
सुशोभित-
जगदीप धनखड़ का कॅरियर-ग्राफ़ चकित कर देने वाला है। भाजपा से पहले वो जनता दल और कांग्रेस में थे, सांसद-विधायक भी चुने गए, चंद्रशेखर सरकार में राज्यमंत्री तक रहे, लेकिन महज़ एक दशक पूर्व तक वे अपना परिचय सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट के रूप में लिखते थे। यह 2013 की बात है। वे नईदुनिया में कॉलम लिखते थे। तब मैं नईदुनिया के सम्पादकीय पेज पर था। उनसे सीधा सम्पर्क था। वे बड़े सधे हुए विधिवेत्ता थे और उनके कॉलम क़ानूनी मामलों की बारीकियाँ बताने वाले होते। उनकी शैली बड़ी बिंदुवार होती, जैसे उनके लेखों में पैराग्राफ़ के बजाय 1, 1.1, 1.2, 1.3, 2, 2.1, 2.2… इस तरह से विचारों की सरणियाँ होती थीं। वे एक-एक कर तर्क प्रस्तुत करते, जैसे ईंट पर ईंट रखकर कोई स्ट्रक्चर बनाता हो। उनके लेख अंग्रेज़ी में होते और उनका अनुवाद (यह मेरा ही जिम्मा था) टेढ़ी खीर था।

2013 गया और 2014 लगा, तब नईदुनिया के तत्कालीन प्रधान सम्पादक श्री श्रवण गर्ग ने योजना बनाई कि नववर्ष-विशेष के रूप में लेखों की एक शृंखला सम्पादकीय पेज पर छापी जाए। हर विषय के लिए एक विशेषज्ञ को चुना गया। क़ानूनी मामलों पर जगदीप धनखड़ ने लिखा। लेख छपा। दोपहर को मैं कार्यालय जा रहा था कि रास्ते में ही फ़ोन वाइब्रेट हुआ। धनखड़ का मैसेज था- “क्या बंधु, नाम ही ग़लत छाप दिए!” मैं चौंका। समाचार-पत्र खोलकर देखा तो पाया वो सही कह रहे थे। भूल से उनका नाम जगदीप के बजाय जयदीप छप गया था। वह त्रुटिपूर्ण नाम आज भी नईदुनिया की पुरानी फ़ाइलों में कहीं मौजूद होगा। ग़नीमत कि उन्होंने इसकी शिक़ायत प्रधान सम्पादक से नहीं की, मुझी से कहकर रह गए।
उनके कॉलम भारतीय जनता पार्टी के दृष्टिकोण का समर्थन करने वाले हुआ करते थे। राइट-विंग का नज़रिया रखने वाले क़ानूनदाँ के रूप में उनकी ख्याति थी। जब यूपीए सरकार ने प्रिवेंशन ऑफ़ कम्युनल एंड टारगेटेड वाइलेंस बिल का प्रस्ताव रखा तो धनखड़ ने इसे “दि मोस्ट ड्रैकोनियन एंड सिनिस्टर बिल ऑफ़ इंडिपेंडेंट इंडिया” कहकर अपनी सुपरिचित शैली में बिंदुवार उसकी बखिया उधेड़ी। वह बिल फिर अंतत: पास नहीं ही हुआ।
धनखड़ राजस्थान के धरतीपकड़ जाट हैं। झुंझनू जिले के किठाना गाँव से आए हैं। इतने विनम्र कि मुझी को भेजे जाने वाले ईमेल्स की शुरुआत ‘डियर सर’ शब्द से करते थे। पर पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में उन्होंने ममता बनर्जी से ऐसी ठानी कि उन्हें पदोन्नति का पुरस्कार मिला। 2013 में सीनियर एडवोकेट और एक अख़बार के स्तम्भकार से 2023 में भारत के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति तक का उनका यह सफ़र चकित करने वाला है। सरकारें अपने निष्ठावान बौद्धिकों को उपकृत करने में कोताही नहीं बरतती हैं!
One comment on “सरकारें अपने निष्ठावान बौद्धिकों को उपकृत करने में कोताही नहीं बरततीं… जैसे उपराष्ट्रपति पद पर पहुँचे जगदीप धनखड़ को ही देख लीजिए!”
इससे तो यही लगता है कि धनखड़ सस्ते में उपराष्ट्रपति बन गये और हरिवंश बदनाम होकर भी राज्यसभा के सदस्य ही बन पाये। मुझे लगता है कि यह सुप्रीम कोर्ट के वकील और संपादक का अंतर है। स्तंभ लिखते थे तो उनमें संपादक की योग्यता भी मान ली गई होगी। जो भी हो, सच है और कड़वा है। पसंद अपनी-अपनी। मोदी सरकार ने ऐसे कई लोगों को पुरस्कृत किया है।