Abhishek Srivastava : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रमुख पदों पर फिर से आइसा की जीत को मैं वाम राजनीति की जीत के तौर पर नहीं, शहरी ‘आधुनिकता’ की जीत के तौर पर देखता हूं। दरअसल, जेएनयू अनिवार्यत: एक शहरी आधुनिक ‘स्पेस’ है। इसे आप cosmopolitan भी कह सकते हैं। नेहरूवादी समाजवाद का यह आखिरी किला इसी अवधारणा पर गढ़ा भी गया था। जिस ‘आधुनिकता’ की बात मैं कर रहा हूं, वह एक न्यूनतम elite नागरिक की मांग करती है। इस elitism की आलोचना आप राष्ट्रवादियों के चालू जुमलों में बड़ी आसानी से खोज सकते हैं।
दिक्कत ये है कि एबीवीपी, बीजेपी या कोई भी राष्ट्रवादी संगठन अपनी मान्यताओं के चलते जेएनयू किस्म का इलीट नहीं हो सकता। देश भर में प्रतिगामी विचारों और व्यवहार के दोबारा उभार के दौर में भी चूंकि जेएनयू ने मोटे तौर पर अपनी आधुनिकता को कायम रखा है, इसलिए आइसा का जीतना वहां स्वाभाविक है। यह तब तक जारी रहेगा जब तक आजीविका और कैरियर के अकादमिक, पेशेवर, बौद्धिक हलकों में आधुनिकता की मांग होगी।
संक्षेप में, शहरी आधुनिकता, अभिजात्य होने की बाध्यता, कैरियरवादी आकांक्षा और बौद्धिक जगत में डॉमिनेंट विचार की सत्ता- ये सब मिलकर आइसा की जीत के पीछे के कुछ अदृश्य कारण हैं। जैसे-जैसे सत्ता के कमरों में प्रतिगामी विचारों का दबदबा होता जाएगा, वैसे-वैसे जेएनयू इस अर्ध-सामंती औपनिवेशिक समाज (भाकपा-माले लिबरेशन की वैचारिक लाइन) की शक्ल लेता जाएगा और आइसा की जरूरत कम होती जाएगी। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि भाकपा-माले (लिबरेशन) भारतीय समाज का जो वैचारिक विश्लेषण करता है, उसके छात्र संगठन का जेएनयू की सत्ता में होना खुद उसी का निषेध है।
पत्रकार और एक्टिविस्ट अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से.