक मौका मिला वो काम करते रहे. उन्होंने पहचान बनाई पैसे कमाए. कल को वो अपना काम कर सकते हैं.
हमारे सामने सिद्धार्थ वरदराजन का वायर मॉडल है. स्क्रोल मॉडल है. पी साईनाथ का परी मॉडल है. अजित अंजुम मॉडल है. बरखा मॉडल है. लोग अपने अपने हिसाब से काम कर रहे हैं जो उन्होंने अपने अनुभव से कमाया है उसे काम में ला रहे हैं.
अभी ये कहना जल्दबाज़ी होगी कि आने वाला समय ब्रांडों का नहीं होगा बल्कि उन लोगों का होगा जिन पर आम लोग भरोसा करते हैं. लेकिन ये तय है कि जैसे प्रणय का समय आया था और गया वैसे ही सभी का समय आता है और जाता है चाहे वो राजा हो या रंक.
बहुत लंबा विषय है. किसी अच्छे शोधार्थी को लगकर इस इतिहास को लिखना चाहिए.
नब्बे के दशक में जब पत्रकारिता में टीवी चैनलों का प्रादुर्भाव हो रहा था तो प्रिंट के पत्रकारों में टीवी को ही हेय दृष्टि से देखने का चलन था. अच्छे पत्रकार टीवी में काम नहीं करना चाहते थे. लेकिन यह सब बहुत जल्दी और बहुत तेज़ी से बदला क्योंकि टीवी ने अचानक से हिंदी पत्रकारों को खूब पैसा देना शुरू किया.
हिंदी के पत्रकार जो ग्लोबलाइजेशन की शुरूआती आंधी में अंग्रेजी के आगे घुटने टेक चुके थे. लगभग लगभग हर संस्थान में हिंदी का अखबार अनुवाद पर टिक चुका था और हिंदी के पत्रकारों को गरीब, दाढ़ीजार, शराब के लिए लालायित, कुर्तापाजामाधारी की छवि में ढाला जा रहा था तो टीवी एक नई बयार लेकर आई…..आगे क्या होना था वही हुआ ….प्रिंट से चटे लुटे पिटे पत्रकारों ने टीवी का रूख किया…………और फिर………….
1999 की शुरुआत में हिंदी में केवल एक टीवी चैनल था जो चौबीस घंटे का था ज़ी टीवी. इसके अलाव आज तक का एक कार्यक्रम डीडी मेट्रो पर और एनडीटीवी के दो कार्यक्रम स्टार न्यूज़ चैनल पर आते थे. उसी के आसपास रजत शर्मा ज़ी टीवी छोड़ कर स्टार के लिए एक न्यूज़ बुलेटिन बना रहे थे जो बाद में चैनल में तब्दील हुआ.
आने वाले कुछ ही सालों में आजतक का चैनल लांच हुआ, एनडीटीवी ने अलग होकर दो चैनल खोले. रजत शर्मा का चैनल आ गया और इस बीच रोजाना नाम का एक शो शुरू हुआ डीडी पर जो बाद में चैनल बन गया न्यूज़ २४. यह सारी घटनाएं १९९८ से २००० के बीच घटित हुई और ये सब मैंने अपनी आंखों से देखा और जाना. इस बीच सहारा के भी कई चैनल आए. सहारा में एक बार १९९९ के नवंबर में नौकरियां आई थी. वहां नौकरी की तलाश में तकरीबन हज़ार लोग जमा हुए थे. ये बात मैं मजाक में नहीं कर रहा हूं.
टीवी की दुनिया को मैंने हमेशा दूर से देखा क्योंकि मेरे अंदर टीवी में काम करने का आत्मविश्वास नहीं था. मैंने टीवी में दो बार नौकरी करने की कोशिश की और दोनों बार मैं इंटरव्यू से आगे नहीं गया. मेरे पत्रकारिता के बैच में जिन लोगों को टीवी में इंटर्नशिप का मौका मिला था वो प्रिंट वालों को दोयम दर्जे का पत्रकार उसी जमाने में मानने लगे थे क्योंकि टीवी वाले तब तक हल्के फुल्के सेलिब्रिटी का दर्जा पा चुके थे. उस जमाने में आशुतोष, दीपक चौरसिया, पुण्य प्रसून वाजपेयी, निधि कुलपति, आकाश सोनी, दिबांग लोगों का जलवा था और बैकग्राउंड में शाजी ज़मा को टीवी का अकबर माना जाता था.
धीरे धीरे जैसे जैसे भीड़ बढ़ी. टीवी चैनलों ने भूत प्रेत दिखाना शुरू किया. इसमें लीड ली रजत शर्मा के चैनल इंडिया टीवी ने. आज तक ने क्राइम शो को पकड़ा और थोड़ा लेट मार्केट में आए स्टार न्यूज़ ने सास बहू सीरियल्स पर कार्यक्रम प्रसारित करने शुरू किए. यह वो जमाना था जब मीडिया रिसर्चर जब पत्रकारों से बात करते तो जुमला फेंका जाता- टीवी इज़ आल अबाउट थ्री सी- यानि कि सिनेमा क्रिकेट एंड क्राइम.
ये जुमले उन वरिष्ठ पत्रकारों ने गढ़े जो प्रिंट की दुनिया से टीवी में गए थे और बैकग्राउंड में स्क्रिप्ट पर काम किया करते थे. वो कभी एंकर नहीं बने लेकिन टीवी आज अगर कूड़ा है तो उन संपादकों वरिष्ठों की बडी़ भूमिका है जिन्होंने मीडिया को लाला जी की नचनिया बनाने में अपना पूरा योगदान दिया. अगर वो तब अपने काम को लेकर लाला के सामने खड़े होते तो शायद आज यह स्थिति नहीं होती. (यह स्थिति से मेरा मतलब सभी टीवी चैनलों के घटिया कार्यक्रमों से है)
वरिष्ठों की फौज धीरे धीरे रिटायर होती गई और उनकी जगह आईआईएमसी से पास आउट हुए कूड़ा कचरा पत्रकारों ने ली जिनके पास न तो किताबी ज्ञान था और न ही कोी दृष्टि. वो लालाजी के कहने पर चैनल की रेटिंग ऊपर करने के लिए अश्लील कार्यक्रम बनाने को भी राज़ी थे. घटिया स्क्रिप्ट लिखने को तैयार थे और लाइव काटते काटते लोगों का गला तक काटने को राजी थे.
उस जमाने के इस बदलाव यानि कि लाइव काटने और इस तमाम सरगर्मी पर किसी को पढऩा हो तो राजकमल से एक किताब आई थी जिसमें अजीत अंजुम, शाजी जमां और मीडिया में कार्यरत कई लोगों ने बड़ी अच्छी कहानियां और मेमॉयर लिखे हैं. वो अपने समय का एक बेहतरीन दस्तावेज है.
मीडिया की आलोचना २००६ के बाद शुरु हो गई थी क्योंकि चैनलों की भीड़ बेतहाशा बढ़ गई थी और हर दिन नया चैनल उग रहा था. लोग टीआरपी के लिए मरे जा रहे थे और कंटेंट के नाम पर लाइव काटने का तमाशा जो़रों पर था. यह सब चलता रहा और फिर २०१० के बाद अन्ना आंदोलन और उग्र राष्ट्रवाद के रूप मे द नेशन वांट्स टू नो जैसे कार्यक्रम आए.
इसके बाद २०१४ हो गया. जो एक कट ऑफ प्वाइंट है. उसके बाद क्या हुआ अमूमन लोग जानते समझते हैं. मीडिया के दो धड़े हो गए. एक सरकार के खिलाफ और एक सराकर के साथ……………आदि आदि आदि
लेकिन इस कचरे के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो वो सारे लोग जिन्होंने टीवी मीडिया में शुरूआती दौर में घुटने टेके. अपने मेरूदंडों को टेढ़ा किया और पत्रकारिता के नाम पर टीआरपी के लिए कचरा परोसा.
ये वैसा ही तर्क कहा जा सकता है कि देश में अगर कोई समस्या है तो उसके लिए नेहरू जिम्मेदार है लेकिन थोड़ा रूकिए……..नेहरू को मरे हुए साठ साल हो चुके हैं लेकिन टीवी मीडिया को अभी बीस पच्चीस साल हुए हैं. टीवी मीडिया में कचरा परोसने वाले और कचरे को मानक बनाने वाले, लाला जी के तलवे चाटने की शुरूआत करने वाले सारे लोग ज़िंदा हैं और फेसबुक पर भी होंगे ही.
….इतिहास उन लोगों को कभी माफ नहीं करेगा………..जब कभी टीवी मीडिया का इतिहास लिखा जाएगा तो लाला और चैनल मालिकों के सत्ता गठजोड़ के साथ साथ उन संपादकों का भी इतिहास लिखा जाएगा जिन्होंने टीवी को लाला जी की रखैल बनाने की शुरूआत की जिसकी परिणिति किन किन रूपों में हो रही है वो हम सब देख ही रहे हैं.
राजकमल वाली किताब का नाम है – वक्त है एक ब्रेक का जो असल में हंस के विशेषांक के रूप में आया था। बाद में राजकमल से पुस्तक रूप में आया।
इतिहास ज्यादातर व्यक्ति केंद्रित भले ही होता हो पर व्यक्ति पर टिप्पणी करने से इतिहास की चीज़ों के बाकी सतहों का ठीक से पता नहीं चल पाता है. ये बात ध्यान में रखनी चाहिए.
मुद्दा एनडीटीवी के ज़रिए भारतीय मीडिया को समझने का होना चाहिए. रवीश उस पूरी यात्रा में एक स्तंभ हैं. ऐसे कई स्तंभ भारतीय पत्रकारिता में रहे. इसलिए मीडिया की बहसें एक व्यक्ति के इर्द गिर्द न होकर मीडिया व्यवहार की होनी चाहिए जिसमें बड़े नाम वैसे ही आएं जैसे नदी में नाव आती है. चर्चा नदी की, पानी की उसके बहाव की हो तभी दुनिया समझ में आती है. अगर यह बात ठीक लगे तो आगे पढ़ें वर्ना स्क्रोल कर के आगे बढ़ें.
भारत में जितने भी न्यूज़ टीवी के चैनल आए उन्हें मूल रूप से दूरदर्शन का शुक्रिया अदा करना चाहिए. आप पूछ सकते हैं मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं. जो मीडिया और खास कर टीवी मीडिया को समझते हैं उन्हें ये पता है कि कोई भी टीवी चैनल बिना आर्काइव के खड़ा नहीं किया जा सकता है. आर्काइव यानि कि पुराना फुटेज. नब्बे के दशक के अंत तक यह पुराना फुटेज और आर्काइव सिर्फ और सिर्फ डीडी के पास था. फिर ये प्राइवेट चैनलों तक पहुंचा कैसे. इसकी कथा शुरू होती है द वर्ल्ड दिस वीक से.
द वर्ल्ड दिस वीक एक कार्यक्रम होता था जो रात के ग्यारह बजे आता था जिसमें अंग्रेजी में दुनिया की खबरें होती थीं. इसमें ज्यादातर फुटेज अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसियों के होते थे और साथ में देश की खबरों के लिए डीडी के कैमरामैन द्वारा जुटाए गए फुटेज. लंबे समय तक चले इस कार्यक्रम के दौरान प्रणय राय की साख बनी और उन्होंने अपने प्रोडक्शन हाउस न्यूडेल्ही टेलिविजन के लिए ये आर्काइव धीरे धीरे जुटा लिया. चूंकि वो डीडी के लिए ही प्रोग्राम बना रहे थे तो डीडी ने उन्हें आर्काइव कॉपी करने दिया. सरकारी बाबू को क्या पता कि प्रोफेसर के दिमाग में क्या चल रहा है. वैसे भी कार्यक्रम डीडी पर ही जाता था.
एग्जैक्टली यही काम बाद में आज तक वालों ने किया जब वो डीडी मेट्रो के लिए आधे घंटे का न्यूज टीवी शो बना रहे थे. ज़ी टीवी में ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वहां ऐसा कोई आदमी नहीं था जिसने डीडी के साथ कोई काम किया हो. ज़ी टीवी इसलिए इतिहास में याद रखा जाएगा. वो अपने किस्म का पायनियर चैनल था जो बाद में बर्बाद हो गया सत्ता से खुल कर निकटता करने के चक्कर में.
इस कड़ी में सबसे ताजा लाभ उठाया राजीव शुक्ला की पत्नी के चैनल न्यूज २४ ने जिन्हें रोज़ाना नाम का कार्यक्रम मिला. जाहिर है उन्होंने भी फुटेज लिया ही होगा ढेर सारा.
आप पूछेंगे कि बाकी लोग यानि कि स्टार, इंडिया टीवी इन्हें फुटेज कहां से मिला होगा. बाकी एजेंसियों से लिया गया और नब्बे के दशक के बाद सब चैनलों ने फुटेज इकट्ठा भी किया. जो नहीं मिला खरीद लिया गया.
अब आगे ये हुआ कि एनडीटीवी ने जब चैनल खोला तो उसमें नब्बे प्रतिशत एलीट लोग ही नियुक्त हुए थे. राजदीप, अर्णब ऑक्सफोर्ड से थे. बरखा कोलंबिया स्कूल से थीं और उनकी मां खुद ही बड़ी पत्रकार थीं अंग्रेजी की. सोनिया सिंह जिनका विवाह बाद में आरपीएन सिंह के साथ हुआ वो राजनीतिक रूप से सक्रिय थे कांग्रेस में….(वो बहुत बाद में बीजेपी में गए). इसी तरह आप अंग्रेजी के सारे लोगों की पृष्ठभूमि देखेंगे तो पाएंगे कि वो या तो दून स्कूल, स्टीफंस या फिर लंदन या अमेरिका के यूनिवर्सिटियों से पढ़ कर लौटे लोग थे जिन्हें प्रोफेसरी करने में रूचि नहीं थी और वो पत्रकारिता में आना चाहते थे.
इसमें एक अपवाद हीरामन तिवारी रहे (जो ऑक्सफोर्ड से आए थे ) और हिंदी में एंकरिंग करते थे लेकिन जल्दी ही जेेएनयू में प्रोफेसर बने तो उन्होंने एनडीटीवी छोड़ दिया. शुरूआती दौर में सिर्फ राज्यों के रिपोर्टर ही ऐसे थे अंग्रेजी में जो एलीट क्लास के नहीं थे. या क्या पता हों भी.
एनडीटीवी अंग्रेजी में नौकरी पाने का सीधा रास्ता यही था कि आपके पिता प्रभावशाली पत्रकार हों, नौकरशाह हों या फिर आप स्टीफंस, दून या ऑक्सफोर्ड या अमेरिकी विश्वविद्यालय से हों.
मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे कई लोगों को जानता हूं लेकिन नाम लेना ठीक नहीं है. ये लोग हिंदी के लोगों से बात करना सिर्फ तब ठीक समझते थे जब चुनाव होता था और उन्हें चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए बिहार यूपी जाना पड़ता था. बाकी समय वो दिल्ली के खान मार्केट के आसपास दिखा करते थे.
प्रणय खुद भी उसी एलीट क्लास के थे. हालांकि इस एलीट क्लास की खूबी यह थी कि वो गरीब गुर्बा की बात बहुत करता था लेकिन खुद न तो गरीब होना चाहता था और न ही गरीबों के साथ उठना बैठना चाहता था. मुझे अभी भी याद है कि लालू के एक इंटरव्यू में लालू लगातार हिंदी में जवाब दे रहे थे और प्रणय उनसे अंग्रेजी में ही पूछे जा रहे थे.
ऐसा नहीं है कि प्रणय को हिंदी नहीं आती होगी. मैं एक और ऐसे बंगाली को जानता हूं जो ड्राइवर, नौकर, और दुकान में हिंदी में बात करता है लेकिन दफ्तर घुसते ही हिंदी नहीं बोलता और ऐसे व्यवहार करता है मानो हिंदी आती नहीं. प्रणय राय एक क्लास है जिसे पोस्ट कलोनियल बीमारी से ग्रसित कहा जा सकता है.
उन्होंने हिंदी के कुछ लोगों को बढ़ावा दिया या नहीं ये बहस का विषय है. उनके लिए रवीश कुमार कितने महत्व के थे इस पर भी बहस हो सकती है. मैंने रवीश कुमार को भी रिपोर्टिंग करते हुए देखा है. उनके साथ एक या दो लोग होते थे. मैंने बरखा को भी रिपोर्टिंग करते हुए देखा है. जिनके साथ आठ से दस लोगों की टीम चलती थी. तो चैनल में ये भेदभाव हिंदी और अंग्रेजी का भी चलता था. और ये भी आम बात थी.
भारत के नब्बे परसेंट चैनलों में नब्बे और २००-२०१० तक हिंदी के लोगों को सम्मान नहीं मिला. हिंदी के लोगों का दबदबा शुरू होता है आज तक से जो कालांतर में अन्य एंकरों तक शिफ्ट होता है. ये इस पूरी कहाना का एक ऐसा दबा छुपा सच है जिस पर कोई बात नहीं करना चाहता है.
मैंने देखा कि एनडीटीवी के कुछ पुराने कर्मचारी रवीश को कोस रहे हैं. ये सामान्य बात है. जो आदमी बड़े पद पर जाता है उसको पसंद न करने वालों की कतार लंबी होती है. आज से सात आठ साल पहले भी एनडीवी में कई लोग थे जो रवीश को नहीं पसंद करते थे और उनके प्राइम टाइम से भी चिढ़ते थे. मीडिया की बहस में ये सब गौण बातें हैं.
प्रणय राय की रणनीति सत्ता के साथ नजदीकी की रही और ये महीन राजनीति रही. वो ब्यूरोक्रेट, नेताओं के बच्चों के जरिए सत्ता से नजदीकी रखते थे जबकि ज़ी टीवी या फिर आज तक और बाकी चैनलों ने सीधे सीधे सत्ता से दोस्ती की कि विज्ञापन दीजिए बदले में अपने मनमाफिक कवरेज लीजिए. ये आम लोगों को पता नहीं होता है.
टीवी चैनलों में काम करने वाला लगभग हर आदमी जानता है कि हर चुनाव से पहले चैनलों से साथ राजनीतिक दलों की डील होती है. चुनाव कवरेज के नाम पर पैसे दिए जाते हैं इसलिए निष्पक्षता कौन सी चिड़िया है मुझे नहीं पता.
एनडीटीवी का अंग्रेजी चैनल (हिंदी को इससे अलग रख रहा हूं कई कारणों से) कलोनियल मीडिया का एक बढ़िया उदाहरण था……हिंदी अलग इसलिए कि प्रणय की प्रायोरिटी में हिंदी कभी नहीं रहा. उनके लिए चैनल का मतलब अंग्रेजी का एनडीटीवी था एनडीटीवी इंडिया नहीं. ये बात मैं बहुत सोच समझ कर कह रहा हूं.
अब दिक्कत ये है कि जब पोस्ट-कलोनियल चैनल खत्म हो गया है तो आगे क्या बनेगा. पोस्ट कलोनियल अवधारणाओं या संस्थानों की दिक्कत ये होती है कि आप टूटने के बाद जो नया बनाते हैं उसमें स्पष्टता नहीं होती. आम तौर पर नया करने की बजाय लोग पुराना या पीछे की तरफ लौटते हैं और वो अटक कर रह जाता है फेक नैशनलिज्म पर……………….मेरा अपना अनुमान है कि आने वाले समय में एनडीटीवी वैसा ही हो जाएगा जैसा आज तक या स्टार न्यूज़ है.
पत्रकारिता का बंटाधार बहुत पहले हो चुका था. अब ताबूत में कील गड़ी है. इसमें मीडिया के व्यवहार पर बात करिए. व्यक्तिगत खुन्नस, कुंठा निकालने से आप अपने बारे में लोगों को बता रहे हैं. जिनको गरिया रहे हैं. वो अपना कर चुका है आपसे बेहतर और आपसे कहीं आगे.