सुजीत सिंह प्रिंस-
पत्रकार सत्येंद्र गिरफ़्तारी प्रकरण पर उस वक़्त अखबारों में छपी खबरों का पोस्टमार्टम!
प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता के गिरते हुए स्तर को महसूस करना हो तो गोरखपुर के चंद अखबार उठा कर उनकी खबरों पर अपनी नजरें घुमा लीजिये। इनकी खबरें पढ़ते ही आपको आभास हो जाएगा कि खबरों को चापलूसी की चाशनी में लपेटकर हर रोज किस तरह घटिया तरीके से आपके सामने परोसा जाता है। अखबार के मालिकान को तो पता ही नहीं है कि उनके संस्थान के होनहार पत्रकार गलबाजी और दलाली के तहत चौकी थानों की सेटिंग करते करते धारीदार अंडरवियर से जॉकी ब्रांड तक का सफर तय कर चुके हैं ।
गोरखपुर में कुछ दिन पहले एक ही मामले में तीन अलग अलग अखबारों में छपी खबर चीख चीख कर यह बता रही है कि अखबारों की खबरें किस हद तक भयानक तरीके से प्रायोजित की जा जा रही हैं। इन प्रायोजित खबरों का भले सच्चाई से दूर दूर तक कोई वास्ता न हो लेकिन कलम के दलाल अपना टेलर ऐसा टाइट करते हैं जैसे कभी अंग्रेजी हुकूमत के वायसराय लोग किया करते थे। अखबारों में छपी इस खबर पर खबरनवीसों के पास इस बात का कोई जवाब नही है कि आखिर इस पूरे मामले में एक बार भी उन्होंने पत्रकार सत्येंद्र का पक्ष जानने की कोई कोशिश क्यों नहीं की ?
इन ख़बरवीरों ने जनता को यह क्यों नही बताया कि ड्रग विभाग और ड्रग माफिया के बीच लाखों रुपये का लेनदेन का स्टिंग प्रसारित होने के बाद ही पत्रकार सत्येंद्र पर आनन फानन में मुकदमा क्यों लिखा गया? आखिर ऐसा क्या हुआ कि मुकदमा लिखते ही बगैर किसी ठोस सबूत के पत्रकार को निपटाने के लिए पुलिस अचानक से इतनी एक्टिव हो गयी कि उसे हाइकोर्ट के निर्देश की मर्यादा भी लांघनी पड़ गयी ? जिले के तीन विभाग के पाँच बड़े भ्रष्टाचारियों के खिलाफ पत्रकार द्वारा जाँच खुलवाए जाते ही अचानक से भयानक तरीके से उनकी गिरफ्तारी क्यों कर ली गयी?
सास तथा पारिवारिक विवाद व अदालत में खारिज कर दिए गए मुकदमे के आधार पर पत्रकार को हिस्ट्रीशीटर कहकर खूब प्रचारित करने से पूर्व ख़बरवीरों ने इस संबंध मे जारी दिशा निर्देशों का अनुसरण क्यों नही किया? स्टिंग आपरेशन तो ड्रग विभाग और ड्रग माफिया का हुआ था तो फिर अखबार के दो तीन मठाधीश पत्रकारों को इस स्टिंग आपरेशन से दर्द क्यों उठ गया? क्या ड्रग माफियाओ का यह खेल इन दो तीन मठाधीश पत्रकारों के संरक्षण में चल रहा है?
पत्रकार के घर पर ब्रेन टी बी की गंभीर बीमारी से ग्रसित तथा स्वयं चल फिर पाने में असमर्थ उसकी पत्नी को व्यथित होकर इस अस्वस्थता में भी आखिर आत्मघाती कदम क्यों उठाना पड़ा?
ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनका जवाब यदि माँगा जाए तो इन ख़बरवीरों के हाथों से तोते उड़ जाएंगे। क्या इन खबरवीरों में आज इतनी भी ग़ैरत बची है कि वे इस मामले में इन सभी सवालों का कोई तथ्यात्मक जवाब दे सकें तथा पत्रकार सत्येंद्र की आंखों में आंखे डालकर सवाल पूछने और सच जानने की हिम्मत कर सकें?
कोई पूछे या न पूछे लेकिन ये सभी और ऐसे अन्य तमाम सवाल आज नहीं तो कल इन ख़बरवीरों और इनके संस्थान मालिकानों से अदालत के कटघरे में जरूर पूछे जाएंगे। आज इस मामले में तमाम ऐसे सबूत निकलकर सामने आ चुके हैं जो यह बता रहे हैं कि खबर बांचने और बेचने का धंधा करने वाली दुकान तथा दुकानदारी के लिए पत्रकार सत्येंद्र एक ऐसी चुनौती बन चुके हैं जिनका साक्षात्कार करने का माद्दा सिर्फ असली पत्रकारों के पास है, दलालों के पास नहीं।
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