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सुख-दुख

आखिर क्यों मारे जा रहे पत्रकार

जी हां, बलातकार, दिनदहाड़े हत्या, घपले-घोटाले, अवैध खनन आदि घटनाओं को उजागर व आरोपी को जनता के सामने लाकर बेनकाब करना अगर गुनाह है तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर सच है तो फिर इनकी बखिया उधेड़ने वाले पत्रकारों की क्यों सिलसिलेवार हत्याएं हो रही है। आखिर इसकी छानबीन क्यों नहीं हो पा रही है। आखिर क्यों इन घटनाओं में संलिप्तों के आरोपों की जांच में लगे आफिसरों की ही रिपोर्ट को सही मान लिया जाता है, जिसके बारे में जगजाहिर है कि वह अपने दोषी अधिकारियों के खिलाफ रिपोर्ट देना तो दूर जुबा तक नहीं खोलेंगे, फिर इन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों से क्यों दोषियों की जांच कराई जाती है 

जी हां, बलातकार, दिनदहाड़े हत्या, घपले-घोटाले, अवैध खनन आदि घटनाओं को उजागर व आरोपी को जनता के सामने लाकर बेनकाब करना अगर गुनाह है तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर सच है तो फिर इनकी बखिया उधेड़ने वाले पत्रकारों की क्यों सिलसिलेवार हत्याएं हो रही है। आखिर इसकी छानबीन क्यों नहीं हो पा रही है। आखिर क्यों इन घटनाओं में संलिप्तों के आरोपों की जांच में लगे आफिसरों की ही रिपोर्ट को सही मान लिया जाता है, जिसके बारे में जगजाहिर है कि वह अपने दोषी अधिकारियों के खिलाफ रिपोर्ट देना तो दूर जुबा तक नहीं खोलेंगे, फिर इन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों से क्यों दोषियों की जांच कराई जाती है 

पत्रकार किसी मजहब-जाति का नहीं बल्कि समाज में व्याप्त कुरीतियों का दुश्मन होता है, लेकिन अफसोस इन कुरीतियों व काले कारनामों के ठेकेदार बोली का जवाब बोली से देने के बजाएं बुलेट या अपनी ओछी हरकतों से देते है। लालफीताशाही आफिसर अपने पद का दुरुपयोग कर पत्रकारों का उत्पीड़न करते है। पत्रकार की कलम सच न उगले फर्जी मुकदमें दर्ज कर घर-गृहस्थी लूट लेते है या लूटवा देते है या फिर जिंदा जला देते है या जलवा देते है। जबकि सच तो यह है कि खबर किसी की जान नहीं लेते, लेकिन जिस तरह चाहे वह उत्तर प्रदेश हो या बिहार या मध्य प्रदेश या फिर महाराष्ट जैसे अन्य प्रदेश कलम के सिपाहियों की खबर उनके जान की दुश्मन बन रही है, उससे तो यही कहा जा सकता है कलम की ताकत बंदूक या लालफीताशाही के उत्पीड़नात्मक रवैये से कहीं ज्यादा है। यह सही है कि किसी की अभिव्यक्ति पर आपकी असहमति हो, आप उसे मानने या न मानने के लिए भी तो स्वतंत्र है, लेकिन विरोधी स्वर को हमेशा-हमेशा के लिए खामोश कर देने या दुसरों पर अपनी सोच जबरन थोपने की इजाजत किसी भी धर्म में नहीं है, परंतु सब हो रहा है। कुछ दलाल, ब्रोकर व लाइजनिंग में जुटे पत्रकारों को छोड़ दे तों ऐसे पत्रकारों की संख्या एक-दो नहीं बल्कि हजारों में है, जो हर तरह के असामाजिक तत्वों की पोल अपनी कलम के जरिए उजागर करते है और हर वक्त लालफीताशाही से लेकर नेता माफिया व पुलिस के निशाने पर रहते है। बात आंकड़ों की किया जाएं तो पत्रकारों के साथ होने वाली घटनाओं की संख्या हाल के दिनों में बड़े पैमाने पर बढ़ी है। पत्रकारिता के लिहाज से बेहद खतरनाक देश तो है ही भारत का सबसे बड़ा सूबा यूपी सर्वाधिक संवेदनशील हो गया है। यूपी में किसी जेहादी नहीं बल्कि अखिलेश सरकार के गुंडाराज के चलते 15 से अधिक पत्रकारों की हत्या, 500 से अधिक पत्रकारों पर फर्जी मुकदमें व दो दर्जन से अधिक पत्रकारों की घर-गृहस्थी लूटा जा चुका है। 

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मतलब साफ है जिस तरह घपलों-घोटालों, बलातकार के आरोपियों, खनन आदि में संलिप्त बाहुबलियों व सरकारी खजानों को लूटने वाले सफेदपोशों के काले कारनामों को जनता के सामने रखने वाले जांबाज पत्रकार जगेन्द्र सिंह को कैबिनेट मंत्री राममूर्ति वर्मा की साजिश में आकर घूसखोर कोतवाल श्रीप्रकाश राय व उसके साथ दबिश देने गए गुंडों जिंदा जला दिया, भदोही में दलित महिला की बलातकार आरोपी के दौलतमंद से लाखों रुपये लेकर लूटेरा व हत्यारा कोतवाल संजयनाथ तिवारी आईएएस अमृत त्रिपाठी व आईपीएस अशोक शुक्ला ने पत्रकार सुरेश गांधी पर फर्जी मुकदमें दर्ज कर घर-गृहस्थी लूटवा लिया, कुठ इसी अंदाज में कानपुर, लखनउ, इलाहाबाद, गोरखपुर आदि जिलों में एक के बाद एक पत्रकारों के साथ पुलिस व माफियाओं ने किया उससे स्पष्ट होता है कि सबकुछ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के ईशारे पर होता है और होहल्ला मचने पर मूआवजा देकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की जाती है। कहा जा सकता है इस तरह के हालात पत्रकारों के लिए आपताकाल से भी बुरी स्थिति है। अभिव्यक्ति की आजादी का खुलेआम कत्ल किया जा रहा है। सरकारें मौत की कीमत मुआवजे में तौल रही है। तभी तो पत्रकार जगेन्द्र को जिंदा जलवाने के बाद मध्यप्रदेश के संदीप को खनन माफिया ने जलाकर मार डाला। इस मौत की गुत्थी अभी सुलझी भी नहीं कि कानपुर, गोरखपुर, मुजफरपुर, इलाहाबाद में पत्रकार पर हमला किया गया अब मध्य प्रदेश के झबुआ में व्यापम घोटाले की तहकीकात करने आएं आजतक के पत्रकार अक्षय सिंह की रहस्यमय तरीके से मौत हो गयी। जो भी हो अगर व्यापमं घोटाले से जुड़ी पहली मृत्यु होती तो शायद होनी मान कर गम खाते। लेकिन इस घोटाले में मौतों का जो लम्बा सिलसिला चलता आ रहा है, उसे देखते यह मृत्यु भी संदेह के प्रत्यक्ष घेरे में है। अब भी अगर इन मौतों और घोटाले की जाँच सीबीआई को नहीं सौंपी जाती, तो सीबीआई होती किसलिए है? यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। 

यहां जिक्र करना जरुरी है कि देश के सबसे बड़े रोजगार घोटाले व्यापम घोटाले में नम्रता का नाम आने के बाद उज्जैन जिले में रेलवे ट्रैक के पास संदिग्ध परिस्थितियों में उसकी लाश मिली थी। इंडिया टूडे ग्रुप के पत्रकार अक्षय सिंह नम्रता के पिता मेहताब सिंह दामोर का इंटरव्यू करने के बाद दामोर के घर के बाहर ही खड़े थे। तभी अचानक उनके मुंह से झाग आना शुरू हो गया। अक्षय को पहले सरकारी अस्पताल ले जाया गया फिर उन्हें एक निजी अस्पताल में भी ले जाया गया। लेकिन उनकी बिगड़ती तबियत को देखते हुए उन्हें पास के ही दाहोद जिले के एक और अस्पताल में ले जाया गया. जहां उन्हें डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया। नम्रता के पिता मेहताब सिंह डामोर ने कहा, ‘‘आज दोपहर उनके निवास पर एक रिपोर्टर सहित चैनल के तीन लोग आए थे तथा बातचीत होने के बाद संबंधित कागजात की फोटोकॉपी कराने उनका एक परिचित बाजार गया.’। उन्होंने कहा, ‘‘रिपोर्टर सहित चैनल के लोग जब उनके घर के बाहर फोटोकॉपी का इंतजार कर रहे थे, तभी अक्षय के मुंह से अचानक झाग निकलने लगा और उन्हें तत्काल सिविल अस्पताल ले जाया गया, जहां से एक निजी अस्पताल में भेज दिया गया.’’। 

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वैसे भी मध्य प्रदेश के व्यवसायिक परीक्षा मंडल से जुड़े लोगों की एक के बाद एक होती मौतों ने व्यापम घोटाले को अब रहस्य बना दिया है। जांच एजेंसियों के मुताबिक व्यापम घोटाले में अब तक कुल 33 आरोपियों और गवाहों की मौत हो चुकी है, लेकिन जांच अभी भी किसी नजीतें पर नहीं पहुंची है। सवाल ये है कि व्यापम घोटाला अभी और कितनी जानें लेगा? 4 जुलाई को झाबुआ के पास मेघनगर में अक्षय सिंह की संदिग्ध मौत हुई थी। अक्षय सिंह की मौत के बाद एक बार फिर व्यापम घोटाले से जुड़े लोगों की मौतों के बढ़ते आंकड़े को लेकर बहस छिड़ गई है। पुराने जमाने की गुमनाम जैसी किसी मिस्ट्री फिल्म की याद जगा रहा है। कहा जाता है कि कई बार वास्तविक घटनाएं किसी भी उपन्यास और फिल्म से ज्यादा रहस्यपूर्ण होती हैं और इस मामले में तो यह बात पूरे दावे के साथ कही जा सकती है। इस घोटाले से जुड़े 25 लोगों की मौत अब तक हो चुकी है। इनमें से किसी की मौत स्वाभाविक या सामान्य नहीं है। मध्य प्रदेश का व्यवसायिक परीक्षा मंडल प्रीमेडिकल टेस्ट और प्रीइंजीनियरिंग टेस्ट के अलावा तमाम सेवाओं की प्रतियोगी परीक्षाएं संचालित करता है। इसमें कैसी जालसाजी चल रही थी इसका पर्दाफाश शायद आसानी से नहीं होता लेकिन यह घोटाला उस समय सतह पर आ गया जब प्रीमेडिकल टेस्ट की परीक्षा में वास्तविक परीक्षार्थी की जगह पेपर दे रहे दूसरे लोग संयोग से पकड़ लिए गए। इसकी जांच आगे बढ़ी तो न जाने कितनी पर्तें खुलने लगी। बड़े-बड़े कोचिंग संचालक और डाक्टर इसमें जेल जा चुके हैं। मध्य प्रदेश के एक मंत्री को भी जेल की हवा देखनी पड़ी है। हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह इसके तार कहां तक जुड़े हैं यह छोर बावजूद इसके अभी तक हाथ नहीं लग पाया है। इसे लेकर राजभवन पर तो उंगलियां उठ ही चुकी हैं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान भी संदेह के घेरे में लाए जा रहे हैं। शिवराज सिंह के व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष यह भी है कि कुछ वर्षों से उनका नाम कई कलंक कथाओं से भी जुडने लगा है। मुरैना में बालू माफियाओं द्वारा एक आईपीएस अफसर की कुचलकर हत्या के मामले से उजागर हुआ कि शिवराज सिंह के राज में किस तरह से अवैध खनन हो रहा है और इसे कराने वाली लाबी कितनी ताकतवर हो चुकी है। 

फिरहाल व्यापम घोटाले के तार किससे जुड़े हुए हैं, यह जांच का विषय है लेकिन इतना जरूर है कि जिस तरह से इस मामले के सबूतों को नष्ट करने और इसका पूरा राजफाश होने से रोकने के लिए कई लोगों को ठिकाने लगाया जा चुका है उससे यह तो साबित हो ही जाता है कि इसमें पर्दे के पीछे कोई बहुत बड़ा मास्टर माइंड है। उसके पास सत्ता भी है और आपराधिक क्षेत्र के धुरंधर भी। जिन लोगों की मौतें हो रही हैं उन्हें हत्या भी साबित नहीं किया जा सकता लेकिन वे मौतें सामान्य भी नहीं हैं इसलिए अगर इसकी सीबीआई जांच की मांग की जा रही है तो कोई अनुचित नहीं है। इस मामले की जांच से जुड़े एसटीएफ के दो अफसर तक शिकायत कर चुके हैं कि उन्हें फोन पर धमकियां मिली हैं। इसका मतलब यह बेहद संगीन मामला है। इस कारण सीबीआई भी नहीं इससे जुड़े लोगों की संदिग्ध मौत के लिए न्यायिक आयोग गठित होना चाहिए। उत्तर प्रदेश में भी एनआरएचएम घोटाले से जुड़े कई सीएमओ रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मारे गए थे। यह हत्याएं किसने कराई थी यहां भी पता नहीं चला। लोग विश्वास करते हैं कि कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं लेकिन यह मामले इस धारणा को खंडित कर देते हैं और जनता का इस मामले में विश्वास खंडित होना किसी राज्य के स्थायित्व के लिए अच्छी बात नहीं है। सवाल यह है कि शिवराज की सुराज और सुशासनवाली सरकार क्या कर रही है। पीएम मोदी पत्रकारों की मौत पर क्यों मौन है। डिजिटल इंडिया और साइबर स्वत्रतता के समर्थक पीएम की कलमकारों की मौत पर यह कैसी चुप्पी है। व्यापम घोटाले में क्यों जान जा रही है। निश्चित पर इमरजेंसी के लिए इंदिरा सरकार को भले दोषी ठहराया गया हो लेकिन आपातकाल में संभवत इस तरह की हत्या और रहस्यमय मौत संभत नहीं हुई होगी। यह पत्रकारों के लिए अघोषित आपातकाल है। सरकारी सुविधा पर जीने वाले पत्रकारों आगे आना होगा।  

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बेशक माफियाओं व बाहुबलियों सार्गिद में चल रही यूपी सरकार में अगर बलातकार के रसूखदार आरोपियों को पत्रकार अपनी लेखनी से जेल भेजवाता है तो उस पत्रकार पर फर्जी मुकदमा दर्ज कर घर-गृहस्थी लूट लिया जाता है। अगर किसी बाहुबल मंत्री के कालेकारनामों के साथ ही बलातकार में संलिप्तता की खबर प्रकाशित होती है उस पत्रकार को जिंदा जला दिया जाता है। वैसे भी पत्रकारिता को लोकतंत्र का चैथा स्तंभ यूं हीं नहीं कहा जाता। कुछ चाटुकार व लाइजनिंग के धंधे में जुड़े पत्रकारों को छोड़ दे, बाकी के लोगों तक सच पहुंचाने के लिए हम पत्रकार अपनी जान तक का परवाह नहीं करते। दुनियाभर में फैली हमारी बिरादरी हर तरह के हालात में लड़ते हुए काम कर रही है, ताकि सच जिंदा रहे, लोकतंत्र में लोगों की आस्था बनी रहे, जीवंत रहे, धड़कता रहे, गलत की जीत व सही की हार न हो। इससे सटीक उदाहरण और क्या हो सकता है कि पत्रकार जगेन्द्र सिंह, पत्रकार अक्षय सिंह जैसे पत्रकारों का बलिदान देने के बावजूद पत्रकारिता का काम जारी है। यहां बता देना जरुरी है कि शायद बंदूक की भाषा बोलने या अपने पद का गलत इस्तेमाल कर रौब गांठने वाले लालफीताशाही, नेता या माफिया यह नहीं जानते कि हम कलम चलाने से पहले ही तय कर लेते है कि अब से पूरा समाज, पूरा देश, पूरी दुनिया ही हमारा परिवार हैै। हम उनकी हक व आवाज उठाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते है, चाहे इसके लिए हमें किसी भी तरह की कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़ी। हम तो बस अपना काम करते है, जो हमें करनी चाहिए। हम तो जान हथेली पर लेकर ही सुबह से देर रात तक सड़क हो या कोई भी जोखिम भरा इलाका सब जगह पहुंच कर फोटों खिचने से लेकर वीडियों शूटिंग करते है, भ्रष्ट लालफीताशाही आफिसरों से लेकर पुलिस के काले कारनामों का संकलन कर तथ्यात्मक तरीके से प्रकाशित कराते है। यहां तक कि चाहे बम धमाके हो या सीमा पर सीजफायर का उल्लघंन हो या फिर आतंकी हमला या समुंदर में सुनामी तुुफान हो चक्रवात या फिर भूकंप ही क्यों न हो हर परिस्थिति में अपनी परवाह किए बगैर हम निकल जाते है अपने मिशन पर, ताकि हर आमो-ओ-खास तक सही-सही जानकरी पहुंचा सके। 

मैने खुद जब भदोही में बलात्कार व उत्पीड़न की शिकार दलित युवती की आवाज उठाई, बाहुबलि विधायक विजय मिश्रा के काले कारनामों को उजागर करने के साथ ही भ्रष्ट डीएम अमृत त्रिपाठी व एसपी अशोक शुक्ला सहित कोतवाल संजयनाथ तिवारी की कारगुजारी जनता के सामने उजागर किया तो इन भ्रष्टाचारियों ने मिलकर न सिर्फ कई फर्जी मुकदमें दर्ज किए बल्कि मेरी पूरी गृहस्थी लूटवा दी, लेकिन मैंने घुटने नहीं टेकने के बजाय दो टूक जवाब में कहा, मैं कलम चला रहा हूं, हथियार नहीं। इन सारे झंझावतों के बावजूद आज भी मेरी कोशिश दिन-रात यही है कि आप तक सही घटनाओं व काले कारनामों को आप तक पहुंचाने का पूरजोर कोशिश करता रहता हूं। क्योंकि यदि ईसा मसीह, महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी की हत्या करके उनके हत्यारों ने यह सोचा होगा कि वे इनकी आवाजों को ठंडा कर देंगे तो क्या हुआ? उसके परिणाम उल्टे ही हुए। अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ ही यह है कि उसमें कभी-कभी अपने हद से पार जाकर सच को कहा या लिखा जाय और उसके लिए खतरा उठाना लोकतांत्रिक समाज में किसी न किसी रुप में जरूरी होता है। लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब असुविधाजनक या अप्रिय अभिव्यक्ति को बर्दाश्त करने की सहिष्णुता भी है। हो सकता है कि किसी की कोई बात दूसरे को बुरी लगे, लेकिन एक लोकतांत्रिक और बहुलतापूर्ण समाज में उदारता और सहनशीलता जरूरी है। इसका मतलब कत्तई यह नहीं है कि अगर आपकों किसी की अभिव्यक्ति अच्छी नहीं लगी तो उसके लिए किसी की जान ले लेना या सामूहिक नरसंहार करने को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। उसके लिए कोर्ट-कचहरी सहित अन्य तरीके का भी तो इस्तेमाल हो सकता है, यह भी सही है कि किसी की अभिव्यक्ति पर आपकी असहमति हो, आपस उसे मानने या न मानने के लिए भी तो स्वतंत्र है, लेकिन विरोधी स्वर को खामोश कर देने या दुसरों पर अपनी सोच जबरन थोपने की इजाजत किसी भी धर्म में नहीं है, परंतु सब हो रहा है। 

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न खाऊंगा न खाने दूंगा की बात कहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जयललिता को तकनीकी आधार पर भ्रष्टाचार के मामले में अदालत से क्लीन चिट मिलने के बाद सबसे पहले बधाई देकर यह साबित किया कि उन जैसे फर्जी तीस मार खां केवल न खाने देने की डींगें हांक सकते हैं। यथास्थितिवादी वर्गसत्ता के मोहरे होने की वजह से उनकी यह कुव्वत तो है ही नहीं कि वे किसी को खाने से रोक सके। लोग न खा सके, इसके लिए तो व्यवस्था परिवर्तन की जरूरत पड़ती है और मोदी के लिए यह कैसे संभव है। बहरहाल पहले बात केवल भ्रष्टाचार की जीतीजागती देवी जयललिता को बधाई देने तक की थी लेकिन अब तो सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे तक के मामले में उन्होंने अपनी जुबान पर ताला लगाकर प्रभावशाली भ्रष्ट लोगों के साथ समझौता करने के अपने वर्ग चरित्र को स्पष्ट कर दिया है। उन्हीं के नेतृत्व में भाजपा में मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले में उनकी निष्क्रियता का अध्याय जुड़ गया है। उनसे तो भली इंदिरा गांधी थी जिन्होंने महाराष्ट्र में इससे हल्के सीमेंट घोटाला कांड में अपने प्रिय मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले को प्रारंभ में बचाते रहने के बाद जब देखा कि जनता में उनकी साख ही बिल्कुल खत्म हो जाएगी तो उनका इस्तीफा लेने में गुरेज नहीं किया लेकिन मोदी न तो जयललिता और वसुंधरा का इस्तीफा ले पाएंगे और न ही शिवराज सिंह का इस्तीफा लेकर व्यापम घोटाले से जुड़े लोगों की मौत की बेबाक जांच कराने का साहस दिखा पाएंगे।

दुख का विषय यह है कि सत्ता के हमाम में सभी नंगे हैं। लोग करें तो क्या करें। पहले कांग्रेस को भ्रष्ट समझते थे और उसने अपने आचरण से बहुत कुछ इस बात को साबित भी किया था। इसके बाद उसने मोदी और अरविंद केजरीवाल पर भरोसा किया लेकिन इन दोनों ने तो उसे बहुत गहरे मोहभंग की खाई में ले जा पटका है। कांग्रेस की तो कभी बहुत पवित्र छवि नहीं रही। उसके नेता व्यवहारिक माने जाते रहे इसलिए कांग्रेस का भ्रष्टाचार उजागर होता था तो जनता को कोई आघात सा नहीं लगताा था लेकिन मोदी और केजरीवाल तो अभी कुछ महीने पहले तक ही जनमानस के बीच दिव्य आत्माओं के रूप में छाए हुए थे। इन्होंने उसका जो विश्वास तोड़ा है उसकी भरपाई करना जनमानस के लिए आसान नहीं है। नास्तिकता को चरम नकारात्मक भावना माना जाता है लेकिन नास्तिकता का मतलब ईश्वर को नकारना नहीं यह विश्वास हो जाना है कि कहीं कभी कोई नैतिक सत्ता नहीं होती और इस समय ऐसी ही नास्तिकता के प्रसार का दौर है। जो इस कुफ्र के जिम्मेदार हैं इतिहास उन्हें बहुत कड़ी सजा देगा।क्या हो रही पत्रकारों की निदर्यता से हत्या। वह भी आम आदमी की ओर से नहीं। सारी घटनाएं सरकारों और सत्ता से जुडे सिपह सालारों से जुडी है। ऐसा क्यों? सवाल लाजिमी है। 

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आज तक टीवी न्यूज चैनल से जुड़े पत्रकार सुरेश गांधी से संपर्क : [email protected]

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