कराची के साठ साल पुराने प्रेस क्लब में घुसकर हथियाबंद बदमाशों ने पत्रकारों पर किया हमला

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K Vikram Rao 


कराची का प्रेस क्लब…

कराची से एक बुरी खबर मिली है. गत रात कुछ सशस्त्र घुसपैठियों ने पत्रकारों को धमकाया, घायल कर दिया, अलमारियाँ खंगाली, वीडियो तस्वीरें खींची. हालांकि, सिंध के गवर्नर इमरान इस्माइल और वजीरे आला सैयद मुराद अली ने मीडिया को आश्वस्त किया कि दोषी दण्डित होंगे. पर ऐसी घटना इस साठ साल पुराने प्रेस क्लब में पहली बार हुई है.

उन्नीसवीं सदी में निर्मित इस विरासती दिनशा हवेली से मेरी निजी यादें जुड़ी हुई हैं. बड़ी मधुर भी, तेंतीस साल बाद वे आज भी सजीव हैं. हम तीन थे. यूएनआई (एर्नाकुलम) के के. मैथ्यू रॉय जो इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट (IFWJ) के प्रधान सचिव थे. दिल्ली में फाइनेंसियल एक्सप्रेस के विशेष संवाददाता चितरंजन आलवा, मुख्यालय सचिव, और मैं IFWJ अध्यक्ष. चीन में मई दिवस की शताब्दी समारोह में शरीक होकर दिल्ली लौट रहे थे. एयर चायना का का जहाज कराची हमें उतारकर बीजिंग लौट गया था. एयर इंडिया से हमें भारत आना था. कराची में दो दिन का प्रवास था. पत्रकार साथियों से मिलने हम तीनों प्रेस क्लब गए. माहे रमजान था. मगर शराब छलक रही थी. मुझे जाम को हाथ ना लगते देखकर क्लब अध्यक्ष ने मजाक किया कि हिन्दू भी रोजा रखते हैं. “मुझे शराब से नफरत है”, कहा मैंने.

मेरे मेजबान दैनिक जंग के संपादक ने मेरे लिये बिना लहसुन-प्याज का भोजन बनवाया था. वहाँ गौमांस बहुतायत में था. भारतीय दूतावास के अधिकारी आफताब सेठ (फिल्म गांधी में नेहरू बने रोशन सेठ के अनुज) ने मेरा साथ दिया. उन्हें शिकायत थी कि गोमांस का प्राचुर्य देखकर उन्हें उबकाई होने लगी है. हमारी मेहमाननवाजी में तैनात कूटनीतिक अफसर हैदराबाद (तेलंगाना) से पाकिस्तान आये थे. हम दोनों तेलुगु में बात करने लगे. वे बोले इस इस्लामी मुल्क में बेगाना सा महसूस करते हैं. सिन्धी-पंजाबी सुन्नियों का दबदबा है.

कराची प्रेस क्लब की अपनी खासियत है. इसे “लिबरेटेड एरिया” (मुक्त भूभाग) कहते हैं. सत्तासीन जो भी रहे, यहां केवल विपक्षी जन का ही स्वागत होता है. मार्शल अयूब खान से लेकर जनरल मियां मोहम्मद जियाउल हक़ यहाँ कभी फटक नहीं पाए. क्लब के मानद सदस्यों की सूची में जोश मलिहाबादी, फैज अहमद फैज, खिलाड़ी जावेद मियांदाद और प्रधानमंत्री बनने के बहुत पहले इमरान खान का नाम दर्ज है. मकबूल फ़िदा हुसैन ने नंगे पैर यहाँ आकर अपनी पेंटिंग भेंट की थी. शहीद इस्माइल द्वारा बना चित्र भी यहां टंगा है. दाऊदी बोहरा गुरु करीम आगा खान ने क्लब को सँवारने में दिल खोलकर पर्स खोल दिया था.

प्रेस क्लब भवन का नाम है दिनशा हवेली जो रंक से राजा बने पारसी आर्किटेक्ट ने 1860 में बनवायी थी. इस्लामी जम्हूरियत ए पाकिस्तान के प्रथम शिया मतावलंबी मेजर जनरल इसकंदर मिर्जा का यही आवास था. उन्होंने ही सरकार द्वारा 110 रूपये किराये पर पत्रकारों को यह भवन दिलवाया था. छः दिसम्बर 1961 के दिन वरिष्ठतम पत्रकार इसरारुल हसन बर्नी ने इसकी स्थापना की थी. संयोग था कि दिनशा हवेली जिस सड़क पर है उसका नाम अहमदाबाद से पाकिस्तान गए और बाद में प्रधान मंत्री बने इस्माइल इब्राहिम चुन्दरीगढ़ पर है.

कराची प्रेस क्लब में बुजुर्ग सहाफियों से जानकारी पाकर मैं हिन्दू- बहुल मोहल्ला पुन्नैयापुरी देखने गया. कराची के राष्ट्रवादी अंग्रेजी दैनिक ‘सिंध आब्जर्वर’ के संस्थापक मेरे ताऊजी स्व. कोटमराजू पुन्नैया (1920 से 1948 तक) थे. पाकिस्तानियों ने उदारता दर्शायी और मोहल्ले का नाम नहीं बदला.

हमें पर्यटन विभाग वाले फिर संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की समाधि स्थल दिखाने ले गये. मेरे दोनों पत्रकार साथी तो संगमरमर के चबूतरे पर चढ़े. मैं मजार से लगे बगीचे में फूल निहारता रहा. लाखों गैरमुसलमान के हत्यारे, भारत के विभाजक जिन्नाह से अपने सेवाग्राम के स्कूली दिनों से ही अतीव वितृष्णा रही. इस ढोंगी सरबराह को बापू ने अपनी भ्रमित नरमी के चलते कायदे आजम के ख़िताब से नवाजा था. लखनऊ में कई किस्से सुने थे मैंने इस जिन्नाह के बारे में.

पाकिस्तान के स्थापना दिवस पर (शुक्रवार, 14 अगस्त 1947) जिन्ना ने कराची में एक शानदार लंच दिया था. शराब खूब ढल रही थी. तभी गवर्नर जनरल के एडीसी ने उनके कान में फुसफुसाया कि वह दिन रमजान के रोजे का आखिरी जुमा था. जिन्नाह ने अनसुनी कर फिर जाम भर लिया.

जिन्नाह से भारत से गए मुसलमानों (मोहाजिर, यानी शरणार्थी) ने शिकायत की थी की पंजाबी तथा सिन्धी उन्हें मुसलमान नहीं मानते. जबकि विभाजन के जद्दोजहद में अवध के इन मुसलमानों की भूमिका विशाल थी. तब जिन्नाह ने उन शरणार्थियों को डांटा कि, “पाकिस्तान की स्थापना में केवल तीन का योगदान था. लीग के अध्यक्ष के नाते मेरा, मेरे निजी सहायक का और मेरे टाइपराइटर का.” मगर उर्दू की उपेक्षा पर जिन्ना ने इन भारत से गए मुसलमानों के प्रश्न का जवाब दिया की “पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही रहेगी.” तब पूछा एक श्रोता ने, “जनाब कायदे आजम साहब, आपको उर्दू तो आती नहीं.” जिन्ना बोले, “इतनी तो आती है की खानसामे को आर्डर दे सकूँ.”

लेखक के. विक्रम राव वरिष्ठ पत्रकार और आईएफडब्ल्यूजे के अध्यक्ष हैं. उनसे संपर्क 9415000909 या k-vikramrao@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.

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