कांग्रेस नेतृत्व को इधर लगातार झटके पर झटके लगता जा रहे हैं। ताजा प्रकरण सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कण्डेय काटजू के सनसनीखेज खुलासे का है। इसको लेकर पिछले दो दिनों से संसद के दोनों सदनों में जमकर हंगामा हुआ। अन्नाद्रमुक के सांसदों ने खास तौर पर नाराजगी के तेवर दिखाए। केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कह दिया है कि उनकी सरकार राष्ट्रीय न्यायिक आयोग गठित करने के लिए संकल्पवान है। कोशिश की जाएगी कि उच्च स्तर पर न्यायपालिका में नियुक्तियों और पदोन्नतियों के मामले में ज्यादा से ज्यादा पारदर्शिता बरती जाए। ताकि, इस तरह के आरोपों और प्रत्यारोपों की स्थिति से बचा जा सके। इस मामले को लेकर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ही किरकिरी हुई है। इस प्रकरण में पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को चुप्पी साधनी पड़ी। उन्होंने मीडिया से यही कहा कि उनके पास इस मामले में कहने के लिए ज्यादा कुछ नहीं है। क्योंकि, इस प्रकरण में तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री एचआर भारद्वाज पहले ही अपना बयान दे चुके हैं। सो, वे नहीं समझते कि उन्हें इस मामले में अब कुछ और कहने की जरूरत रह गई है। कांग्रेस नेतृत्व इस प्रकरण में अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए तमाम कोशिश कर रहा है। लेकिन, बात बन नहीं पा रही। क्योंकि, इस खुलासे से साफ हो गया है कि सत्ता बचाने के लिए मनमोहन सरकार ने किस हद तक राजनीतिक सौदेबाजी को स्वीकार किया था?
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने अपने ब्लॉग के जरिए एक बड़ा खुलासा किया था। इसमें विस्तार से जानकारी दी गई कि कैसे मद्रास हाईकोर्ट के एक भ्रष्ट आचरण वाले जज को यूपीए सरकार के दौर में संरक्षण दिया गया। जबकि, सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की कोलिजियम ने संबंधित जज का कार्यकाल न बढ़ाने का फैसला कर लिया था। लेकिन, मनमोहन सरकार को बचाने के लिए एक राजनीतिक दल के दबाव के चलते फैसला बदलवा दिया गया। जबकि, उन्होंने ही मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश के तौर पर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश जस्टिस आरसी लोहाटी से इस जज के बारे में शिकायत की थी। उन्हीं के अनुरोध पर जस्टिस लोहाटी ने आईबी से जांच भी कराई थी। इस जांच रिपोर्ट में भी यह आया था कि संबंधित जज का आचरण ठीक नहीं है। इनकी कार्यशैली भ्रष्ट आचरण की है। इस रिपोर्ट के बाद ही यह तय हुआ था कि इस जज का कार्यकाल आगे नहीं बढ़ाया जाएगा।
जस्टिस काटजू ने यह जानकारी भी दी है कि कैसे मुख्य न्यायाधीश वाईके सबरवाल के कार्यकाल में भी इस जज को संरक्षण मिला। बाद में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने तो इस दागी जज को पक्की नियुक्ति ही दे दी। यह अलग बात है कि उन्होंने कुछ दिनों बाद इनका तबादला आंध्र प्रदेश में कर दिया था। इस खुलासे के बाद राजनीतिक हल्कों से लेकर न्यायिक हल्कों तक में काफी हलचल बढ़ गई। इस मामले की गूंज सोमवार को संसद में सुनाई पड़ी। अन्नाद्रमुक के सांसदों ने राज्यसभा में इस मामले में काफी आक्रामक मुद्रा अपनाई। इन लोगों ने यह मांग कर डाली कि इस मामले की उच्चस्तरीय जांच कराई जाए। दरअसल, अन्नाद्रमुक के सांसद इस मामले में अपनी खास प्रतिद्वंद्वी पार्टी द्रमुक की किरकिरी ही कराना चाहते थे। ऐसे में, ये लोग द्रमुक के नाम का उल्लेख भी करते रहे। मंगलवार को भी संसद के दोनों सदनों में इस प्रकरण पर खासी गर्मी देखी गई।
दरअसल, यह मामला जस्टिस अशोक कुमार से जुड़ा है। उन्हें 2003 में दो साल के लिए मद्रास हाईकोर्ट में एडीशनल जज के तौर पर नियुक्त किया गया था। 2004 में मद्रास हाईकोर्ट में जस्टिस काटजू मुख्य न्यायाधीश के पद पर आ गए थे। इनको जानकारी मिली थी कि अशोक कुमार का न्यायिक कैरियर संदिग्ध है। तमिलनाडु में जिला जज के रूप में इनकी छवि अच्छी नहीं रही थी। इन्हें एक खास राजनीतिक दल का आदमी माना जाता था। इस बारे में जस्टिस काटजू ने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस लोहाटी से बात करके आईबी जांच करा लेने का सुझाव दिया था। इस जांच में भी अशोक कुमार का चरित्र संदिग्ध पाया गया। सो, कोलिजियम ने तय किया था कि अप्रैल 2005 के बाद इनका कार्यकाल आगे न बढ़ाया जाए। लेकिन, इसकी भनक द्रमुक नेतृत्व को लग गई थी। इस पार्टी के खास समर्थन के बल पर यूपीए-1 की मनमोहन सरकार टिकी हुई थी। ऐसे में, पार्टी के नेताओं ने दबाव बढ़ा दिया था। यह अल्टीमेटम भी दिया गया कि यदि इस जज को हटा दिया गया, तो मनमोहन सरकार गिर भी सकती है।
कहा गया कि द्रमुक के इस अल्टीमेटम के बाद ही कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता (तत्कालीन कानून मंत्री भारद्वाज) ने चीफ जस्टिस पर दबाव बनाया, तो कार्यकाल बढ़ाने का फैसला हो गया। इसी तरह मुख्य न्यायाधीश सबरवाल के कार्यकाल में भी इस जज को संरक्षण मिला। जस्टिस के. जी बालकृष्णन के दौर में तो आईबी की प्रतिकूल रिपोर्ट के बावजूद इस जज को स्थाई कर दिया गया। ये महाशय जुलाई 2009 में हाईकोर्ट के जज के तौर पर रिटायर हुए। रिटायरमेंट के तीन महीने बाद ही उनका निधन हो गया। इनकी हाईकोर्ट में नियुक्ति के खिलाफ 2007 में पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री शांतिभूषण ने एक जनहित याचिका भी दायर की थी। इसी दौर में जस्टिस अशोक कुमार की नियुक्ति को लेकर बड़ा बवेला मचा था। लेकिन, 2009 में उनके निधन के बाद इस प्रकरण का विवाद शांत हुआ था।
अब एक बार फिर जस्टिस काटजू ने इस मामले को नए सिरे उठा दिया है। उन्होंने अपने खुलासे में यह बताने पर जोर दिया है कि कैसे न्यायपालिका में उच्चस्तर पर भी नियुक्तियों में राजनीतिक दबाव का खेल चलता रहा है? वो भी तक जबकि, 1998 में ही जजों की कोलिजियम के जरिए ही इस तरह की नियुक्तियों और पदोन्नतियों की व्यवस्था कर दी गई थी। इसके बावजूद उच्चस्तर पर राजनीतिक दबाव काम करता रहा है। इस मामले में गौर करने वाला एक तथ्य यह भी है कि द्रमुक सरकार के दौर में ही अशोक कुमार को सीधे जिला जज के रूप में नियुक्ति दी गई थी। द्रमुक से इनके करीबी रिश्ते पूरे तमिलनाडु में चर्चित थे। संसद में इस मामले की चर्चा हुई, तो भाजपा सहित कई दलों के सांसदों ने खुलकर कहा कि कांग्रेस के राज में ही न्यायपालिका सहित सभी संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा गिराने के तमाम कारनामे हुए हैं। अब इस मामले से भी साबित हो गया है कि मनमोहन सरकार को बचाने के लिए कितने राजनीतिक पाप किए गए थे?
तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री एचआर भारद्वाज कर्नाटक के राज्यपाल रहे हैं। पिछले महीने ही वे अपना कार्यकाल पूरा करके रिटायर हुए हैं। जस्टिस काटजू के खुलासे में जब उनकी भूमिका पर उंगलियां उठने लगीं, तो उन्होंने अपना पक्ष मीडिया में रखा है। भारद्वाज ने यह स्वीकार कर लिया है कि 2005 के दौर में द्रमुक के सांसदों ने जस्टिस अशोक कुमार का कार्यकाल बढ़ाए जाने के लिए दबाव बनाया था। इन लोगों ने कहा था कि जस्टिस अशोक कुमार दलित हैं। इसलिए, उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। इस मामले में उन्होंने कानून मंत्री की हैसीयत से तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस लोहाटी को चिट्टी लिखी थी। लेकिन, भारद्वाज ने इस बात को गलत बताया है कि मनमोहन सरकार को बचाने के लिए उन्होंने मुख्य न्यायाधीश लोहाटी पर कोई दबाव बनाया था?
पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन ने भी अपनी सफाई दी है। उन्होंने दावा किया है कि जस्टिस काटजू इस मामले में कई तथ्य तोड़-मरोड़ कर प्रचारित कर रहे हैं। जबकि, सच्चाई यह है कि मद्रास हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश पर ही 2007 में जस्टिस अशोक कुमार को स्थाई किया गया था। आईबी की रिपोर्ट के बारे में उनकी जानकारी में कभी कुछ नहीं आया। ऐसे में, उन पर गलत ढंग से पक्षपात करने का आरोप लगाया जा रहा है, जो कि ठीक नहीं है।
वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हंसराज भारद्वाज ने जस्टिस काटजू के खुलासे की टाइमिंग को लेकर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा है कि अब इतने सालों बाद जस्टिस काटजू को खुलासा करने की क्या जरूरत पड़ी? यदि उनके पास पुख्ता तथ्य थे, तो उन्हें उस दौर में ही विरोध जताना चाहिए था। वे सुप्रीम कोर्ट में भी रहे हैं। लेकिन, तब भी उन्होंने इस मामले का कभी जिक्र नहीं किया। आखिर, इसकी वजह क्या है, वह देश को यह भी बताएं? उल्लेखनीय है कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन पद का कार्यकाल अक्टूबर में समाप्त हो रहा है। जस्टिस काटजू मीडिया में अपनी कई अजब-गजब टिप्पणियों के लिए चर्चा में रहे हैं। दो साल पहले उन्होंने कह दिया था कि 90 प्रतिशत भारतीय मतदाता मूर्ख होते हैं। क्योंकि, वे अपना वोट धर्म, जाति व संप्रदाय के आधार पर देते हैं। उनके इस बयान की चर्चा मीडिया में काफी दिनों तक रही थी।
पिछले साल मार्च में उन्होंने मीडिया के बारे में भी एक विवादित टिप्पणी की थी। कह दिया था कि ज्यादातर पत्रकार अज्ञानी किस्म के होते हैं। इन्हें इतिहास, साहित्य या दर्शन किसी की ज्यादा समझ नहीं होती। सो, ये हल्के-फुल्के ज्ञान से ही इतराते रहते हैं। पिछले महीने ही जस्टिस काटजू ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे में एक विवादित टिप्पणी की थी। बोले थे कि मुस्लिम पर्सनल लॉ आउट डेटेड हो गया है। इसको तो बदल डालने की जरूरत है। इस बयान को लेकर कई दिनों तक राजनीतिक हल्कों में विवाद रहा है। न्यायपालिका से जुड़े इस बड़े खुलासे के संदर्भ में जस्टिस काटजू मीडिया में लगातार इंटरव्यू दे रहे हैं। जब एक टीवी चैनल ने उनसे यह पूछ लिया कि लोग आपके खुलासे के टाइमिंग को लेकर सवाल उठा रहे हैं। इसके बारे में कुछ बताइए, तो उनको गुस्सा आ गया। उन्होंने यही कहा कि टाइमिंग से क्या अंतर पड़ता है? प्रमुख बात तो यह है कि उन्होंने जो खुलासा किया है, वह सच्चा है या झूठा। यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि जो खुलासा किया गया है, उनमें राजव्यवस्था का असली चेहरा उजागर हो गया है। शायद, इसीलिए बहुतों को बेचैनी हो रही है। लेकिन, उनका असली मकसद तो राजनीतिक व्यवस्था के भ्रष्ट आचरण की सच्चाई बताने भर का रहा है।
लेखक वीरेंद्र सेंगर डीएलए (दिल्ली) के संपादक हैं। इनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।