चालीस की चपेट में आते आते स्वास्थ्य की चिन्ताएं सताने लगती हैं। पहले बनारस में रहता था तो मजबूरी में ही सही गलियों में पैदल चलना खूब हो जाता था, घाट के कार्यक्रमों में शामिल होने जाता तो सीढ़ियां चढ़ने-उतरने की कसरत हो जाती लेकिन जबसे लखनऊ आया हूं, घर से निकलते ही वाहन की सवारी हो जाती है और फिर कुर्सियों पर घण्टों बैठे रहना। वैसे भी मुझे लगता है कि पत्रकारिता की नौकरी कई ज्यादतियों के लिए जिम्मेदार है।
अव्वल तो परिवार की उपेक्षा, फिर स्वास्थ्य की अनदेखी। याद आती है, 1990-91 में जब आज से पत्रकारिता की शुरूआत की तो हम सब रात में दो-ढाई बजे पेज छूटने के बाद चौक या मैदागिन पर चाय पीने चले जाते थे।कई बार हमारे साथ हमारे लोकल इंजार्च गोपेश पाण्डेय भी होते। फिर वहीं दूसरे अखबारों के साथी भी जुटने लगते और बातचीत का सिलसिला भोर में साढे़ तीन-चार बजे तक चलता। उस युवावस्था में लम्बे समय तक खाली पेट रहने और चाय पीते रहने से पेट की बीमारियों का जो सिलसिला शुरू हुआ फिर वह साथ जीवन भर का हो गया।
खैर, बताना यह चाहता हूं कि इधर कुछ समय से सुबह लोहिया पार्क जाने का क्रम शुरू हुआ है। यूं तो लखनऊ का यह प्रसिद्ध पार्क मेरे किराये के घर के पास ही है और कोई दूसरा होता तो यह सिलसिला कब का शुरू कर चुका होता लेकिन जल्दी उठना और फिर तैयार होकर टहलने निकलने के बारे में सोचकर ही आलस्य आता रहा। पत्रकारिता की यात्रा में अमूमन मैंने एेसी सुबहें तभी देखी थीं जब चौक से चाय पीकर आने में देर हो जाती, संकटमोचन संगीत समारोह जैसे रात भर चलने वाले संगीत कार्यक्रमों को कवर करना होता या फिर कहीं की यात्रा करनी होती और ट्रेन सुबह-सुबह पहुंच जाती। एेसे में लखनऊ आकर भी यह आदत नहीं बदल सकी, हालांकि यहां कामकाज निपटाकर घर पहुंचने में बनारस जितनी देर नहीं होती लेकिन आदत तो आदत ही ठहरी। अब जाकर यह आदत छूटी तो इसकी वजह टहलना नहीं, छोटी बच्ची को स्कूल छोड़ना है। हां, उसे छोड़कर लौटते समय टहल भी लेता हूं।
लेकिन आज सुबह टहलते हुए मन एेसा खिन्न हुआ कि लगता है अगले कुछ रोज शायद नहीं जा पाऊंगा। यूं तो हर पार्क में भिन्न भिन्न प्रकार के लोगों को जमावड़ा होता ही होगा, लोहिया पार्क में लोगों के कई समूह हैं। कुछ योग करने वालों का, कुछ फुटबाल खेलने वाले लोग हैं, कुछ ठहाके लगाने वाले। कुछ कपालभाति कर सांस छोड़ते हैं, कुछ तनाव दूर करते हैं और कुछ रक्त का दबाव सामान्य करते हैं। लेकिन कुछ एेसे भी हैं जो अपने गुबार निकालने यहां आते हैं। एेसे कई उम्रदराज हैं और इनमें से कुछ के बारे में एेसा लगता है कि जीवन भर तो इन्होंने अपने ढंग से नौकरियां की और जीवन के इस बेला में इन्हें धर्म और अध्यात्म की तरह आदर्श और मूल्यों की चिन्ता सता रही है। बातचीत सुनने की अपनी सहज प्रवृत्ति के कारण आज इनके जो शब्द कान में पड़े वे मीडिया के बारे में थे। उनमें से एक कह रहा था कि मीडिया बहुत भ्रष्ट हो गया है। दूसरे ने कहा कि मीडिया वाले बिक गये हैं।
इच्छा तो हुई कि वहीं चिल्ला चिल्लाकर कह दूं कि हां मीडिया भ्रष्ट है तभी तो पत्रकारों को मारा और जलाया जा रहा है। अरे अगर पत्रकार बिक रहे होते तो कोई भी उनकी कीमत लगा लेता, उन्हें अपने पक्ष में कर लेता। फिर उन्हें मारने और जलाने की जरूरत क्यों पड़ती, क्यों नहीं जगेन्द्र को कुछ रुपया देकर अपने पक्ष में कर लिया गया, क्यों व्यापम की खबर करने गये अक्षय से भष्टाचारी डर गए। पत्रकार अगर मारे जा रहे हैं तो इस कारण भ्रष्टाचारियों में उनका भय है। उन्हें लगता है कि इन्हें अपने पक्ष में नहीं किया जा सकता है। इसलिए वे पत्रकारों का मुंह न सिर्फ सदा-सदा के लिए बन्द कर देना जरूरी समझते हैं बल्कि वे पूरे मीडिया जगत को संदेश भी देना चाहते हैं। किसी रिपोर्ट में पढ़ा था कि स्वतंत्र ढंग से पत्रकारिता कर पाने के मामले में भारत दुनिया में 140 वें पायदान पर है। स्पष्ट है कि भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता का गला घोंटने वाली स्थितियां हैं। तो जनाब, अगर पत्रकार मारे जा रहे हैं तो आप स्वीकार करिए कि ये उनकी ईमानदारी का प्रमाण भी है। न तो उन्हें आतंकवादी और माओवादी डराकर अपने पक्ष में कर पाते हैं, न ही अपराधी एवं भ्रष्ट राजनेता और अफसर। भगवान के लिए अब उनसे उनकी ईमानदारी का और प्रमाण मत मांगिए।
वरिष्ठ पत्रकार आलोक पराड़कर की फेसबुक वाल से.