मोदी सरकार की तमाम खामियों के बावजूद एनडीए फिर से सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हो गया। वह भी प्रचंड बहुमत के साथ। विपक्ष ईवीएम में गड़बड़ी और फेर बदल का आरोप लगा रहा है। यह कहा जा रहा है कि मीडिया से लेकर सरकारी मशीनरी तक सरकार का साथ दे रही थी। यहां तक कि चुनाव आयोग पर भी मोदी सरकार का साथ देने का आरोप विपक्ष लगा रहा है। विपक्ष यह नहीं देख रहा है कि उसने ऐसा किया क्या है कि जनता उसे वोट देती। जो विपक्ष मोदी के पांच साल के कार्यकाल में वातानुकूलित कमरों से बाहर नहीं निकला। चुनाव में भी जनता से संवाद करना जरूरी नहीं समझा। जातिगत आधार पर गठबंधन बनाकर बस जीत मान ली।
देश में पहली बार इतना कमजोर और नकारा विपक्ष था, जिसका भरपूर फायदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया। विपक्ष के लगभग सभी दल महापुरुषों के नाम पर राजनीति तो करते रहे पर उनकी विचारधारा से बहुत दूर जा चुके थे। दलित, पिछड़ों, किसान व मजदूर की बात तो करते रहे पर उनकी समस्याओं से उन्हें कोई सरोकार नहीं रहा।
आज की राजनीति में यह माना जाता है कि केंद्र की सत्ता पर काबिज पार्टी हर तंत्र को अपने कब्जे में रखना चाहती है। इसमें वह काफी हद तक सफल भी रहती है। इसकी शुरुआत कांग्रेस ने कर दी थी। क्योंकि नरेंद्र मोदी और अमित शाह राज्यस्तर पर गुजरात में यह खेल खेल चुके थे तो केंद्र में यह खेल खेलने के लिए उन्हें वह अनुभव काम आया। देश के राजनीतिक इतिहास की बात करें तो जब भी किसी जमी हुई सरकार को सत्ता से बेदखल किया गया है तो बड़ा आंदोलन हुआ है। चाहे 1977 में इंदिरा गांधी की जमी हुई को उखाड़ फेंक कर जनता पार्टी की सरकार बनी हो या फिर 1989 में राजीव गांधी की सरकार को हटाकर वीपी सिंह की दोनों बार बड़ा आंदोलन हुआ। 2014 में भी यूपीए सरकार बदलकर मोदी सरकार आने में अन्ना आंदोलन का बहुत बड़ा योगदान रहा है।
अब जब मोदी सरकार प्रचंड बहुमत से चल रही थी तो गैर संघवाद का नारा देने वाले नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, रामदास अठावले जैसे तथाकथित समाजवादी मोदी सरकार के साथ थे। प्रधानमंत्री मोदी विदेश नीति पर लगातार लोकप्रियता बटोर रहे थे। ऐसे में विपक्ष ने कैसे सोच लिया कि बिना पसीना बहाये सत्ता परिवर्तन हो जाएगा। वह भी वंशवाद और परिवारवाद के बल पर तैयार हुए युवा नेतृत्व से।
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार के खिलाफ आंदोलन न हुए हों। मध्य प्रदेश के मंदसौर में हुए किसान आंदोलन में 6 किसानों ने शहादत दी। महाराष्ट्र में किसान आंदोलन के सामने फड़नवीस सरकार को झुकना पड़ा। स्वराज इंडिया, सोशलिस्ट पार्टी इंडिया के साथ ही कई सामाजिक संगठनों ने कई बार आंदालन किया। दिल्ली जंतर मंतर पर आये दिन धरना-प्रदर्शन होते रहे। हां देश के मुख्य दलों ने इन आंदालनों को कोई खास तवज्जो नहीं दी। यहां तक कि किसानों की शहादत पर भी ये मुख्य दल आक्रामक न हो सके।
देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा ने गठबंधन तो बना लिया पर वे जातीय आंकड़ों पर ही खुश होते रहे। जैसे पांच साल तक सपा और बसपा मोदी सरकार के खिलाफ खुलकर न बोल सकी। ऐसे ही चुनाव प्रचार में उनका रवैया रहा। ऐसा लग रहा था कि जैसे सपा और बसपा भाजपा नहीं बल्कि कांग्रेस के खिलाफ लड़ रही थी। बसपा ने अपनी पुरानी छवि से बाहर आने की जमहत नहीं उठाई। पहले की तरह ही अधिकतर टिकट पैसे लेकर दिये। वह भी करोड़ों में। अब दलितों में पढ़े लिखे युवक हैं। वे सब समझते हैं कि उनके वोटबैंक के दम पर मायावती नोट बटोर रही हैं। सपा ने आधी सीटोंं पर भी अपने परिवार के किसी भी सदस्य का टिकट नहीं काटा। खुद अखिलेश यादव भी लोस चुनाव लड़े। इन परिस्थितियों में यादव वोटबैंक में गलत संदेश जाना स्वभाविक था। यादव समाज को लगा कि मुलायम परिवार उनके वोटबैंक के दम राजा महाराजाओं की जिंदगी जी रहा है। सबसे बुरा हाल तो मुस्लिमों का है। विपक्ष की सभी पार्टियों को मुस्लिम वोटबैंक तो चाहिए पर टिकट क नाम पर ये भी मुस्लिमों को देने में कंजूसी दिखाते हैं। अरविंद केजरीवाल देश की राजनीति बदलने के लिए राजनीति में आये थे, खुद बदल गये। जिस कांग्रेस के खिलाफ उन्होंने राजनीतिक वजूद बनाया। गठबंधन के लिए उसी कांग्रेस के ही पीछे घूमने लगे और जब न हुआ तो आलोचना करने लगे।
पश्चिमी बंगाल में ममता बनर्जी ने ऐसी अराजकता दिखाई कि किसी भी पार्टी के नेता को नहीं बख्शा। अमित शाह की रैली में हुए हिंसक हमले से उनके खिलाफ गलत मैसेज गया। शरद यावद ने अपनी पार्टी तो बना ली पर खुद राजद के टिकट पर मधेपुरा से चुनाव लड़ने बिहार चले गये। चाहे शरद पवार हों, चंद्रबाबू नायडू हों या फिर अजित सिंह सभी नेताओं से जनता को कोई अब उम्मीद नहीं रही है।
ऐसे में मुलायम सिंह यादव ने तो विपक्ष को हारा हुए बताते हुए संसद में ही मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की कामना पेश कर दी थी। शरद पवार बीच-बीच में मोदी की तारीफ करते रहे। तो ऐसे में यदि मोदी फिर से प्रधानमंत्री बन रहे हैं तो इसमें दिक्कत क्यों है। उनके प्रधानमंत्री बनने का आधा काम तो विपक्ष ने ही कर दिया था। सत्ता का खेल देखिए। मुलायम सिंह और उनके पुत्र अखिलेश यादव के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति मामले में 2013 याचिका दायर की गई। पांच साल तक मामला शांत रहा। 2019 के लोक सभा चुनाव के करीब आते ही मामला फिर से गर्मा गया। एग्जिट पोल में एनडीए को जीत दिखाते ही तो दोनों बाप बेटे को क्लीन चिट दे दी गई।
राहुल गांधी राफेल मामले को लेकर शोर मचाते रहे। मोदी पर लोकतंत्र को खत्म करने संविधान की धज्जियां उड़ाने का आरोप लगाते रहे। पर जब फारुक अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर में भी एक प्रधानमंत्री बनाने की बात कही। ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में संविधान की धज्जियां उठाई तो उन्होंने एक शब्द तक नहीं बोला। राष्ट्रवाद के मुद्दे पर मोदी विपक्ष पर हावी रहे। प्रधानमंत्री को विपक्ष के घेरने के बजाय उल्टे प्रधानमंत्री विपक्ष को घेरते दिखे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह संदेश देने में जरूर कामयाब रहे कि उन्होंने मेनहत तो की है। विपक्ष के किसी नेता ने संघर्ष, ईमानदारी की छवि से जनता को प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया। लगभग सभी दल के मुख्य नेताओं ने अकूत संपत्ति अर्जित कर ली पर गरीब, मजदूर, किसान की भी बस लड़ाई लड़ने का ही दंभ भरते रहे। उनका जीवन स्तर सुधारने के लिए अपने कार्यकाल में कोई कारगर कदम नहीं उठाया। क्या सारे लोकतंत्र और संविधान के बचाने की जिम्मेदारी बस जनता की है। विपक्ष, मीडिया, कानून, संवैधिानिक संस्थाएं ये सब केंद्र सरकार की शह पर बस देश के संसाधनों का दोहन करेंगे।
लेखक चरण सिंह राजपूत सोशल एक्टिविस्ट हैं.