Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

श्रीमंत शाही का मोह भाजपा में भी ज्योतिरादित्य को भारी पड़ेगा

आजादी के समय अंग्रेजों द्वारा आजाद घोषित कर दी गईं जिन लगभग साढ़े छह सौ रियासतों ने सरदार पटेल के प्रयासों से भारत संघ में विलय की घोषणा कर दी थी उनकी हैसियत का निर्धारण किया गया जिसमें ग्वालियर साम्राज्य को समूचे देश में तीसरे नंबर पर आंका गया। पहले नंबर पर रहे मैसूर एंपायर का प्रिवीपर्स 26 लाख रुपये सालाना बांधा गया था जबकि ग्वालियर का 10 लाख रुपये। इस लिहाज से ग्वालियर के सिंधिया सचमुच महाराज हैं लेकिन लोकतंत्र में स्वयंभू सनद पर्याप्त नही है। सिंहासन पर टिके रहने के लिए इस व्यवस्था में जन मान्यता की जरूरत होती है। लोगों के दिलों का राजा बनना पड़ता है।

वैसे सिंधिया सल्तनत इसमें पीछे नही रही। अंग्रेजों के समय भी जब उन्हें कोई चुनाव लड़ने की जरूरत नही थी वे अपनी प्रजा का दिल जीतने में कसर बांकी नही रखते थे। महाराजा आधुनिक प्रशासकों की तरह बाकायदा अपने इलाके में शीतकालीन भ्रमण और प्रवास, ग्रीष्मकालीन भ्रमण और प्रवास व पावसकालीन भ्रमण और प्रवास करते थे। इसकी शानदार ग्लेज पेपर पर लाल जिल्द में बुकलेट तैयार होती थी जिसमें महाराज साहब की घोषणा और पिछली घोषणा के क्रियान्वयन की रिपोर्ट दर्ज की जाती थी। बदमाशों के सक्रिय होने की सूचना मिलने पर महाराज खुद उनसे मोर्चा लेने जाते थे। ग्वालियर साम्राज्य में बनी छतरियां, बाबडि़यां, तालाब और धर्मशालाएं व मार्गो के आसपास फलदार, छायादार वृक्षों की कतारें इसकी गवाही देते हैं। ग्वालियर का बाड़ा महाराज के विकास संबंधी विजन की सुनहरी तस्वीर उकेरता है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इसके बावजूद सिंधियाओं पर स्वयंभू महाराज का नशा भी तारी रहा। विजया राजे सिंधिया इस घराने की पहली गैर राजसी पृष्ठभूमि की और ठकुराइन बहू थीं। इसके पहले सिंधिया घराने की कोई रिश्तेदारी ठाकुरों में नही थीं। आम परिवार की होने के बावजूद विजया राजे सिंंिधया में संभवतः जातीय गुण के कारण ठसक की प्रखरता थी। इमरजेंसी के जुल्मों से उनका बेटा भले ही इंदिरा गांधी के आगे झुक गया हो लेकिन वे आन-बान-शान के नाम पर मर मिटने को तैयार रहीं। लोकतांत्रिक राजनीति के इस नाते उनके अलग उसूल थे। उनके अहम को ठेस लगी तो उन्होंने मध्य प्रदेश के लौह पुरुष पं. द्वारिका प्रसाद मिश्रा के लिए कहा कि महल की ईंट-ईंट बिक जाये लेकिन पंडित जी को न मुख्यमंत्री रहने दूंगी न राजनीति करने दूंगी। इसके साथ ही उन्होंने महल का खजाना कांग्रेस विधायक दल को समेटने के लिए खोल दिया और रातों-रात डीपी मिश्रा की सरकार गिरा दी। पर जब उन्हें मुख्यमंत्री पद ऑफर किया गया तो उन्होंने कहा कि वे जन्मजात महारानी हैं चुनावी व्यवस्था की मुख्यमंत्री क्यों बनें। राजमाता मुख्यमंत्री नही बनीं उन्होंने कांग्रेस छोड़कर आये गोविंद नारायण सिंह को मध्य प्रदेश की पहली संविद सरकार का मुख्यमंत्री बनवा दिया।

1971 में वे भिण्ड-दतिया संसदीय क्षेत्र से लोक सभा के लिए चुनी गईं थीं। उस समय के भिण्ड के लोगों से अपुन ने सुना था कि किसी गांव में बाढ़ आ जाये या अग्निकांड के कारण गांव में बर्बादी हो जायें तो राजमाता का हैलीकाप्टर वहां उतरता था। जब उनसे लोग सरकार से मुआवजा दिलाने की बात कहते थे तो वे कहती थीं कि महारानी सरकार के आगे हाथ फैलाने जायेगीं क्या और अपने कारिंदों को जिनके मकान गिरे, जिनकी पूरी फसल नष्ट हो गई उनकी सूची तैयार कर भिजवाने को कहती थीं तांकि महल से उन्हें मदद भेजी जा सके।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मां-बेटे के बीच मतभेद की एक वजह यह थी कि माधव राव और उनकी नेपाली पत्नी को घरफूंक तमाशा देखना मंजूर नही था। वे राजसी गौरव बचाये रखने का प्रयास करने के बावजूद व्यवहारिक तरीके से राजनीति करने के कायल थे। इसलिए न केवल माधव राव कांग्रेस में शामिल हुए बल्कि राजीव सरकार में मंत्री भी बने। दूसरी ओर राजमाता के लिए जनता पार्टी सरकार में मंत्री बनने का मौका आया तो उन्होंने फिर कह दिया कि महारानी को चुनाव व्यवस्था के मंत्रिमंडल का पद मंजूर नही है। जनसंघ घटक की वे माई-बाप थीं। इसलिए पूरा जनसंघ घटक मंत्री बनाने के लिए उनके चरणों में लोटता रहा पर महारानी नही पसीजीं।

सिंधियाओं की फितरत दूसरे राजा-महाराजाओं से अलग रही। सामंतों का हमेशा प्रयास रहा कि प्रजा को विकास से वंचित रखा जाये लेकिन सिंधियाओं ने ऐसा नही किया। माधव राव सिंधिया ने केंद्र में रेल राज्य मंत्री बनने के बाद भारतीय रेलवे के नक्शे पर ग्वालियर का स्थान सबसे चमकदार बनाने की कोशिश की जब वे नागरिक उडडयन मंत्री थे उस समय उन्होंने ग्वालियर के महाराजपुर हवाई अडडे को इसी तरह निखारा और अपने ग्वालियर को एक जग बने न्यारा बनाने की कोशिश की।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जैसे-जैसे लोकतंत्र पैर पसारता चला गया और लोगों में अधिकार चेतना बढ़ती चली गई वैसे-वैसे राजसी ठसक से उन्हें वितृष्णा बढ़ने लगी। यहां तक कि माधव राव सिंधिया भी इसकी चपेट में जनहितकारी कार्यों को कराने के बावजूद आने से नही बच सके। डा. लोहिया ने महारानी के खिलाफ जब मेहतरानी को चुनाव लड़ाया था तो वैसे तो महारानी का कुछ नही बिगड़ा लेकिन शर्मिंदगी की वजह से महारानी उस समय अपनी जीत का जश्न नही मना सकी थीं। पर 1998 आते-आते माधव राव सिंधिया तक के लिए राजसी ग्लैमर लोगों की निगाह में निस्तेज हो चुका था और लोहिया का सपना पूरा करने पर उतारू वंचित जनता ने बसपा के फूल सिंह बरैया के मुकाबले उन्हें पटखनी दे दी होती। माधव राव तमाम गड़बडि़यों के बाद मात्र 25 हजार वोटों से महल के गढ़ में अपनी इज्जत बचा सके थे। नतीजतन उन्हें ग्वालियर छोड़कर आगामी चुनावों के लिए गुना-शिवपुरी क्षेत्र में जाना पड़ गया था।

जमाने की हवा की इस बदलती दिशा को फिर भी सिंधिया राजवंश कहीं न कहीं भांपने से इंकार करता रहा क्योंकि अपनी थाती से हर किसी को जबर्दस्त मोह होता है। ज्योतिरादित्य की बुआ यशोधरा राजे जब शिवराज कैबिनेट में मंत्री बनी तो उनके हठ के कारण एक शासनादेश जारी किया गया कि उनका उल्लेख करते समय उनके नाम के आगे श्रीमंत का संबोधन लिखना या कहना अनिवार्य होगा जिसकी बेहद आलोचना हुई थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी शाही दंभ की वजह से कांग्रेस में परेशानियों का शिकार हुए। अगर उन्होंने अपनी उम्र के अनुरूप वरिष्ठों का अदब करना सीखा होता तो वे कांग्रेस में निभा ले जाते और वक्त आने पर समूचे मध्य प्रदेश के सर्वोच्च नेता बन ही जाते। पर दिग्विजय सिंह और सारे सीनियर नेताओं को वे महाराज होने के दंभ में हीन भावना से देखते रहे जिसकी वजह से उन्हें चक्रव्यूह में फंस जाना पड़ा।

Advertisement. Scroll to continue reading.

भाजपा में खानदानी पहचान वालों का और बुरा दौर चल रहा है। मोदी ने ऐसी पहचान वाली हर शख्सियत को बोनसाई कर दिया है। पहला कार्यकाल होने की वजह से राजस्थान में उन्होंने ज्योतिरादित्य की बुआ बसुंधरा को ऊपरी तौर पर बर्दाश्त किया पर अंदर से वे उन्हें ठिकाने लगाते रहे। अब बसुंधरा राजे को पनपने की वे कोई गुंजाइश नही छोड़ेगें। ग्वालियर के लोग उनके विकास पुरुष पूर्वजों के संचित पुण्यों के कारण उनका मान बनाये हुए हैं। पर अगर उन्होंने इसे लेकर अपनी गलत फहमी नही छोड़ी तो भाजपा में भी उनकी फजीहत तय है।

लेखक केपी सिंह यूपी के जालौन जिले के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 9415187850 के जरिए किया जा सकता है.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement