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केरल स्टोरी फ़िल्म से सही सबक़ सीखें, ग़लत नहीं!

सुशोभित-

चर्चित फ़िल्म केरल स्टोरी के आधार पर अगर भारत-देश के लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं कि हमें बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा देनी चाहिए तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कोई दूसरा नहीं हो सकता!

जबकि होना इससे उलटा चाहिए। बच्चों को कम से कम धर्म और अधिक से अधिक विज्ञान सिखाना चाहिए। बच्चों को कम से कम मूर्ख और अधिक से अधिक बुद्धिमान बनाया जाना चाहिए- तार्किक, विवेकशील, सजग। वास्तव में उस चर्चित फ़िल्म की लड़कियाँ अगर सुशिक्षित होतीं तो कोई उनका धर्मांतरण नहीं कर सकता था। जब धर्म ही नहीं होगा तो कोई क्या अंतरण कर लेगा? धर्मांतरण एक अति से दूसरी अति पर चले जाना है, लेकिन बात वही है। पहले आप एक झूठ को मानते थे, अब दूसरे को मानने लगे। पहले एक फ़र्ज़ी ईश्वर में आस्था रखते थे, अब दूसरे में रखने लगे।

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वास्तव में जो व्यक्ति धर्मभीरू होता है, वह मन ही मन दूसरे धर्म का भी आदर करता है। क्योंकि सामाजिक शिष्टाचार यह कहता है कि जैसे मैं प्रार्थना करता हूँ, दूसरा भी करेगा। जैसे मैं त्योहार मनाता हूँ, दूसरा भी मनाएगा। फिर वह दूसरे को उसके त्योहार की मुबारक़बाद भी देता है, चाहे उसमें मासूमों का रक्तपात ही क्यों न हो। वो मुबारक़बाद देता ही इसलिए है, क्योंकि उसने अपना स्वयं का त्योहार ख़ूब ज़ोर-शोर से मनाया था। तुमने उन्हें तो जानवरों का गला काटने से नहीं रोका, अब हम भी पटाखे छोड़ेंगे। दोनों मिलकर पृथ्वी का सत्यानाश करेंगे। धर्म यही सब बातें सिखाता है।

ऐसा आज तक नहीं हुआ कि कोई समाज अतिशय धार्मिक हो और उसने ज़िम्मेदार, प्रबुद्ध, समझदार नागरिक पैदा किए हों।

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आपका जन्म जिस धर्म में हुआ है, जब आप उसकी आलोचना करने का विवेक विकसित कर पाते हैं, तभी आप दूसरे धर्म की भी आलोचना करते हैं। ऑर्गेनाइज़्ड रिलीजन नामक बुराई का सम्पूर्ण प्रतिकार इसी तरह सम्भव है। वह ऐसे सम्भव नहीं है कि आप अपने धर्म का गुणगान करते रहें और दूसरे में मीन-मेख निकालते रहें। वह तो फ़ंडामेंटलिज़्म हो गया। बच्चों को एक दुष्चक्र में धकेलना हो गया।

पहले ही भारत-देश की बौद्धिक और शैक्षिक दशा बहुत शोचनीय और दयनीय थी। पहले ही एक आम भारतीय की वैज्ञानिक चेतना चिंताजनक थी। तिस पर यह महामारी कि अब हम अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा देंगे। जैसी सरकार होती है, वैसी प्रजा हो जाती है। यह सरकार के हाथ में होता है कि प्रजा को किस दिशा में लेकर जाना है। अब सरकार ही धर्म-प्रचारक हो तो नागरिक की क्या कहें?

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सोवियत यूनियन में एथीस्ट सरकार थी। क्रेमलिन से ईश्वर-विरोधी पोस्टर जारी किए जाते थे कि हम अंतरिक्ष में गए, लेकिन गॉड कहीं नहीं मिला। सोवियत संघ में धार्मिक सम्पत्तियों को हुकूमत ने ज़ब्त कर लिया था और अलबत्ता लोगों को धर्मपालन की आज़ादी थी, लेकिन एक ओवरऑल माहौल धर्मविरुद्ध था। स्कूलों में बच्चों को विज्ञान सिखाया जाता था। इसके बूते महज़ साठ-सत्तर साल में उन्होंने एक कृषि-प्रधान सामंती देश को अमरीका की टक्कर की महाशक्ति बना दिया। अमरीका से पहले उन्होंने स्पेस में एक आदमी को भेज दिया- यह कोई छोटी बात है? वो लोग भजन-कीर्तन करते रहते तो हो गया था यह सब।

क्या ही आश्चर्य है कि भारत-देश के लोग अपने मुल्क को महाशक्ति भी बनाना चाहते हैं और धर्म के प्रति आग्रही भी होना चाहते हैं। मज़हबी मुल्कों ने कितनी तरक़्क़ी कर ली है, यह इतिहास उठाकर देख लीजिए। और तरक़्क़ी का मतलब जीडीपी नहीं होती, सड़कें और हवाई अड्‌डे नहीं होते- तरक़्क़ी का मतलब आपके सामान्य नागरिक का बौद्धिक स्तर, आपके द्वारा जीते गए फ़िज़िक्स और लिट्रेचर के नोबेल, पर्यावरण के प्रति आपकी सजगता और नागरिक के रूप में आपकी ज़िम्मेदारी के सूचकांक होते हैं।

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जैसे-जैसे धर्म घटेगा, वैसे-वैसे नागरिक चेतना बढ़ेगी। जैसे-जैसे धर्म बढ़ेगा, लोगों का बौद्धिक स्तर नीचे गिरेगा और समाज में हिंसा, कुंठा, अराजकता बढ़ेगी। फ़ैक्ट है। धार्मिक आडम्बर के विरोध की जो एक धारा भारत में बुद्ध से शुरू हुई थी, नवजागरण के समाज-सुधारकों से आगे बढ़ी थी और नेहरू-बहादुर की सरकार के साथ प्रतिष्ठित हुई थी, वह आज एक प्रतिक्रियावादी दुष्चक्र में धँस गई है और बीते दसेक सालों में भारत देश का एवरेज-आईक्यू तेज़ी से नीचे गिरा है।

कोई कितना मज़हबी कट्‌टरपंथी है, उससे यह सबक़ नहीं मिलता कि हम अपने बच्चों को भी वैसा बना दें। उससे उलटे यह सबक़ मिलता है कि भूल के भी अपने बच्चों को वैसा न बनने दें। चर्चित फ़िल्म से सही सबक़ सीखें, ग़लत नहीं।

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यह तस्वीर देखें : एंटी-रिलीजन सोवियत पोस्टर। धर्म के प्रतीकों पर हथौड़े का प्रहार। ये सरकार के द्वारा जारी किए जाते थे! शाब्बाश, सोवियत यूनियन!

1 Comment

1 Comment

  1. Hari kant

    May 11, 2023 at 11:22 pm

    Vampanth se azadi azadi azadi Fuckoff azadi
    Murkh seculirist

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