सुशोभित-
“कलम जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो”- यह उक्ति कार्ल मार्क्स पर पूरी तरह से सटीक बैठती है, जिन्होंने आजीवन क़लम को ही तलवार की तरह भाँजा था। उन्होंने अख़बारों के लिए लेख लिखे, ख़ुद अख़बार निकाले, अपने समय के ज्वलंत सवालों पर जिरहें कीं, दुनिया में हो रही हलचलों पर पैनी नज़र रखकर उन पर रिपोर्टें लिखीं और सत्तातंत्र से वैर ठाना। उनके अख़बारों पर पाबंदियाँ लगाई गईं, प्रतियाँ ज़ब्त की गईं, उन्हें शहरबदर होना पड़ा, लेकिन वे अनवरत पढ़ते, सोचते और लिखते रहे। एक पत्रकार के रूप में ही मार्क्स ने इतना लेखन किया है कि ‘मार्क्स-एंगेल्स कम्प्लीट वर्क्स’ के 50 में से 10 खण्ड उनके द्वारा विभिन्न अख़बारों के लिए लिखे लेखों से भरे हैं। 500 से ज़्यादा लेख तो उन्होंने अकेले ‘न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून’ के लिए ही लिखे थे।
पत्रकारिता की दुनिया से मार्क्स का पहला परिचय साल 1842 में हुआ, जब उन्होंने कोलोन से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘रीनिश न्यूज़पेपर’ (Rheinische Zeitung) के लिए लिखना शुरू किया। जल्द ही वे इस अख़बार के सम्पादक नियुक्त हो गए। शुरू में इसकी केवल 400 प्रतियाँ थीं। मार्क्स इसे एक साल के भीतर ही बढ़ाकर 3400 प्रतियों तक ले आए और यह अख़बार प्रशिया की सीमाओं से बाहर भी पढ़ा जाने लगा। इंग्लैंड तक से फ्रेडरिक एंगेल्स इस अख़बार के लिए तब अपनी रिपोर्टें भेजा करते थे।
लेकिन प्रशियन हुकूमत ने इसे राज्यसत्ता के लिए ख़तरनाक बताते हुए बैन कर दिया। अख़बार में मार्क्स के द्वारा प्रेस फ्रीडम, लोकतंत्र के स्वरूप, निजी सम्पत्ति और ग़रीब-विरोधी क़ानूनों पर लिखे लेखों ने उस समय सनसनी पैदा कर दी थी। अख़बार पर रोक लगाए जाने की तत्कालीन राइनलैंड (जर्मनी का वह प्रांत, जहाँ से यह अख़बार निकलता था) में तीखी प्रतिक्रिया हुई और हस्ताक्षर अभियान चलाए गए। एक अख़बार ने एक कार्टून छापा, जिसमें मार्क्स को ग्रीक विप्लवी देवता प्रमिथियस की तरह चित्रित किया गया था। व्यंग्यचित्र में वे एक प्रिंटिंग प्रेस से बंधे थे और प्रशियन सेंसरशिप उन पर प्रहार कर रही थी।
मार्क्स ने तब प्रशिया छोड़ने का फ़ैसला किया, जब प्रशियन सरकार ने उन्हें घूस देने की कोशिश की। मार्क्स के पिता के एक मित्र ने उनके सामने प्रशियन सिविल सेवा में एक प्रभावी ओहदे की पेशकश रखी। जैसे ही स्वाभिमानी मार्क्स ने यह प्रस्ताव सुना, उन्होंने आहत होकर अपनी पत्नी जेनी से कहा, “चलो अब यहाँ से कहीं और चलते हैं।” वे प्रशिया छोड़कर पेरिस जा बसे।
पेरिस में मार्क्स ने अर्नाल्ड रूग के साथ फ़रवरी 1844 में एक और अख़बार निकाला- ‘जर्मन-फ्रेंच एनल्स’ (Deutsch–Französische Jahrbücher)। इसके दो ही अंक निकले, लेकिन इसमें मार्क्स के दो महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए थे- ‘ऑन द ज्यूइश क्वेश्चन’ और ‘क्रिटीक ऑफ़ हेगेल्स फिलॉस्फ़ी ऑफ़ राइट : इंट्रोडक्शन’। मार्क्स के इन लेखों में हेगेल के प्रभाव-क्षेत्र से बाहर निकलकर भौतिकवाद की ओर उनके बढ़ते रुख़ की स्पष्ट झलक दिखलाई दी थी। उस समय के महत्त्वपूर्ण जर्मन कवि हाइनरिख़ हाइने ने भी इस अख़बार के लिए लिखा। एंगेल्स सहित अन्य के लेख भी इसमें आए। इस अख़बार की प्रतियाँ सुदूर रूस तक पहुँची थीं। लेकिन इसकी 3000 प्रकाशित प्रतियों में से दो-तिहाई को प्रशियन पुलिस ने ज़ब्त कर लिया और मार्क्स की गिरफ़्तारी का आदेश जारी कर दिया।
चार साल बाद मार्क्स ने कोलोन से अपना सबसे महत्त्वपूर्ण अख़बार निकाला और अतीत में बैन किए गए ‘रीनिश न्यूज़पेपर’ की याद में उसे ‘न्यू रीनिश न्यूज़पेपर’ (Neue Rheinische Zeitung) कहकर पुकारा। यह अख़बार 1 जून 1848 से 19 मई 1849 तक निकला। साल 1848 यूरोप में क्रांतियों का वर्ष था और ‘न्यू रीनिश न्यूज़पेपर’ को जर्मन-विप्लव का मुखपत्र कहकर पुकारा गया था। इसके 301 अंक निकले और इसकी प्रसार-संख्या 6000 प्रतियों तक पहुँची। एक बार फिर प्रशियन सत्ता ने अख़बार के काम में दख़ल दिया। सरकार के मुलाजिम अख़बार के एक लेखक को गिरफ़्तार करने प्रेस आ धमके। मार्क्स ने अपने लेखक को सरकार को सौंपने से इनकार कर दिया। आखिरकार इस अख़बार को भी बंद करना पड़ा। 19 मई 1849 को इसका अंतिम अंक मार्क्स ने लाल स्याही से प्रकाशित किया था। इसे ‘लाल पन्ना’ नाम से जाना गया। इस अख़बार में प्रकाशित मार्क्स के लेख पहली बार सवा सौ साल बाद 1977 में ही जाकर अंग्रेज़ी में अनूदित हो सके थे, जब प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को ने 50 खण्डों में ‘मार्क्स-एंगेल्स कलेक्टेड वर्क्स’ निकाले। ‘कलेक्टेड वर्क्स’ का सातवाँ, आठवाँ और नौवाँ खण्ड पूर्णतया ‘न्यू रीनिश न्यूज़पेपर’ में प्रकाशित लेखों से निर्मित हुआ है।
लेकिन मार्क्स के पत्रकारिता-जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अध्याय लंदन में लिखा गया, जब उन्होंने अमेरिका के ‘न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून’ के लिए रिपोर्टें भेजना शुरू किया। उस समय पूरी दुनिया में हलचलें हो रही थीं। चीन में दूसरा ओपियम वॉर, भारत में 1857 का ग़दर, अमेरिका में गृहयुद्ध, यूरोप में क्रांतियों के बाद की उथलपुथल, इंग्लैंड में चुनाव आदि। मार्क्स ने इन तमाम विषयों पर अथक परिश्रम करके तथ्य-संकलन किए और लेख लिखे। उस समय यह स्थिति थी कि वे घंटों लंदन की ब्रिटिश लाइब्रेरी में बैठे रहते थे और संदर्भ खंगालते रहते थे। कई बार तो वे पढ़ते-पढ़ते अचेत हो जाते थे। इन लेखों को भाप के जहाज़ की मदद से न्यूयॉर्क भेजा जाता था और वे लिखे जाने के दस से पंद्रह दिन बाद ही प्रकाशित हो पाते थे। उस समय ‘न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून’ दुनिया के प्रमुख अख़बारों में से था। वह अमेरिका में दासप्रथा के प्रतिरोध का मुखपत्र भी था। इसमें प्रकाशित मार्क्स के सैकड़ों लेखों ने उन्हें आँग्लभाषी वर्ग में पहचान दिलाई, क्योंकि मूलत: जर्मन में लिखी होने के कारण उनकी अधिकांश किताबों से अंग्रेज़ी के पाठक तब तक परिचित नहीं थे। स्वयं ‘द कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो’ का प्रकाशन मार्क्स के जीवनकाल में अंग्रेज़ी में नहीं हो सका था। यह सबसे पहले 1888 में ही जाकर प्रकाशित हुआ था।
उसी कालखण्ड में भारत के इतिहास और उसकी नियति में कार्ल मार्क्स की गहरी रुचि जगी और उन्होंने मध्यकालीन और समकालीन भारतीय इतिहास पर अनेक नोट्स लिए। ‘न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून’ में प्रकाशित मार्क्स के लेखों के आधार पर ही भारत पर केंद्रित मार्क्स की किताबें ‘द फ़र्स्ट इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस’ और ‘ऑन कलोनियलिज़्म’ कालान्तर में प्रकाशित हुई हैं। भारत के पाठकों को मार्क्स की इन दो किताबों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
पत्रकारिता को इतिहास का पहला प्रारूप (फ़र्स्ट ड्राफ़्ट ऑफ़ हिस्ट्री) कहा गया है। इसका निष्पक्ष, तार्किक, शोधपूर्ण, प्रखर और सत्यान्वेषी होना सभ्य-समाज के लिए अत्यावश्यक है। वर्तमान में पत्रकारिता के पतन का जैसा शर्मनाक दौर चल रहा है, उसके परिप्रेक्ष्य में कार्ल मार्क्स को एक जर्नलिस्ट के रूप में याद करने का पृथक से महत्त्व है।